देखने में छोटा किन्तु परिणाम की दृष्टि से महान प्रयोग

August 1983

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पृष्ठभूमि सुदृढ़ हो तो छोटे साधन भी बड़े चमत्कार प्रस्तुत कर सकते हैं। अंगद ने रावण की सभा में पैर जमाकर समस्त असुरों को उसे उखाड़ने की चुनौती दी थी। यह अंगद का पराक्रम नहीं, राम का समर्थन था। जस्ते का तनिक सा टुकड़ा गोली बनकर इसलिए लक्ष्य बेध करता है कि उसके पीछे बन्दूक में उत्पन्न हुई प्रचण्ड शक्ति काम करती है। इसके बिना वह गोली बच्चों के खेल-खिलवाड़ से अधिक और कोई प्रयोजन पूरा नहीं कर सकती। यौगिकों का अभिमन्त्रित जल या भस्म से होने वाले चमत्कारों के पीछे उसे पानी या राख की नहीं योगियों की सामर्थ्य काम करती है। प्रज्ञा पुरश्चरण का विधान तनिक-सा ही कर्मकाण्ड के हल्का-फुलके होने के कारण किसी का यह सन्देह नहीं करना चाहिए कि इतने भर से क्या प्रयोजन सधेगा। देखना उस पृष्ठभूमि को है, जिसके कारण इस प्रयोग के असाधारण परिणाम की आशा एवं घोषणा की गई हैं।

प्रज्ञा परिवार से इन दिनों प्रायः बीस लाख व्यक्ति सम्बद्ध हैं। उनका चिन्तन, विश्वास, स्वभाव एवं निर्धारण एक निश्चित दिशा में प्रवाहित अग्रसर होता है। इतने लोगों द्वारा नियत समय पर नियत विधान एक विश्वास के आधार पर किया गया साधना उपचार यदि चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करता है तो उसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।

किसी बड़े पुल पर से यदि सैनिकों की एक टुकड़ी कदम से कदम मिलाकर इस प्रकार चले कि उनकी ध्वनि तालबद्ध होकर उठें तो इतने भर से वह पुल धराशायी हो सकता है। संगीत यन्त्र साधारण रीति से बजता और मनोरंजन करता रहता है, किन्तु यदि उसके ताल स्वर क्रमबद्ध कर दिये जाय तो दीपक राग-मेघ मल्हार, मृग सम्मोहन जैसे चमत्कृत करने वाले परिणाम सामने आ सकते हैं। रोग निवारण में, दूध बढ़ाने में, पौधे बढ़ाने में, प्रजनन सुधारने में इन दिनों संगीत के अद्भुत परिणाम सामने आये हैं। उन शोध प्रयोजनों से यह निष्कर्ष निकला है कि स्वर और ताल की क्रमबद्धता से ध्वनि प्रवाह को सामर्थ्य स्त्रोत के रूप में विकसित किया जा सकता है।

मन्त्र विज्ञान के आधार पर उत्पन्न होती परिणतियों का कारण स्वर विज्ञान में खोजा जा सकता है। उनके साम गान के आधार पर और विज्ञानी परोक्ष विधा के आधार पर असाधारण प्रभाव परिणाम उत्पन्न करते थे। उन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रज्ञा पुरश्चरण की छोटी-सी सर्वसुलभ साधना को महत्वपूर्ण बनाया गया है। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षर जब एक समय में, एक साथ, एक प्रकार, एक प्रयोजन के लिए ध्वनित होंगे, तो उसमें सामूहिकता की प्राणशक्ति का आश्चर्यजनक समावेश होगा। बीस लाख व्यक्तियों की प्राण ऊर्जा जब तालबद्ध, समयबद्ध, क्रमबद्ध, अनुशासनबद्ध, विधानबद्ध होकर निस्सृत होगी तो उसके आशातीत परिणामों की अपेक्षा करने में तनिक भी अतिवाद नहीं है।

उपासना विज्ञान के रहस्यवेत्ता एक समय पर एक प्रक्रिया के क्रियान्वित होने की परिणति का अनुमान ही नहीं अनुभव भी प्रस्तुत करते रहे हैं कि मन्त्र शक्ति की पृष्ठभूमि में इस एकता, एकरूपता, एक समय निर्धारण का कम महत्व नहीं है। भारतीय धर्म में प्रातः सायं सूर्योदय और सूर्यास्त का समय संध्या काल बताया गया है। इस समय के संध्या वन्दन को अन्य समयों की अपेक्षा कहीं अधिक सत्परिणाम प्रस्तुत करने वाला बताया गया है। इस्लाम धर्म में नमाज के मन्त्रों का जितना महत्व है, उतना ही उस प्रक्रिया का नियत समय पर करने का भी अनुशासन है। मस्जिदों में अजान दी जाती है। मन्दिरों में शंख ध्वनि होती है, ताकि नियत समय पर सभी साधक अपनी विधान प्रक्रिया सम्पन्न करें। गिरजाघरों में भी नियत समय पर ‘प्रेशर’ के लिए उपस्थित होने का अनुशासन है। इसके लिए घन्टे बजते हैं और घड़ी से नियत विधान का परिपालन होता है। सभी महत्वपूर्ण धर्मों में अपने-अपने ढंग से उपासना कृत्यों को नियत समय पर सम्पन्न करने का अनुशासन है, उसके निर्वाह का कठोर निर्धारण भी।

अस्त-व्यस्त ढंग से मनमौजी ढंग से की गई महत्वपूर्ण उपासना भी निरर्थक चली जाती है, जबकि निर्धारित अनुशासन का परिपालन सामान्य विधि-विधानों की भी अद्भुत परिणति उत्पन्न करता देखा गया है। इस संदर्भ में न केवल समय का वरन् विधान की एकरूपता का भी अपना महत्व है। जीवन्त धर्मों में उपासनात्मक-एकरूपता को बहुत महत्व दिया गया है। उनमें एक मन्त्र, एक विधान, एक अनुगमन पर बहुत जोर दिया गया है। एक विच्छृंखलित हिन्दू धर्म ही है। जिसमें साम्प्रदायिक विभ्रमों ने सब कुछ अस्त-व्यस्त अव्यवस्थित करके रख दिया है। धार्मिक क्षेत्र की इस अराजकता को दूर करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। अन्यथा विपरीत के रहते साधना विधानों का सत्परिणाम न तो व्यक्ति विशेष को मिल सकता और न उससे अदृश्य वातावरण-अदृश्य जगत पर कोई कारगर प्रभाव पड़ सकेगा। फलतः वह प्रयास एक प्रकार से निरर्थक जैसा बनकर रह जायेगा।

इन विश्व संकट के दिनों में जबकि अध्यात्म उपचारों का आश्रय लिया जा रहा है, समय, विधान एवं अनुशासन की समस्वरता पर ध्यान केन्द्रित करने की विशेष रूप से आवश्यकता है। यह सार्वभौम प्रश्न है। इस ओर साधना क्षेत्र के संबंध रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए। अन्य धर्मों की तुलना में सिकुड़ते हुए हिन्दू धर्म की विच्छृंखलिता अधिक चिन्ताजनक है। न केवल इस समुदाय को सम्भाला सुधारा जाना चाहिए वरन् विश्व के समस्त धर्मप्रेमियों, आस्तिकों, उपासना प्रिय लोगों को यह समझाया जाना चाहिए कि उपासना में भावना का, विधान का जितना महत्व है उससे अनुशासन पालन की गरिमा किसी भी प्रकार कम नहीं। इस संदर्भ में असावधानी बरती गई तो चिन्ह-पूजा भर चलती रहेगी, जिन तीक्ष्ण परिणामों की आशा की गई है उस संबंध में निराश ही रहना पड़ेगा।

इस विश्व संकट के दिनों में 500 करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक को युग साधना के रूप में-प्रज्ञा पुरश्चरण की भागीदारी ग्रहण करने के लिए कहा और सहमत किया जाना है। यह प्रयत्न न तो हिन्दू धर्मानुयायियों तक सीमित है और न परिणामों को उन्हीं लोगों तक रहना है। ऐसी दशा में प्रज्ञा पुरश्चरण को सार्वजनीन ही समझा जाना चाहिए। गायत्री मन्त्र के संबंध में यह रहस्य समझा और समझाया जाना चाहिए कि वह किसी सम्प्रदाय विशेष की पूजा पत्री नहीं है वरन् उसके अक्षरों में ध्वनि विज्ञान के ऐसे रहस्यों का भी समावेश है, जिससे साधक की सत्ता में उपयोगी तरंगें उत्पन्न होती है और समूचे अदृश्य जगत में विषाक्तता को निरस्त करने की सशक्त प्रक्रिया विनिर्मित होती है। साथ ही अन्तरिक्ष में देव-तत्वों के अभिवर्धन-परिपोषण का ऐसा प्रमाण बन पड़ता है जैसा कि किसान और माली फसल उद्यान के निमित्त अपनाया करते हैं।

सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि गायत्री मन्त्र की जितनी आवृत्तियाँ हुई हैं, उतनी और किसी उपासना प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाले शब्द गुच्छक की नहीं। सृष्टि में अनेकों विभूतियाँ हैं, उनमें से एक गायत्री भी है। उसका शब्द गुँथन इस प्रकार हुआ हैं, जो भावार्थ और सामर्थ्य की दृष्टि से विलक्षण है। उससे व्यक्ति और समाज को सुसंपन्न, सुसंस्कृत एवं समृद्ध बनाने वाले अनेकानेक रहस्यमय तत्वों का समावेश है। त्रिपदा के तीन चरणों में समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी के सिद्धान्त की साँगोपाँग विवेचना भरी पड़ी है। विश्व का यह सबसे छोटा किन्तु सबसे सारगर्भित धर्मशास्त्र तत्व-दर्शन एवं अध्यात्म विज्ञान है। सतयुगी विश्व व्यवस्था के समस्त सूत्र संकेत इसमें बीज रूप में कूट-कूटकर भरे हुए हैं। इसे नवयुग का संविधान कहें तो भी अत्युक्ति न होगी। नई दुनिया का-प्रज्ञा युग का जब भी ढाँचा खड़ा होगा तब उसका संविधान बनाने के लिए इसी चिर पुरातन एवं नित नवीन बीज मन्त्र का आश्रय लेना पड़ेगा। ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराएँ इसमें समान रूप से समाहित हैं। उपासना की दृष्टि से उसके दोनों ही प्रभाव प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। साधक के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर का परिशोधन, परिष्कार करने की व्यक्तिगत जितनी सामर्थ्य इसमें है उतनी कदाचित ही किसी अन्य उपासना आधार से मिल सके। साथ ही इस शब्द प्रवाह के साथ जुड़ी हुई सामर्थ्य अदृश्य जगत में अन्तरिक्ष में भरी विषाक्तताओं का निराकरण कर सकने में भी समर्थ है।

ऐसे ही अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए गायत्री को पुरातन काल की तरह भविष्य में भी विश्व मानव की समग्र प्रगति में सहायक माना जायेगा। समय रहते उसका ज्ञान विज्ञान जन साधारण को समझना और समझाया जाना चाहिए। सामयिक आवश्यकताओं की दृष्टि से उसे तात्कालिक उपचार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

इन दिनों की प्रत्यक्ष विभीषिकाओं के पीछे अदृश्य जगत का परिमार्जन आवश्यक हो गया है। इसके लिए गायत्री मन्त्र के शब्द बेधी बाण का-नाद ब्रह्म का आश्रय लेना आवश्यक है। प्रज्ञा अनुष्ठान की सुनियोजित अत्यधिक व्यापक योजना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाई गई है और उसमें गायत्री मन्त्र को हर दृष्टि से उपयुक्त पाकर आधार बनाया गया है।

एक समय में, एक विधान अनुशासन सहित एक लक्ष्य की पूर्ति के लिए यदि बीस लाख व्यक्तियों द्वारा एक अध्यात्म उपक्रम अपनाया जाता है तो उसका प्रतिफल भी आयोजन के अनुरूप ही होना चाहिए। भूतकाल में भी ऐसा ही होता रहा है। देवताओं पर जब-जब विपत्ति आई है और वे अपने निजी प्रयत्नों द्वारा उसे टालने में असफल रहे हैं। तब-तब वे एकत्रित होकर विधाता के पास गये हैं। एक स्वर में बोले-एक प्रयास के लिए सहमत हुए और एक अनुशासन के अंतर्गत काम करने के लिए सहमत हुए है। त्राण उन्हें इससे कम में मिला भी नहीं और मिल भी नहीं सकता था। एक दो शक्ति कितनी ही प्रखर क्यों न हो, रहेगी अकेली ही। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता वाली कहावत यों लागू तो अनेक प्रसंगों पर होती है, पर सामूहिक विपत्ति के टालने के संदर्भ में तो यह एक प्रकार से अनिवार्य ही हो जाता है कि सज्जनों की संयुक्त शक्ति विकसित करने का सरंजाम जुटाया जाय।

समय संकट से जूझने के लिए अध्यात्म उपचार के रूप में जहाँ प्रज्ञा पुरश्चरण का आयोजन है, उसका एक सामान्य लाभ यह भी है कि समय की पाबन्दी और नियत समय पर नियत काम करने की आदत का नये सिरे से शुभारम्भ होगा। कार्य चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक स्वार्थ के हों या परमार्थ के-हर प्रसंग में समय, कार्य और अनुशासन का तालमेल बिठा सकने की प्रवृत्ति ऐसी है जिससे सफलताओं के सुनिश्चित आधार खड़े होते हैं। असफलताओं के अन्यान्य कारणों में प्रमुख मनुष्य की स्वभावगत अस्त-व्यस्तता है, उसे सुधारने, बदलने से भी प्रज्ञा पुरश्चरण का बहुत बड़ा प्रयोजन सम्भव हो सकेगा।


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