अपनों से अपनी बात - एक वर्ष की प्रज्ञा प्रव्रज्या का साहस जुटायें

August 1983

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प्रस्तुत विभीषिकाओं से निपटने और उज्ज्वल भविष्य का अभिनव निर्धारण करने के लिए जागृत आत्माओं को अग्रिम पंक्ति में खड़ा करना होगा। सृजन पर्व के अग्रदूत की भूमिका निभानी होगी। उदीयमान सूर्य की प्रथम किरणें पर्वत शिखरों पर चमकती हैं। सृष्टा की अदृश्य युग परिवर्तन प्रक्रिया को प्रत्यक्ष कार्यान्वयन दायित्व युग प्रहरियों के कन्धों पर ही आता है।

हनुमान, अर्जुन निजी पुरुषार्थ के धनी नहीं थे। अन्यथा जो समुद्र छलाँग सकता है, पर्वत उखाड़ सकता है, लंका उजाड़ सकता है वह बालि के भय से छिपते-फिरने वाले सुग्रीव के यहाँ नौकरी क्यों करते? पहले ही बाली से क्यों न लिपट लिया होता? अर्जुन यदि महाभारत जीत सकते थे तो द्रौपदी का भरी सभा में अपमान क्यों सहा? अज्ञातवास में दिन गुजारते, मुँह छिपाते जिस-तिस की नौकरी क्यों करते फिरे? निश्चय ही भगवान की इच्छापूर्ति के निमित्त माध्यम बन कर उनने वह श्रेय पाया। बुद्ध और गाँधी का निजी व्यक्तित्व या पराक्रम की जाँच-पड़ताल व्यर्थ है। यदि वे युग की पुकार को समझने और तद्नुरूप जीवनक्रम बनाने में कदम न बढ़ाते तो उन्हें सामान्य जन्मों की तरह ही पेट प्रजनन के कोल्हू में पिघले हुए संसार से विदा होना पड़ता। शंकराचार्य, समर्थ, विवेकानन्द दयानन्द आदि की भूमिकाएँ इसलिए उच्चस्तरीय रहीं कि उनने युग धर्म पहचाना और उसकी पूर्ति में संलग्न होने का शौर्य साहस अपनाया। लोभ मोह के व्यवधान को आड़े न आने दिया। तूफान के साथ उड़ने वाले तिनके और धूलि कण आकाश चूमते हैं। प्रवाह के साथ तैरने वाले पत्ते सहज ही दौड़ लगाते और समुद्र तक जा पहुँचते हैं। सृष्टा के संकेतों पर चलने वाले सुदामा, नरसी, सुग्रीव, विभीषण की तरह निहाल होते देखे गये हैं।

इन दिनों युगान्तरीय चेतना के पीछे सृष्टा की उद्दीप्त आकाँक्षा काम करती देखी जा सकती है। उसके सहयोगी रीछ-वानरों, ग्वाल-बालों, सत्याग्रहियों और बौद्ध परिव्राजकों की तरह चिरस्मरणीय और अभिनन्दनीय बनेंगे। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो तो प्रज्ञा अभियान के सूत्र संचालकों की वरिष्ठता को देखते हुए तथ्य का अनुमान लगाया जा सकता है और अनुकरण करते हुए श्रेयाधिकारी बना और कृत-कृत्य हुआ जा सकता है। सार्थकता उसी जीवन की है जो स्वयं पार उतरे और अनेकों को अपनी नाव में बिठाकर पार करे।

जागृत आत्माओं का समयदान ही अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। प्रस्तुत समस्याओं का एक मात्र हल लोक-मानस का परिष्कार है। दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए कठोर शौर्य साहस अपनाये बिना-त्याग बलिदान का परिचय दिये बिना और कोई गति नहीं। संकीर्ण स्वार्थपरता के अतिरिक्त जिन्हें और कुछ दीखता सूझता ही नहीं, उनकी बात दूसरी है पर जिनमें उदात्त दूरदर्शिता का बीजाँकुर विद्यमान है उन्हें तृष्णाओं पर अंकुश लगाने और युग निमन्त्रण स्वीकारने के लिए कदम बढ़ाने ही चाहिए। इसके लिए आज से अच्छा मुहूर्त फिर कभी आने वाला नहीं है।

युग सन्धि के बीस वर्षों में यह वर्ष अत्यधिक महत्व का है। उसमें वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों का अधिक समयदान अपेक्षित है। सामान्य जन स्थानीय स्वाध्याय मण्डल-प्रज्ञा संस्थान के साथ संयुक्त रहकर दो घण्टे नित्य उस प्रयोजन के लिए लगाने लगे तो निश्चय ही उस क्षेत्र में नव-जागरण का माहौल बनेगा और उत्साहवर्धक परिवर्धन अभिवर्धन का प्रवाह देखते-देखते चल पड़ेगा। समय की अनुकूलता में स्वल्प प्रयत्न भी सफल होते देखे गये हैं। हवा का रुख अनुकूल हो तो हर किसी की चाल में अनायास ही अभिवृद्धि होती है।

यहाँ विशेष चर्चा अधिक समय देने वालों की हो रही है। इन दिनों कितने ही असाधारण कार्यक्रम सामने आ खड़े हुए हैं ऐसे उत्तरदायित्व कन्धों पर लद गये हैं जिनकी पूर्ति वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों के अधिक समयदान से ही हो सकती है।

स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा संस्थान, अभी-अभी अंकुरित हुए हैं। उनमें खाद पानी लगाने की ठीक इन्हीं दिनों आवश्यकता पड़ रही है। उन्हें प्रेरणा प्रदान करने, उत्साह भरने और जन सहयोग दिलाने के लिए आवश्यक घोषित किया गया है कि सभी की वार्षिकोत्सव प्रज्ञा आयोजनों के रूप में सम्पन्न हों। ऐसे आयोजन इस वर्ष में-अक्टूबर से जून तक प्रायः दस हजार की संख्या में सम्पन्न किये जाने हैं। इनके लिए प्रचारकों की मण्डलियाँ प्रशिक्षित की जाती हैं। उन्हें गायन, वादन, प्रवचन, प्रदर्शनी, प्रदर्शन, जन संपर्क, सत्प्रवृत्ति संवर्धन जैसे कितने ही महत्वपूर्ण कार्यों की अतिरिक्त शिक्षा व्यवस्था की गई है। शान्ति-कुँज में इस वर्ष जुलाई, अगस्त, सितम्बर के एक-एक महीने वाले सत्र प्रायः इसी प्रयोजन के लिए चल रहे हैं। आगामी एक अक्टूबर से कार्य क्षेत्र में जाने के लिए जीप गाड़ियाँ और मोटर साइकिलें बड़ी संख्या में जुटाई जा रही हैं। तीन महीने का प्रशिक्षण और नौ महीने का प्रचार प्रवास इस प्रकार इस कार्य के लिए एक वर्ष का समय देने वाले ही निश्चिन्तता की स्थिति में उत्पन्न कर सकेंगे। अन्यथा महीने दो महीने का समय देने वालों से काम बनेगा नहीं। भगदड़ में अनिश्चितता भी रहती है और उनका कौशल भी नहीं निखरता।

चौबीस सौ शक्ति पीठों, प्रज्ञा पीठों में से अधिकाँश की यहाँ माँग आवश्यकता है कि कोई बाहर के अनुभव कुछ समय यहाँ रहें और स्थानीय लोगों को साथ लेकर उत्साहवर्धक वातावरण बनायें तो काम चलेगा। यह एक तथ्य है। इन स्थापनाओं द्वारा रचनात्मक कार्य उस प्रकार उस अनुपात से नहीं हो रहे जैसा कि उनसे अपेक्षा की गई और जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस अवरोध को दूर करने का एक उपाय यह हो सकता है कि प्रशिक्षित प्रचारक उनके पास कुछ समय रहें और स्थानीय लोगों को साथ लेकर नवचेतना का संचार करें। यह कार्य भी ऐसा है जो न्यूनतम एक वर्ष का समय चाहता है। इसके बिना अनुभव भी तो परिपक्व नहीं होता। कौशल भी तो नहीं निखरता। चार-चार महीने एक प्रज्ञापीठ में रहा जाय तो एक वरिष्ठ समयदानी वर्ष में तीन संस्थाओं में तो प्राण ऊर्जा भर सके। इस प्रयोजनों में पत्नी समेत रहने की भी गुंजाइश है।

शान्ति-कुंज में अब कितने पुराने कार्यक्रमों का असाधारण विस्तार हुआ है। कल्प साधना और युग शिल्पी सत्रों में सम्मिलित होने वालों की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है। उस व्यवस्था के कितने ही पक्ष ऐसे है जिसके लिए सुयोग्य व्यक्तियों का सहयोग चाहिए। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की गतिविधियाँ दिन-दिन बढ़ती जा रही हैं उनकी साज सम्भाल में भी नये सहयोगी अपेक्षित हो रहे हैं। साहित्य सृजन में भी अधिकों की आवश्यकता पड़ेगी। शान्ति-कुंज में पधारने वाले जिज्ञासुओं की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है। उनके सत्कार एवं समाधान के लिए पुराने लोग कम पड़ते हैं फलतः उसमें भी नये स्वयं सेवकों का समावेश होना है। ऐसे-ऐसे अनेक काम हैं जिनके लिए अनेक योग्यता वालों की नई भर्ती एक प्रकार से आवश्यक हो गई है। उदाहरण के लिए कार्यक्षेत्र में जाने वाली दर्जनों जीपों के लिए कुशल ड्राइवरों की आवश्यकता पड़ेगी। जिन्हें संगीत का थोड़ा सा अभ्यास है ऐसे लोग तो सैंकड़ों की संख्या में अपेक्षित होंगे। जो मात्र शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं वे भी शान्ति-कुंज के श्रम प्रयोजनों में अपना भाव भरा योगदान दे सकते हैं।

अच्छा होता जिनकी मनःस्थिति और परिस्थिति उतनी जटिल नहीं है वे परिवार व्यवस्था पुराने साधनों से अथवा अन्य समर्थ परिजनों की सहायता से बनालें और पूरा या अधिकाँश समय युग धर्म के निर्वाह में लगालें। शान्ति-कुँज की ओर कदम बढ़ाते। वानप्रस्थ परम्परा पुनर्जीवित होती और परिव्राजकों-सत्याग्रहियों की नई पीढ़ी समय को बदलने के लिए जुट पड़ती। पर लगता है व्यामोह की खुमारी बहुत गहरी है। वह इस संदर्भ में गम्भीरता पूर्वक कुछ सोचती तक नहीं फिर करे कौन? धर्म की दुहाई देने वाले और ईश्वर की रंगीली चर्चा करने वालों को माला के कुछ दाने सटका देने या अगरबत्ती जलाने के अतिरिक्त और कुछ सूझता तक नहीं। बहुत हुआ तो निठल्लों की मण्डली में सम्मिलित होकर भीख माँगने और गाँजा पीने के गर्त में जा गिरे।

उत्कृष्ट आदर्शवादिता के त्याग पराक्रम के इस घोर दुर्भिक्ष को देखते हुए वरिष्ठ प्रज्ञा परिजनों से इन दिनों यह याचना की गई है कि वे एक वर्ष प्रव्रज्या का मध्यवर्ती मार्ग अपनायें। किसी प्रकार ऐसा तालमेल बिठायें की एक वर्ष घर से बाहर रह सकना बन पड़े। फिर राज सिंहासन सम्भालें। विश्वामित्र राम, लक्ष्मण को कुछ समय के लिए अति महत्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए पिता से माँग ले गये थे। इन दिनों भी हर गाँव को-हर परिवार को अपने यहाँ से एक-एक राम लक्ष्मण भेजने चाहिए।

समर्थ गुरु रामदास ने अपने शिष्ट परिवारों में से एक-एक सदस्य शिवजी की सेना में भेजा था। गुरु गोविन्दसिंह को भी उनके शिष्यों ने अपने परिवार का एक सदस्य गुरु को समर्पित किया था। उसी आधार पर सिखों की सिंह सेना का निर्माण हुआ। शेखावाटी राजस्थान में पिछले दिनों तक यह प्रचलन रहा है कि राजपूतों के हर परिवार का एक सदस्य सेना में भर्ती होता था। बुद्धकाल में भी ठीक यही परम्परा सुनियोजित ढंग से चल पड़ी थी। गान्धी की तो आँधी थी वह लम्बे समय नहीं चली फिर भी उनमें से नेहरू, पटेल बजाज जैसे कितने ही परिवार समुदाय ऐसे थे जिनने देश हित में अपनों की भावभरी श्रद्धांजलियां समर्पित की और वे इतिहास की पंक्तियों में अविस्मरणीय हो गये। ब्राह्मण वर्ग तो पुरातन काल से इस परम्परा को अपनाकर ही भूसुर कहलाने का श्रेयाधिकारी बना। साधु वर्ग तो पूरी तरह इसी निमित्त समर्पित रहता रहा है। उस समय सिद्धि, चमत्कार और स्वर्ग मुक्ति के लिए कर्महीन होकर बैठने और चित्र विचित्र कल्पना उड़ानें उड़ने वाले सनकी कदाचित् ही कहीं दृष्टिगोचर होते थे। उन सभी ने आत्म परिवार और लोक मंगल की सम्बन्धी तप साधना को जीवन नीति बनाया और समस्त पराक्रम उसी लक्ष्य पर जुटाया।

आज एक वर्ष की प्रव्रज्या के लिए वरिष्ठ प्रजा परिजनों को कहा जा रहा है। उतना समय वे चाहें तो किसी भी व्यवधान के अड़ जाने पर बर्बाद हुआ भी समझ सकते हैं। युवकों में से कितने ही फेल हो जाते हैं। नौकरी की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। हारी-बीमारी, मुकदमा, झगड़ा-झंझट, आदि में फँस जाने में एक वर्ष ऐसे ही गुजर जाता है। किसी वर्ष वर्षा न होने, व्यापार में उतार-चढ़ाव आ जाने से कमाना दूर गाँव से खाना पड़ता है। चोरी-शराब आदि में पूँजी चुक जाती है। ऐसे-ऐसे अनेक कारण हैं जिनमें प्रतिकूल परिस्थितियाँ आ दबोचती हैं और वर्षों का समय बिना कुछ खाये कमायें ऐसे ही खीज झुँझलाहट में चला जाता है। निषेधात्मक चिन्तन में जिन्हें आदत हो वे मन समझाने के लिए ऐसा भी सोच सकते हैं और एक वर्ष का समय निकाल सकते हैं। उतनी अवधि के लिए संचित साधनों से अथवा अन्य परिजनों पर भार सौंपकर युग पुकार के लिए समय निकालने का तालमेल बिठा सकते हैं। आखिर मनुष्य के चले जाने पर भी तो घर परिवार की व्यवस्था किसी प्रकार बन ही जाती है। यदि अपनी उदारता, साहसिकता और सूझ-बूझ का उपयोग करके वैसा कुछ आदर्शवादी प्रयोजनों के लिए स्वेच्छापूर्वक किया जा सके तो समझना चाहिए सचमुच ही सौभाग्य सूर्य का उदय हो गया।

वस्तुतः इसमें निषेधात्मक चिन्तन के साथ तालमेल बिठाने और आकस्मिक हानि के साथ संगति जोड़ने जैसा कुछ है नहीं। यह एक उच्चस्तरीय कौशल उपार्जित करने का स्वर्ण सुयोग है। डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर कलाकार आदि बनने के लिए कई-कई वर्ष की ट्रेनिंग प्राप्त करनी पड़ती है साथ ही निर्वाह, फीस, पुस्तकें आदि का खर्च भी जेब से देना पड़ता है। योग्यता वृद्धि के लिए किया गया यह त्याग वस्तुतः बीज बोकर सौ गुना काटने के समान है। आरम्भ में घाटा उठाकर भविष्य में समुचित लाभ उठाने वालों में किसान, माली, विद्यार्थी, व्यापारी, शिल्पी, पहलवान, अफसर, आदि उपयोगी पद प्राप्त करने वालों का बहुत बड़ा समुदाय है जो भावी योजनाओं के निमित्त जी खोलकर पूँजी लगाता और अथक परिश्रम करता है। ऐसा ही कुछ वरिष्ठ युग शिल्पी भी सोचने लगें तो उसे दूरदर्शी विवेकशीलता की कहा जायगा।

घर घुसे लोगों की तुलना में उद्देश्यपूर्ण प्रव्रज्या के लिए निकलने वाले असाधारण लाभ पाते देखे गये हैं। गोखले ने गाँधी को देश भ्रमण करने के लिए भेजा था ताकि वे वस्तुस्थिति को समझें और व्यावहारिक योजना बनायें। विवेकानन्द ने भी अपने महत्वपूर्ण कदम उठाने से पूर्व पूरे देश का दौरा किया था। ऋषियों सन्त परिव्राजकों को तो यह निरन्तर कराना पड़ता था। तीर्थयात्रा का वास्तविक स्वरूप और उद्देश्य यही है। भगवान बुद्ध जब मरने लगे तो उन्होंने शिष्यों को बुलाकर अन्तिम उपदेश दिया-‘तुम लोग तीन दिन से अधिक कहीं ठहरना मत। दो से अधिक का जत्था बनाकर चलना मत” इस निर्देशन में उनका उद्देश्य प्रव्रज्या धर्म को अधिकाधिक व्यापक बनाना था। देवर्षि नारद की भक्ति साधना इसीलिए सर्वोच्च मानी गई कि उनने आजीवन धर्म प्रचार की पदयात्रा में ही संलग्न रहने का व्रत लिया और निभाया।

प्रव्रज्या के अनेकानेक व्यक्तिगत लाभ हैं। अस्वस्थता का यह कारगर उपचार है। बुद्धि कौशल और व्यवहारिक अनुभव इस आधार पर निश्चित रूप से निखरता है। स्वभावों और परिस्थितियों को समझने में अधिक यथार्थवादी बनने का अवसर मिलता है। अनेकों से मैत्री बढ़ती है। व्यक्तित्व को निखारने उभारने वाले इतने अधिक लाभों के लिए यदि कुछ समय लगाया जाता है तो उस अवधि को हर दृष्टि से सार्थक ही कहा जायगा। उसमें स्वार्थ और परमार्थ का समान समन्वय है। लोक मंगल में निरत होने का पुण्य परामर्श और प्रतिभा प्रखरता अर्जन का उच्चस्तरीय स्वार्थ मिलकर गंगा यमुना के संगम जैसा सुयोग बनाते हैं।

कुछ समय पूर्व तक बौद्ध देश कम्बोडिया एवं थाईलैंड में यह प्रथा थी कि हर समर्थ व्यक्ति को जीवन में एक वर्ष का संन्यास लेना पड़ता था। उस अवधि में वह बौद्ध विहार में रहकर प्रातःकाल योग साधना करता और दिनभर समाज सेवा के कामों में निरत रहता। फलतः उस देश के सभी सरकारी कर्मचारी इसी वर्ग में अवैतनिक रूप से मिल जाते थे। परिणाम यह रहा कि उस देश की समर्थता, सम्पन्नता और शालीनता संसार भर के लिए आदर्श रही। छोटा देश होने पर भी उसकी विशिष्टता संसार भर में प्रख्यात बनीं स्वर्णकोष आश्चर्यजनक था। अपराधों का-रोगों का नाम नहीं। सभी बलिष्ठ, सभी हँसमुख, सभी प्रगतिशील। इस उस एक वर्षीय संन्यास परम्परा का प्रत्यक्ष प्रतिफल माना जाता था। अपने धर्म-प्राण देश में इन दिनों उस परम्परा को नये रूप में प्रज्ञा प्रव्रज्या बनकर प्रकट होना चाहिए।

जिनकी मनःस्थिति ऐसी है उन्हें परिस्थिति की अनुकूलता के लिए कुछ अधिक न करना पड़ेगा। नया चिन्तन और नया निर्धारण करने की उमँग उठाने भर से काम बन जायगा और उस अवरोध को राई होते हवा में उड़ते देखा जा सकेगा जो कृपणता के कारण पर्वत जैसा भारी और समुद्र जैसा दुस्तर प्रतीत होता है।

जो इस एक वर्ष में प्रव्रज्या में निर्वाह व्यय प्राप्त करने के लिए विवश हों उन्हें भी निराश नहीं होना चाहिए। शान्ति-कुंज ने ऐसी व्यवस्था भी बनाई है कि जहाँ कोई चारा नहीं, वहाँ ब्राह्मणोचित निर्वाह परिव्राजकों को दिया जा सके। इसके लिए पत्र व्यवहार से भी कुछ भी स्पष्टीकरण हो सकता है। पर ठोस आधार तब बनता है जब अगस्त, सितम्बर के किसी एक महीने में कल्प साधना सत्र सम्पन्न करने के लिए अपने खर्च से शान्ति-कुंज आया जाय और विस्तृत विचार विनिमय के आधार पर किसी निश्चय पर पहुँचा जाय।

स्मरण रहे युग सन्धि का यह वर्ष अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें प्रतिभाशाली, भावनाशील प्रज्ञा परिजनों के समयदान की अत्यधिक आवश्यकता पड़ रही है। युग देवता की इस याचना में जो एक वर्ष की समय-श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे वे अगले दिनों उस दूरदर्शिता का अनेक गुना लाभ प्राप्त करेंगे और अपनाये गये साहस का देवी वरदान की तरह स्मरण एवं अनुभव करते रहेंगे।


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