प्रज्ञा पुरुष चक्रवृद्धि गति से वंश वृद्धि करें

August 1983

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आकार में बड़े और वजन में भारी कामों के लिए अपनी क्षमता, योग्यता की कमी भी दर्शाई जा सकती है। बहुत समय देना या धन खर्चना हो तो व्यस्तता दरिद्रता की बात कहकर भी मन समझाया जा सकता है किन्तु क्रिया रूप में नितान्त हल्के-फुलके प्रतिफल की दृष्टि से दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले ऐसे कामों में अरुचि दिखाना उपयुक्त नहीं, जिनसे स्वार्थ और परमार्थ के दोनों ही प्रयोजन समान रूप से सधते हैं।

प्रज्ञा पुरश्चरण एक ऐसी विधा है जिसका प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप नितान्त सरल है इतने कम समय में-अनुबन्धों और विधानों से रहित अध्यात्म उपचार की कोई कल्पना तक नहीं कर सकता। इतने पर भी उसके असाधारण परिणामों की अपेक्षा की गयी है। कारण उसमें विधान का विस्तार नहीं वरन् 20 लाख व्यक्तियों की संयुक्त शक्ति है। सभी जानते हैं बूँद-बूँद से घट भरता है। कन-कन से मन बनता है। तिनके मिलकर हाथी को बाँधने वाले रस्से का रूप बनाते हैं। जड़ पदार्थों का संख्या बल एवं समन्वय जब चमत्कार दिखाता है तो कोई कारण नहीं कि प्राणवान भावनाशीलों की संयुक्त शक्ति का प्रतिफल दिव्य परिणति के रूप में परिलक्षित न होने लगे।

प्रज्ञा पुरश्चरण की विधि व्यवस्था कहने-सुनने में ही नहीं करने में भी नितान्त सरल है “सूर्योदय के समय जो जहाँ, जिस भी स्थिति में है। उसी में मौन मानसिक गायत्री जप करने लगे। सविता के तेजस् प्रकाश पुँज का ध्यान करे। अवधि समाप्त होने पर यह संकल्प करे इस संयुक्त प्रयत्न से उत्पन्न हुयी शक्ति को अदृश्य जगत का परिशोधन करने के लिए सशक्त राकेट की तरह अन्तरिक्ष में उछाला जा रहा है।” बात इतनी भर है। जिसे करने से किसी को भी न तो कठिनाई अनुभव होनी चाहिए और न आना-कानी करनी चाहिए।

निजी प्रयोग में इस विद्या को लाने के उपरान्त प्रत्येक प्रज्ञा चिन्तन को एक प्रयत्न और करना चाहिए कि उसके प्रयत्न से न्यूनतम पाँच अन्य व्यक्ति भी इसे अपनाने लगें। इसके लिए अपने घर परिवार के लोगों से चर्चा की जाय। उसका लाभ और महत्व बताया जाय तो उनमें से कुछ अनगढ़ों को छोड़कर प्रायः सभी विचारशील सहज सहमत होंगे और दस पाँच दिन याद दिलाने-साथ लेने के उपरान्त स्वयं रस लेने लगेंगे। अभ्यास पड़ने पर तो उसे छोड़ने का विचार तक न करेंगे। आलस्य प्रमाद के अतिरिक्त इसमें और कोई बाधा नहीं। अपने पर थोड़ा सा अनुशासन थोपा जा सके तो गाड़ी सहज सरलता के साथ पटरी पर दौड़ने लगेगी।

घर परिवार की तरह ही कुछ मित्र पड़ौसी भी घनिष्ठ होते हैं। उन पर अपने प्रभाव-परामर्श का असर होता है। उन्हें इसे करने के लिए कहा-समझाया और सहमत किया जा सकता है। किन्हीं के घरों पर जाने में संकोच होता है तो अपने पास किसी न किसी निमित्त आते जाते रहने वालों में से जिनमें परमार्थ परायण के बीजांकुर दृष्टिगोचर हों उनसे इसी प्रसंग पर वार्त्तालाप किया जा सकता है। कारण, माहात्म्य एवं परिणाम बताने पर इस छोटे प्रयास से विश्व संकट में महत्वपूर्ण योगदान बन पड़ने की जानकारी मिलने पर कदाचित् ही उपेक्षा दिखाये। इनकार करें।

इस प्रकार प्रजा पुरश्चरणों के साधकों की संख्या का, देखते-देखते विस्तार हो सकता है। अभी प्रज्ञा परिजन 20 लाख हैं। वे स्वयं तो इस युग साधना के भागीदार बनें ही, पर उतने भर से कर्त्तव्य की इतिश्री न समझें। पाँच अन्य सहयोगी बनाने बढ़ाने के प्रयत्न में भी अविलम्ब जुट जायें। यह प्रथम चरण उठते ही 20 लाख से बढ़कर एक करोड़ हो जायेंगे। इतना तो तत्काल एक दो महीने के भीतर ही हो सकता है। पुरश्चरण की शक्ति पाँच गुनी बढ़ जाना बहुत बड़ी बात है। 20 लाख प्रज्ञा परिजन यदि अपने साथी सहयोगियों की संख्या पाँच गुनी बढ़ा लेते हैं तो इसमें न केवल पुरश्चरण की सामर्थ्य, प्रक्रिया एवं परिणति ही पाँच गुनी हो जायेगी वरन् प्रज्ञा अभियान के अन्यान्य रचनात्मक कार्यों में भी इस बढ़ी हुई जनशक्ति के सहारे असाधारण योगदान मिलेगा। शक्ति का-क्षेत्र का पाँच गुना हो जाना कुछ अर्थ रखता है। अकेला व्यक्ति ठूंठ की तरह खड़ा या गोले की तरह लुढ़कता-फिरता है पर जब एक से पाँच का विस्तार होता है तो एक सुव्यवस्थित परिवार बनकर खड़ा हो जाता है और उसकी चहल-पहल देखते ही बनती है।

यह विस्तार क्रम योजनाबद्ध रूप से चल पड़े-विश्वास और उत्साह शिथिल न पड़े प्रक्रिया और परिणति को समझने समझाने के लिए गम्भीर रहा जा सके तो कोई कारण नहीं कि एक से पाँच के रूप में यह आध्यात्मिक वंश वृद्धि का सिलसिला अविच्छिन्न रूप से न चलता रहे। सृष्टि के आरम्भ में मनु शतरूपा-आदम हब्बा दो ही थे। उन्हीं की सन्तति बढ़ते-बढ़ते अब 500 करोड़ मनुष्यों के रूप में सामने है। उसने धरती के चप्पे-चप्पे पर अधिकार जमा लिया है जबकि आरम्भ वाले उत्पादक मात्र दो ही थे और किसी सुनसान में बैठे अनगढ़ वातावरण में जैसे-तैसे दिन गुजारते थे। वैभव तो उनके वंशजों ने पुरुषार्थपूर्वक खड़ा किया है। यह वंश वृद्धि क्रम क्रमशः तीव्र से तीव्रतर गति पकड़ता चला आया है। चक्रवृद्धि की बात सभी जानते हैं। 1 से 5, 5 से 25, 25 से 125, 125 से 625, 625 से 3125, 3125 से 15625, 15625 से 78125, 78128 से 390625, 390625 से 1953125, 1953125 से 9765625, 9765625 से 78828125, 48828125 से 244140625, 244140625 से 1220703125, 1220703125 से 6103515625। दस छलाँगों में एक से प्रायः 24 करोड़ हो जाते हैं। फिर वर्तमान प्रज्ञा परिजनों की 20 लाख संख्या यदि 500 करोड़ मनुष्यों को इस युग साधना में नियोजित करने के लिए प्रयत्नरत हो तो उसे कुछ ही छलाँगे लगानी पड़ेगी। 30 लाख से 1 करोड़। 1 करोड़ से 5 करोड़। 5 से 25। 25 से 125। 125 से 625 करोड़ हो जाते हैं। यह मात्र पाँच छलाँगे हुयी। वंश−वृद्धि चक्रवृद्धि का यह क्रम न तो असम्भव है और न अत्युक्तिपूर्ण। इन दिनों संसार की जनसंख्या लगभग 460 करोड़ है। इसमें से 100 करोड़ अबोध बालक या अपंग असमर्थ गिने जा सकते हैं। शेष 360 करोड़ मनुष्यों को प्रज्ञा साधना में सम्मिलित करने के प्रयास से 20 लाख सदस्यों को-उनके द्वारा जुटाये गये सहयोगियों को मात्र चार छलाँगे लगानी पड़ेंगी। एक छलाँग के लिए एक वर्ष का समय माना जाय तो भी इससे चार पाँच वर्ष से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। कठिनाई मात्र इतनी भर है कि हम जब तथ्य को, प्रयोग को गंभीरतापूर्वक समझें और संपर्क क्षेत्र में उस प्रक्रिया को गले उतारने के लिए विश्वास और उत्साह भरे प्रयत्नों को शिथिल न होने दें।

वर्तमान बीस लाख परिजनों के माध्यम से इन्हीं दिनों न्यूनतम 24 करोड़ जप हो जाने की आशा की गयी है। पाँच मिनट में प्रायः 100 मन्त्रों का जप हो जाता है। इस प्रकार आशा की गयी है कि इन्हीं दिनों हर दिन 24 करोड़ जप होने लगेगा। लक्ष्य है-24 करोड़ साधक और उनके द्वारा 2400 करोड़ जप की साधना हर दिन सम्पन्न होना। इस लक्ष्य की पूर्ति अगले पाँच वर्षों की अवधि में हो सकने की आशा की गयी है। इतने अधिक व्यक्तियों का एक लक्ष्य के निमित्त एक साथ चरण बड़ा सकने की बात प्रस्तुत बिखराव को देखते हुये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य प्रतीत होता है। इतने पर भी भूतकाल की सफलताओं पर मुड़कर दृष्टिपात करने से असमंजस का निराकरण भी सहज ही हो जाता है। मिशन का बीजाँकुर देश को आजादी मिलने के दिन 15 अगस्त सन् 47 को हुआ था। अभी मात्र 36 वर्ष हुये हैं। एक बीज अंकुरित हुआ था। उसकी वंश वृद्धि से 20 लाख चन्दन तरु कल्पवृक्ष विश्व उद्यान की शोभा बढ़ा रहे हैं और अपनी शोभा सुषमा, महक शीतलता से समूचे विश्व वातावरण को प्रभावित अनुप्राणित कर रहे हैं। विगत पर दृष्टि डालने और सफलताओं का आँकलन करने पर यह कठिन नहीं रह जाता कि अगले पाँच वर्षों में प्रज्ञा पुरश्चरण के 24 करोड़ भागीदार बनेंगे और उनके माध्यम से 2400 करोड़ गायत्री जप से समूचा अन्तरिक्ष एक चेतना, प्रेरणा, उमंग से भरेगा और उस आधार पर विश्व-व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप में काया-कल्प जैसा परिवर्तन प्रस्तुत होगा।

इसका अर्थ यह नहीं है कि नव सृजन के सुधार, सुधारात्मक संघर्ष और रचनात्मक पुरुषार्थ की आवश्यकता ही न पड़ेगी। वह प्रत्यक्ष उपचार तो होना ही है-करना ही है। इस संदर्भ में हर स्तर के लोग अपने-अपने ढंग से कुछ न कुछ सोचते और करते ही रहते हैं। इन प्रयत्नों को दिशाबद्ध और संगठित करने से बिखराव एवं खींचतान से नष्ट होने वाली शक्ति बच जायेगी और दिशाबद्ध होकर कार्यरत रहते हुए चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करेगी।

प्रस्तुत समस्यायें बहुमुखी है। इनके दृश्यमान स्वरूप अगणित हैं। उन्हें सम्भालने-सुधारने के लिए प्रत्यक्ष प्रयत्न भी तद्नुरूप करने होंगे। इन प्रयासों की न तो उपेक्षा की जा रही है और न मनाही। इन्हें तो हर हालत में करना ही करना है। सच तो यह है कि इन दिनों नैतिक, क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति की इतनी अधिक आवश्यकता है जितनी कि इससे पूर्व कभी भी नहीं रही। इसी प्रकार व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की नियति से क्रिया-कलाप अपनाये जाने हैं। प्रज्ञा अभियान के माध्यम से इसका योजनाबद्ध शुभारम्भ भी हुआ है और विकास विस्तार भी। किन्तु स्मरण रखने योग्य तथ्य यह भी है कि अदृश्य अन्तरिक्ष में भरी विषाक्तता के रहते तो दो गज जोड़ने और चार गज तोड़ने जैसी स्थिति बनी रहेगी। हमारे प्रयत्न प्रत्यक्ष भी होने चाहिए और परोक्ष भी। क्रिया पक्ष में प्रज्ञा अभियान को रचनात्मक प्रवृत्तियों द्वारा अग्रगामी किया जा रहा है। उसका दूसरा पक्ष अदृश्य वातावरण का-अदृश्य जगत का परिशोधन-परिष्कार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसकी पूर्ति प्रज्ञा पुरश्चरण की साधनात्मक प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न की जा रही है। इस प्रकार की दो पहियों की गाड़ी निर्धारित लक्ष्य की ओर लँगड़ाई हुई न चलेगी वरन् सरपट दौड़ेगी।


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