प्रस्तुत विपत्तियों का उद्भव अदृश्य जगत से

August 1983

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अदृश्य जगत इस दृश्यमान जगत का प्राण है। उसका विस्तार, वैभव एवं सामर्थ्य स्रोत इतना बड़ा है कि प्रत्यक्ष को इसका नगण्य-सा भाग कहा जा सकता है। जल का जितना प्रवाही स्वरूप है, उसकी तुलना में आकाश में भ्रमण करने वाला उसका वाष्प स्वरूप कहीं अधिक है। इसी प्रकार प्रकृति के अन्यान्य पदार्थ जितने पृथ्वी पर ठोस रूप में विद्यमान हैं, उसकी अपेक्षा वायुभूत होकर अनेक गुनी मात्रा में आकाश में उड़ते रहते हैं। अन्तरिक्ष की तुलना में धरातल को रंचमात्र ही समझा जा सकता है। सम्पदा के असीम भाण्डागार आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं। परोक्ष विज्ञान के ज्ञाता उसमें से जिस वस्तु को जब जितनी मात्रा में आवश्यकता होती है, खींचकर हस्तगत कर लेते हैं। सिद्धियाँ इसी को कहते हैं। उनके सहारे दृश्य को अदृश्य और अदृश्य को दृश्य में परिणत किया जा सकता है।

अतीन्द्रिय क्षमताओं के चमत्कारी घटनाक्रम भी इसी आधार पर घटित होते हैं। दिव्य सामर्थ्यों के भण्डार मानवी अन्तराल में बीज रूप से विद्यमान हैं। उन्हें प्रसुप्त से जागृत, अदृश्य से प्रकट करने की विधा को साधना कहते हैं। यह और कुछ नहीं अप्रकट का प्रकटीकरण मात्र है। बीज रूप में अपने इर्द-गिर्द वह समस्त वैभव बिखरा पड़ा है जिसे सृष्टा की अनेकानेक विभूतियों के रूप में समझा-समझाया जाता रहता है।

शरीरधारी प्राणी इस धरातल पर विचरण करते और अपनी हलचलों का परिचय देते देखे जाते हैं। इसकी तुलना में अशरीरी प्राणियों की संख्या असंख्यों गुनी अधिक है जो आकाश में भ्रमणशील रहती है। यहाँ चर्चा जीवाणुओं, विषाणुओं की नहीं हो रही है वरन् उन सूक्ष्म शरीर धारियों की हो रही है, जो इस समय भूत स्थिति में रह रहे हैं। जो कभी मनुष्य की तरह ही दृश्यमान थे, या निकट भविष्य में फिर वैसा ही कलेवर धारण करने जा रहे हैं। प्रेत, पितर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, भूत, पिशाच, देव-दानव ऐसे ही जीवात्मा हैं, जो स्थूल शरीर से रहित होने पर भी सत्ताधारी एवं शक्तिशाली होते हैं। इनके अनुग्रह एवं आक्रोश से पृथ्वी के पदा एवं प्राणियों को उपलब्धियों का लाभ एवं विपत्तियों का त्रास मिलता है। यह समुदाय प्रत्यक्षतः सम्बद्ध तो नहीं दीखता और न उनके साथ अविज्ञात रूप में चलते रहने वाले आदान-प्रदान का आभास मिलता है, तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान अदृश्य जीवधारियों का अस्तित्व इस विशाल अन्तरिक्ष में विद्यमान नहीं है। समय-समय पर उनका अस्तित्व प्रत्यक्ष परिचय में भी आता रहा है। पुराण गाथाओं में तो उन्हीं का कर्तृत्व प्रधान रूप से लिखा गया है।

इन दिनों प्रति विश्वएन्टी युनिवर्स की चर्चा ने वैज्ञानिक क्षेत्र में एक नई हलचल प्रस्तुत की है। अपने इसी विज्ञान जगत के पीछे अविच्छिन्न रूप से गुँथा हुआ एक-दूसरे अदृश्य संसार का अस्तित्व खोज निकाला गया है। वह सामर्थ्य एवं विस्तार की दृष्टि से सूक्ष्म होने के कारण हर दृष्टि से वरिष्ठ पाया गया है। एण्टी मैटर- ऐण्टी एटम आदि के रूप में उसकी सत्ता एवं क्षमता का विस्तृत विवेचन होने लगा है और कहा जाने लगा है कि इन दोनों के बीच का सन्तुलन किसी कारण बिगड़ गया तो फिर महाप्रलय निश्चित है। इस संदर्भ में यह चर्चा भी होती रहती है कि यदि किसी प्रकार प्रत्यक्ष विश्व और परोक्ष विश्व के मध्य अधिक गहरा आदान प्रदान चल पड़े तो अपने इसी धरातल पर स्वर्ग लोक जैसी परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी।

विज्ञान जगत के दृश्य स्वरूप से उसका शक्ति तरंगों वाला अदृश्य क्षेत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। ईथर, लेसर, जैसी अविज्ञात शक्तियाँ उसी क्षेत्र की हैं। अणु शक्ति को भी ऐसी ही सम्पदा समझा जा सकता है। यह जड़ सृष्टि का विवरण है। प्राणियों के शरीर भी इसी में सम्मिलित हैं। विज्ञान का भावी चरण इसी क्षेत्र में पदार्पण करने का है। इसके लिए उसे अनिवार्यतः अध्यात्म का अवलम्बन लेना पड़ेगा। पैरा साइकोलॉजी- मैटाफिजिक्स- एस्ट्रोफिजिक्स, पैराफिजिक्स आदि के सहारे इसका ढाँचा भी खड़ा किया जा रहा है।

अंतर्ग्रही शक्तियों का पृथ्वी के साथ संपर्क एवं आदान-प्रदान का स्वरूप ऐसा आश्चर्यजनक है कि दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। विश्व ब्रह्माण्ड की उपलब्ध जानकारी में पृथ्वी को सबसे अधिक सुन्दर, समुन्नत एवं सुख-सुविधाओं से भरी-पूरी माना जाता है। यह स्थिति पृथ्वी को अपनी विशेषताओं के आधार पर विनिर्मित नहीं हुई हैं, वरन् सौर-मण्डल के ग्रह-उपग्रहों के- ब्रह्माण्ड स्थित अन्यान्य तारकों के सन्तुलित अनुदानों से उसे यह सौभाग्य मिला है। बच्चा अपने बलबूते ही अनेकानेक साधन-सुविधाओं से भरा-पूरा जीवन नहीं जीता। उसे यह स्थिति अभिभावकों, कुटुम्ब, सम्बन्धी, पड़ौसी ही नहीं असंख्य व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सहयोग प्रदान करके उपलब्ध कराते हैं। ठीक इसी प्रकार पृथ्वी को ऐसा अद्भुत सुयोग मिला है कि अनेकानेक यह गोलकों के अनुग्रह ने इसकी स्थिति विलक्षण कलाकृति जैसी बना दी है। उत्तरी ध्रुव उन अन्तर्ग्रही अनुदानों को खींचता है। बचे-खुचे कचरे को दक्षिण ध्रुव मार्ग से अन्तरिक्ष के खड्डे में पटकता रहता है। पृथ्वी को प्राण पोषण सूर्य चन्द्र से नहीं अनेकानेक नक्षत्रों से उपलब्ध होता है। बादल बरसते दीखते हैं, पर लोक-लोकान्तरों से जो बहुमूल्य सम्पदा बरसती है उसे कोई इसलिए जान-समझ नहीं पाता कि वह दृश्य न होकर अदृश्य होती है। परोक्ष होने के कारण तो लोग आत्मा तक को भूल जाते हैं और उसके अस्तित्व तक को नकारने लगते हैं।

चेतना का एक विशाल समुद्र आकाश में उसी प्रकार भरा हुआ है जैसा कि वायुमण्डल। इसी को अदृश्य जगत समझा जाता है। वायुमण्डल के प्राणवान या विषाक्त होने की बात सभी जानते हैं। धुंआ, विकिरण, कोलाहल, धूल, धुन्ध आदि के कारण वायु प्रदूषण बढ़ने और उसके कारण मौसम पर, वनस्पतियाँ पर, प्राणियों पर, पदार्थों पर घातक प्रभाव पड़ने की बात सर्वविदित है। बढ़ते हुए तापमान से ध्रुवीय बर्फ पिघलने से समुद्र के उमड़ पड़ने और हिम प्रलय के आधार पर बनने जैसी आशंकाओं से भरी हुई चेतावनियाँ आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। ठीक इसी प्रकार उपयुक्त वायुमण्डल की संजीवनी का भी ऊहापोह रहता है। लोग उपयुक्त जलवायु वाले स्थानों में रहकर स्वास्थ्य सुधारने का प्रयत्न करते हैं। सेनेटोरियम प्रायः ऐसे ही स्थानों पर बनते हैं। पंजाबियों और बंगालियों के स्वास्थ्य में जो अन्तर पाया जाता है, उसमें भी उन क्षेत्रों की जलवायु को ही प्रधान कारण माना जाता है। सर्दी के दिन स्वास्थ्य सुधरने और गर्मी में बिगड़ने की बात भी वायुमण्डलीय परिवर्तनों पर आधारित है।

अदृश्य के उपरोक्त ऊहापोह में एक कड़ी और जुड़ती है मानवी हलचलों के कारण चेतनात्मक वातावरण के प्रभावित होने की। विचारों को भी अब रेडियो तरंगों के समतुल्य एक सशक्त इकाई के रूप में आँकलन किया जा रहा है। उनके कारण व्यक्ति परस्पर तो प्रभावित होता है। यह सुनिश्चित है। सत्संग कुसंग के भले-बुरे परिणामों में भी विचारशक्ति का प्रभाव क्षमता का निरूपण होता ही है। बात इससे भी एक कदम और आगे की है। चेतनात्मक वातावरण भी उनसे प्रभावित होता है। जन-समुदाय की विचारणा, आकाँक्षा चेष्टा जिस स्तर की होती ही है उसके अनुरूप अदृश्य वातावरण बनता है और भली बुरी परिस्थितियों के रूप में प्रकट होता है। सतयुग और कलियुग की परिस्थितियों में जो अन्दर पाया जाता है, उसका कारण विधाता का मनमर्जी या नियति का निर्धारण नहीं, वरन् मनुष्य के चिन्तन चरित्र से उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया है।

सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि इन दिनों वायुमण्डल में प्रदूषण बढ़ने की तरह ही चेतनात्मक वातावरण के समुद्र में भी भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट चरित्र के कारण विषाक्तता बेतरह बढ़ चली है। समुद्र तल पर तेल बिखर जाने से उन क्षेत्रों के जलचर घुटन से संत्रस्त होकर मरण के मुख में जाते देखे जाते हैं। ठीक इसी प्रकार अदृश्य वातावरण में आसुरी तत्वों की वृद्धि से अनेकानेक संकट एवं विग्रह खड़े होते हैं। न सुलझते हैं। न घटते हैं, न टलते हैं। सामान्य स्तर के समाधान प्रयास प्रायः निरर्थक ही चले जाते हैं। प्रस्तुत परिस्थितियों का विश्लेषण इसी प्रकार किया जाना चाहिए।

अपराधों की उठती लहर इन दिनों कुछ ऐसी चल रही है। जिससे बाल-वृद्ध सभी बेतरह प्रभावित हैं। अच्छे परिवारों में पलने वाले बालक भी छुटपन से अवाँछनीयताएँ अपनाते देखे जाते हैं। अब अभावग्रस्त ही अपराध नहीं करते सुसम्पन्न उनसे इस क्षेत्र में कहीं आगे हैं। सामूहिक बलात्कार, वधू दाह, बाल हत्याओं का जैसा प्रचलन इन दिनों हुआ है उतना इससे पूर्व कभी भी देखा सुना नहीं गया। मित्रघात, विश्वासघात अब एक सामान्य लोक प्रचलन जैसा बनता जा रहा है। आलस्य, प्रमाद, विलास, व्यसन, असंयम अपने समय के सर्वमान्य प्रचलन बन गये हैं। उनकी प्रतिक्रियाएँ समुदाय, समाज को बेतरह तोड़-मरोड़कर रख दे रही है। सरकारी गैर-सरकारी रोकथाम जलते तवे पर छींटे पड़ने की तरह निरर्थक सिद्ध हो रही है।

सबसे बड़ी विपत्ति है दैवी प्रकोप। मनुष्यकृत विपत्तिओं की तुलना में अदृश्य में बरसने वाली विभीषिकाओं का अनुपात और भी अधिक है। उन्हें देखते हुए कई बार तो महाप्रलय निकट होने जैसी आशंका सामने आ खड़ी होती है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाय? क्या भयभीत होकर मरण-पर्व की तैयारी आरम्भ कर दी जाय? जनसाधारण विचार कर सकने में भी स्वयं को असहाय पाता है। ऐसे में संघ शक्ति के सुनियोजन द्वारा अदृश्य के- परोक्ष के परिशोधन की चर्चा मनीषीगण करते आए हैं। ऐसी स्थिति पहले भी जब आयी है, पृथ्वीवासी हाथ मलते हुए चुपचाप बैठे तमाशा नहीं देखते रहे। एक विचारणा के- सतयुगी वातावरण लाने को संकल्पित मुट्ठी भर व्यक्तियों ने वह कार्य कर दिखाया है जो आज भी मार्गदर्शन दे सकने में समर्थ है। अनीति एवं अनाचार, विक्षुब्ध प्रकृति और दैवी प्रकोप स्थायी नहीं अस्थायी प्रतिक्रियाएँ हैं। नीतिमत्ता और आचरण में पवित्रता का समावेश किए बिना इनका निवारण सम्भव नहीं। प्रज्ञा अभियान के रूप में एक संघशक्ति की स्थापना प्राथमिक प्रयास है। सामूहिक धर्मानुष्ठान का आयोजन तथा सत्प्रवृत्ति संवर्धन के विभिन्न कार्यक्रम इसका उत्तरार्ध है। इन्हें इन्हीं दिनों क्रियान्वित किया जाना है। कहना न होगा कि आसन्न विभीषिकाओं का निवारण ऐसे प्रचण्ड पुरुषार्थ के बिना सम्भव नहीं।


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