प्रजा यज्ञ के साथ प्रज्ञा प्रवचन भी

August 1983

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जप और यज्ञ की समन्वित प्रक्रिया को धर्मानुष्ठान कहा गया है। यह साधनात्मक उपचार है। इसमें ज्ञान-यज्ञ का पुट रहना भी आवश्यक है। जहाँ समग्र यज्ञ प्रक्रिया सम्पन्न होती हो वहाँ भी उसके प्रत्यक्ष कृत्य के साथ जुड़ी हुई प्रेरणाओं, भावनाओं को भागीदारों एवं उपस्थित लोगों को समझाया जाना चाहिए। समझाने के संबंध में मौन रहा जाय और मात्र कर्मकाण्ड या मन्त्रोच्चार की प्रक्रिया में ही लगे रहा जाय तो उसे अपूर्ण ही कहा-समझा जायेगा। शास्त्रकारों ने प्रत्येक कर्मकाण्ड की व्याख्या विवेचना करते चलने का निर्देश दिया है, जिससे उसे चिन्ह पूजा भर न माना जाय और लकीर पीटने जैसे अनगढ़ असमंजस कहने-कहाने का किसी को अवसर न मिले।

वस्तुतः समस्त कर्मकाण्ड ने केवल रहस्यमय परोक्ष उपचार हैं वरन् उनमें लोक शिक्षण की वैसी ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया भी सुनियोजित है। हर हालत में उसे समझने और समझाने का अवसर उपस्थित लोगों को मिलना चाहिए, अन्यथा वे उसे कौतुक-कौतूहल की तरह देखते रहेंगे और मनमाने अनुमान लगाते रहेंगे। यही कारण है कि धर्म कृत्यों के साथ व्याख्या-विवेचना करते रहने के लिए उनमें ब्रह्मा प्रवक्ता की नियुक्ति आवश्यक मानी गई है। क्रिया यज्ञ के साथ ज्ञान यज्ञ जुड़ने पर ही समग्रता आती है। नाड़ी का एक पहिया सही गतिशीलता उत्पन्न कर सकने में कहाँ समर्थ होता है।

प्रज्ञा पुरश्चरण में पाँच मिनट का जप-महीने में एक बार का प्रज्ञा यज्ञ-धर्मानुष्ठान का समन्वित निर्धारण है। जो भी जप प्रक्रिया में सहयोगी बने उन्हें यह प्रयत्न भी करना चाहिए कि महीने में एक दिन, डेढ़ घण्टे में सम्पन्न होने वाले इस सामूहिक आयोजन में भी सम्मिलित हों। पन्द्रह मिनट में चौबीस मन्त्रों का उच्चारण। पन्द्रह मिनट का प्रज्ञा संगीत और एक घण्टे का प्रज्ञा प्रवचन इस अवसर पर सम्पन्न किया जाय। समय का जब हर प्रयोजन के लिए निर्धारण और अनुशासन है तो उस व्यवस्था को इस मासिक आयोजन में भी सतर्कतापूर्वक पालन किया जाय। समय पर आरम्भ करने और समय पर समाप्त करने का अनुशासन इस प्रसंग में भी उसी प्रकार पालन किया जाय जिस प्रकार कि निर्धारित जप कृत्य पूरा करने में किया जाता है। प्रज्ञा परिजनों को नवयुग का एक महान प्रचलन समय के परिपालन का इस आधार पर भी अभ्यास करना चाहिए।

एक घण्टे का प्रवचन क्या हो? इस संदर्भ में ‘प्रज्ञा अभियान’ में प्रकाशित लेखों को पढ़कर सुनाया जाना उनकी व्याख्या किया जाना ही पर्याप्त है। वक्तागण अपनी चतुरता न बघारे। अपने निजी विचारों को प्रज्ञा परिजनों पर न लादें। लोक शिक्षण का भी एक अनुशासन प्रवाह-एक निर्धारण है। उसमें हर अधिकारी अनधिकारी को अपनी टाँग नहीं अड़ानी चाहिए वरन् शास्त्र श्रवण की वर्ण परम्परा का निर्वाह करना चाहिए।

रामायण, भागवत, सत्यनारायण आदि की कथाओं का वाचन, पठन, श्रवण, प्रवचन, विवेचन इसलिए होता है कि उन धर्मग्रन्थों को शास्त्र कहा और दैवी सम्मान प्रदान किया गया है। आप्त जनों के प्रतिपादनों को बार-बार श्रवण करना अधिक प्रभावी प्रेरणाप्रद सिद्ध होता है, जबकि बातूनी लोगों की अपनी निजी अक्लमन्दी कला प्रदर्शन की तरह उथली बचकानी बनकर रह जाती है। उसमें वक्ता का आत्म प्रदर्शन अधिक उछलता है और तथ्य कम होता है। इन दिनों विभिन्न मंचों से वकृत्व के नाम पर आत्मश्लाघा की धूम रहती है। यह भुला दिया जाता है कि हर प्रेरणास्पद प्रवचन के पीछे वक्ता का व्यक्तित्व और प्रतिपादन का आधार स्तर ही श्रवणकर्ताओं के अन्तराल तक पहुँचता है।

इन आधारों से रहित होने पर वक्तृत्व मात्र कौतुक कौतूहल बनकर रह जाती है। उससे कठपुतली के तमाशे में ग्रामोफोन के शब्द श्रवण जैसा मनोरंजन भर होता है। इस विनोद कौतुक की, युग परिवर्तन जैसे उच्चस्तरीय निर्धारण की पूर्ति में तनिक भी आवश्यकता नहीं है। प्रज्ञा आयोजनों में फुदकने-फुदकने वाले वक्ताओं की आत्म प्रदर्शन की आत्महत्या पर अंकुश लगाने के लिए कहा गया है और सुझाया गया है कि वे अपनी वाचालता का प्रदर्शन अन्य कहीं भले ही करते हों पर प्रज्ञा मंच में उसकी गरिमा के अनुसार ही बना रहने दें।

सूत शौनिक संवाद की तरह हमें धर्मशास्त्रों की चर्चा विवेचना ही करना चाहिए। सामान्य लोक शिक्षण के लिए प्रज्ञा पुराण के कथन पुराण के कथन पक्ष की मर्यादा बना दी गई है। अपने युग का यह उपर्युक्त धर्मशास्त्र एवं कथा पुराण है। उसे आधार मानकर अपनी ओर से थोड़ी-सी व्याख्या विवेचना भर जोड़ी जा सकती है। ऐसा करने से उच्चस्तरीय उद्गम केन्द्र गोमुख गंगाजल सभी प्रज्ञा परिजनों तक बिना मध्यवर्ती विकृतियों की भरमार हुए सही एवं शुद्ध रूप में पहुँचता रहेगा।

सर्वसाधारण के लिए जहाँ कथा परक सरलता लानी हो वहाँ प्रज्ञा पुराण का उपयोग करना चाहिए। बाल, वृद्ध, शिक्षित सभी उसे रुचिपूर्वक सुनते समझते हैं। युग समस्याओं के सभी समाधान उनमें विद्यमान हैं जिन्हें यथा अवसर थोड़ी टिप्पणियों के साथ, सामयिक सन्दर्भों के साथ कहा जा सकता है। प्रज्ञा पुराण का एक खण्ड गत वर्ष छपा था। दूसरा यह पंक्तियाँ पढ़ने के एक दो मास के बाद ही छप जायेगा। हर वर्ष एक नया खण्ड प्रकाशित होता रहे ऐसी योजना युग सन्धि इन बीस वर्षों के लिए बनी है। यह सर्वजनीन लोक शिक्षण की बात हुई।

प्रज्ञा पुरश्चरण के संबंध में अतिरिक्त निर्धारण है। उसके भागीदारों को प्रज्ञा परिजन माना गया है। उनके कन्धों पर नव सृजन की अग्रगामी भूमिका निभाने का उत्तरदायित्व है। इसलिए उन्हें वह सीखना चाहिए जो युद्ध मोर्चा सम्भालने वाले सैनिकों को विशेष रूप से सिखाया जाता है।

यों देश भक्ति, शौर्य, साहस जैसे गुणों के आधार पर ही कोई सच्चा सैनिक बनता है, वस्तु इन विशेषताओं का उत्तेजन व्यापक रूप से होना चाहिए। किन्तु सेना में भर्ती हुए लोगों का काम उतने सामाजिक या दार्शनिक प्रतिपादन से नहीं चल सकता जो सर्वसाधारण को समय-समय पर बार-बार अनेक उदाहरणों समेत दिया जाता है। सैनिकों को युद्ध कौशल से संबंधित अभ्यास एवं कौशल ही गले उतारने का प्रयत्न चलना चाहिए। उनकी शिक्षा उसी स्तर की होनी चाहिए।

“प्रज्ञा अभियान” पत्रिका मात्र एक ही प्रयोजन के लिए प्रकाशित होती है कि प्रज्ञा परिजनों का युग धर्म के निर्वाह का व्यवहार एवं कौशल सिखाया जाय। ऐसा शिक्षण सामान्य जन नहीं दे सकते। यह ऋषिमेधा का उत्तरदायित्व है कि वह दिव्य चेतना से संबंध साधे और नियन्ता की इच्छा, योजना तथा निर्धारण के साथ तालमेल बिठाकर ऐसा कुछ कहे जो रोग के उपचार में संजीवनी बूटी का काम दे सके। यह कार्य सामान्य जन अपनी लोक बुद्धि के सहारे करेंगे तो वे भ्रान्तियाँ उत्पन्न करेंगे और लोगों को भटकाव के जंजाल में धकेलेंगे। वक्ताओं को कौशल दिखाने के लिए अनेक मंच मौजूद है। नेताओं-अभिनेताओं के अभिनय प्रवचन देखने-सुनने के लिए कहीं कोई स्थान न हो ऐसी बात नहीं है। किन्तु उन्हें कृपापूर्वक ऐसे प्रसंगों से अपने को दूर रखना चाहिए जो उनकी पहुँच से बाहर है। युग सृजन ऐसा विषय है जिसमें तर्क बुद्धि और बहक सनक के लिए गुंजाइश है नहीं। अनाधिकार भरे हस्तक्षेप सदा दुःखदायी परिणाम उत्पन्न करते हैं।

युद्ध कौशल पर योद्धाओं का व्यावहारिक प्रशिक्षण देने के लिए उस विधा का अनुभव अभ्यास और तद्नुरूप सूझ-बूझ का गहन गम्भीर विकास होना चाहिए। यह न तो अन्ताक्षरी सम्मेलन है और न वाद विवाद प्रतियोगिता न कवि सम्मेलन। इस मंच के रंग बिरंगे फूलों वाले गुलदस्ते अथवा चित्र विचित्र आकृति प्रकृति वाले प्राणियों का चिड़िया घर नहीं बनाना चाहिए। प्रज्ञा मंच की गरिमा व्यास पीठ जैसी है जिस पर शास्त्र वचन होने से ही शोभा है। उसका प्रतिपादन ऐसा होना

चाहिए जैसा कि आप्त जन ही कर सकते हैं। प्रहसन, अभिनय, रंगमंच और प्रज्ञा प्रवचन सब एक ही स्तर के लोगों द्वारा किये जाने लगे तो कौतुक कौतूहल मात्र रह जायेगा वह उद्देश्य सधेगा नहीं जिसकी पूर्ति के लिए प्रज्ञा पुरश्चरण के रूप में अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का नियोजन किया गया है।

कहा जा चुका है कि प्रज्ञा यज्ञ के अवसर पर होने वाले एक घण्टे के प्रवचन का एकमात्र उद्देश्य प्रज्ञा परिजनों को प्रज्ञा अभियान की प्रस्तुत निर्धारणाओं का तत्वदर्शन एवं क्रिया विधान का व्यावहारिक मार्गदर्शन होना चाहिए। इसके लिए प्रज्ञा अभियान पत्रिका के लेखों में से उपस्थिति एवं परिस्थिति के साथ संगति बिठाने वाले लेखों को पढ़कर सुना देने के काम चल जायेगा। उन लेखों को सधी वाणी में तद्नुरूप अभिव्यक्तियों सहित सुनाने में भी कौशल की आवश्यकता है। भावनाओं का सही रूप में प्रस्तुत कर सकना भी कम महत्व की बात नहीं है। जो इसे ठीक प्रकार अभिव्यक्ति की क्षमता रखते हों उन्हें यह काम ‘खुशी-खुशी सौंपा जा सकता है कि वे हर महीने के लिए पिछले या अब के ‘प्रज्ञा अभियान’ में से कुछ लेख चुन लें और उन्हें अभिव्यक्ति के साथ पढ़कर सुना दें। एक घण्टे में प्रायः 13 से 16 पृष्ठों तक की सामग्री पढ़कर सुनाई जा सकती है। क्रमबद्ध प्रशिक्षण के लिए पिछले प्रसंगों के आगे की बात कहने का सिलसिला चलना चाहिए।

प्रज्ञा यज्ञ और प्रज्ञा प्रवचन के बीच पन्द्रह मिनट के मध्यकाल में प्रज्ञा संगीत होना चाहिए। गायन के साथ वादन का प्रबन्ध हो सके तो भाव तरंगों को उमंगाने में दूनी सहायता मिलती है। यदि वैसा प्रबन्ध न हो सके तो कवि सम्मेलनों की तरह प्राणवान कविताएँ मधुर स्वर एवं तद्नुरूप भावाभिव्यक्ति के साथ गाई सुनाई जा सकती है। स्तर हर हालत में मधुर एवं भावनायुक्त होना चाहिए।

मासिक प्रज्ञा यज्ञ तो एक धर्मकृत्य है जो पुरश्चरण प्रक्रिया के साथ जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त प्रज्ञा अभियान की लोक-मानस परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन प्रक्रिया के अंतर्गत प्रवाह के अनुपम संगीत एवं प्रवचनों की आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए मंच सम्भालने वाले उपयुक्त व्यक्ति बड़ी संख्या में प्रशिक्षित किये जाने चाहिए। शान्ति-कुँज हरिद्वार में चलने वाले एक-एक महीने वाले कल्प-सत्रों में यह व्यवस्था की गई है और सत्र साधकों में से हर किसी को यह योग्यता उपलब्ध करके लौटने के लिए उपयुक्त पाठ्य विधि बनाई गई है जिन्हें सुविधा हो वे संगीत एवं प्रवचन का कौशल सीखकर अगले दिनों तूफानी गति से नियोजित होने वाले प्रज्ञा आयोजनों का मंच सम्भाल सकने की क्षमता अर्जित कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त हर प्रज्ञा केन्द्र में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें गायन, वादन, एक्शन साँग तथा प्रवचन का अभ्यास करके विचार क्रान्ति अभियान को अग्रगामी बना सकने में समर्थ प्रज्ञा-पुत्रों को बड़ी संख्या में प्रशिक्षित किया जा सके।


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