संक्रान्ति काल एवं मूर्धन्य मनीषियों का अभिमत

August 1983

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“मुझे स्पष्ट आभास हो रहा है कि वर्तमान भोगवादी सभ्यता अपने ही दुष्कृत्यों से अपनी मौत मरेगी। इसके उपरान्त ही एक नयी सभ्यता जन्म लेगी।” ये शब्द हैं 19 वीं सदी के महान दार्शनिक रोमाँ रोलाँ के। इनका नाम उसी लम्बी शृंखला में आता है, जिसमें संसार भर के वैज्ञानिकों, मूर्धन्य दिव्य दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर भविष्य संबंधी अपने विचार व्यक्त किये हैं। विशिष्ट बात यह है कि लगभग सभी इस तथ्य पर एकमत हैं कि 1980 से लेकर 2000 तक का समय भयावह विभीषिकाओं का समय है। विनाशकारी कारण इन दिनों बढ़ते चले जायेंगे। फलतः विश्व संकट के बादल भी घने होते जायेंगे। महाप्रलय न भी हुई तो भी ऐसी विपन्नताजन्य विषम परिस्थितियाँ जन्म लेंगी, जिन्हें निरस्त करने के लिये महाकाल को काफी कुछ उलट-फेर, भयानक तोड़-फोड़ करनी पड़ेगी ताकि असुरता घटे व देवत्व पनपे।

ऐसे कथन, जिन्हें पूर्वाभास एवं भविष्य दर्शन की विधा द्वारा अथवा साँख्यिकी कम्प्यूटर साइन्स के माध्यम से समय-समय पर व्यक्त किया जाता रहा है, चार भागों में बाँटे जा सकते हैं। ये हैं-

(1) मूर्धन्य अदृश्य दर्शियों के भविष्य कथन (2) ज्योतिर्विज्ञान के मनीषी (3) भविष्य विज्ञान नामक विधा के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से अपने कथनों को पुष्ट करने वाले विद्वत्जन (4) विभिन्न धर्मग्रन्थों के भविष्य संबंधी महत्वपूर्ण उद्धरण।

अभी तक इन चारों ही वर्गों द्वारा की गयी समस्त भविष्यवाणियाँ समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। अतः इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि यह एक विशिष्ट समय है, संक्रान्ति काल है, जब मानवता पुराना चोला उतार कर नवीन स्वरूप में जन्मने वाली है। युग सन्धि की इस उथल-पुथल को समष्टिगत कारणों के परिप्रेक्ष्य में समझना इसलिए भी जरूरी है कि समय रहते वे उपाय-उपचार अपनाए जाएँ ताकि विक्षुब्ध अदृश्य जगत को शान्त किया जा सके, परिस्थितियों को बदलने का लंका दहन व रामराज्य स्थापना जैसा युगीन पराक्रम पुरुषार्थ सम्पन्न किया जा सके।

मूर्धन्य दिव्य दृष्टि सम्पन्न महा-मनीषियों में जो प्रख्यात हैं, उनमें जूल बर्न, जीन डीक्सन, जॉन सैवेज, प्रोफेसर हरार, एण्डरसन, कीरो, नोस्ट्राडेमस, डोरोथी एलिसन, आयरीन ह्यूजेज, रेने ड्यूमा, बर्नार्ड रोजियर, एफ.सी. हैपोल्ड, मदर श्रिफ्टन एवं योगीराज अरविन्द आदि का नाम लिया जाता रहा है। ये सभी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के अदृश्य शक्ति सम्पन्न साधक रहे हैं। अन्तरिक्ष के गर्भ में पक रही हलचलों को इन्होंने समय-समय पर व्यक्त कर विश्व मानस को चेताया है। अपनी स्वयं की योग साधना से अथवा पूर्व संचित संस्कारों के कारण, दिव्य क्षमताओं के धनी इन सभी मनीषियों के कथन का सार इसी रूप में समझा जा सकता है।

“सारे विश्व में 1979-80 के बाद व्यापक उथल-पुथल होगी। अनेकों राष्ट्र प्रमुखों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। 1984-85 का समय विश्वव्यापी तनाव एवं शीतयुद्ध की स्थिति का है। आयुध शक्ति से परिपूर्ण सभी राष्ट्र आगामी विश्व युद्ध में भाग ले सकते हैं, जो अणु-शक्ति से नहीं, विषाणुओं से लड़ा जायगा। फलतः भारी संख्या में व्यक्ति मारे जायेंगे, महामारियाँ फैलेगी, करोड़ों अपंग हो जायेंगे। इतना ही नहीं, मानवी कृत्यों से क्षुब्ध प्रकृति अपनी ध्वंसलीला विप्लव, अतिवृष्टि, कहीं भयंकर गर्मी- कहीं हिमपात, समुद्री तूफान एवं बवण्डर भूकम्प तथा भूस्खलन के रूप में रचेगी। ऐसी नयी-नयी व्याधियाँ फैलेंगी जिन्हें सारी सुविधा- ज्ञान सम्पदा के बावजूद चिकित्सक नियन्त्रित नहीं कर पायेंगे। याँत्रिक सभ्यता एवं भोगवादी जीवनयापन पद्धति से विरत होकर सारा विश्व 1990 व 1999 के मध्य एक संघ के रूप में विकसित होगा। इसके लिये साँस्कृतिक गरिमा के लिए प्रसिद्ध पूर्वी एशिया के राष्ट्र बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। एक राष्ट्र, एक भाषा, एक आचार संहिता तथा एक विश्व व्यवस्था के रूप में एक नयी सभ्यता जन्म लेगी जिसमें सुख-सुविधा के साधन तो होंगे परन्तु जीवन-मूल्यों को, आस्था को, धर्म-धारणा को प्रमुखता मिलेगी।”

ऊपर जिन पन्द्रह मनीषियों के कथनों का उद्धरण दिया गया है, उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। इन सभी ने नवयुग के अरुणोदय की कल्पना की है परन्तु उसके पूर्व सम्भावित ध्वंस-लीला को भी नकारा नहीं है। इतना तो इन सभी ने समय-समय पर कहा है कि कोई अनिवार्य नहीं कि ये घटनाक्रम घटें ही। यदि संघबद्ध प्रयास पहले से चल पड़ें तो विश्वयुद्ध टाला भी जा सकता है, प्रकृति के अनुशासित चक्र को फिर व्यवस्थित बनाया जा सकता है।

“रिलीजीयस फेथ ट्वेण्टीएथ सेंचुरी” पुस्तक के लेखक भविष्य दृष्टा श्री एफ. सी. हैपोल्ड ने स्पष्ट लिखा है कि 1980 से 1988 का समय भुखमरी, प्रकृति-प्रकोप, बाढ़-भूकम्प एवं अन्तर्विग्रहों से भरा होगा, जिसकी चपेट में आज का समृद्ध कहा जाने वाला पश्चिम जगत भी अनिवार्यतः आ जायेगा। वे कहते हैं कि 1985 से 1988 के मध्य होने वाले विश्व-युद्ध को कोई महाशक्ति ही टाल सकती है। यदि यह हुआ तो मात्र 30 प्रतिशत व्यक्ति इस धरती पर बचेंगे एवं वे ही नयी संस्कृति के संस्थापक होंगे।

एडिक मेयल नामक एक ब्रिटिश लेखक ने गत दिनों मदन श्रिफ्टन की भविष्यवाणियों को प्रकाशित किया है। सोलहवीं सदी में जन्मी इस महिला के इंग्लैण्ड की भयंकर बाढ़, फ्रांस की क्रान्ति, दो विश्वयुद्धों तथा नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों सम्बन्धी सभी कथन यथार्थता की कसौटी पर सही उतरे हैं। उन्होंने आज से 330 वर्ष पूर्व लिखकर रख दिया था कि तीसरा विश्वयुद्ध परमाणु-शक्ति के विकास के कारण अत्यन्त व्यापक रूप में अन्तरिक्ष में लड़ा जाएगा। क्रुद्ध मदमत्त प्रकृति युद्ध में लिप्त मानव जाति पर और भी भयंकर प्रहार करेगी। वातावरण में सतत् घुलता विष अन्ततः मानवता पर ही बरसेगा। सद्बुद्धि की प्रेरणा इस दुर्गतिजन्य महाविनाश रूपी दुर्गति से मनुष्य समुदाय को बचा सकेगी।

“गोल्डन पाथ” नामक अन्तर्राष्ट्रीय शाँति संस्थान की संस्थापिका श्रीमती आयरीन ह्यूजेज को एक प्रामाणिक भविष्यवक्ता के रूप में ख्याति प्राप्त है। उनका कथन है कि ध्यान की गहराइयों में उन्हें भविष्य में सम्भावित घटनाओं की झाँकी चलचित्र की भाँति दिखाई देती है। उनकी भयावहता से वे रोमाँचित हो उठता है। 1985 व 1991 के मध्य तृतीय विश्वयुद्ध की सुनिश्चित सम्भावना प्रकट करते हुए वे कहती हैं कि “विनाश की तैयारी होते हुए भी महासत्ता विश्व मानवता को बचा लेगी। इसके लिये समष्टिगत प्रयास भारत से आरम्भ होंगे।”

दूसरा समूह ज्योतिर्विज्ञान के मनीषियों का है जो विशुद्धतः विज्ञान सम्मत पद्धति से काल गणना करके अंतर्ग्रही ही परिस्थितियों की एक रूपरेखा बनाते हुए लगभग एक जैसी सम्भावनाएँ ही व्यक्त करते हैं।

गर्ग, पाराशर, देवल, कश्यप जैसे ऋषियों की गिनती भारत के पुरातन ज्योतिर्विदों में की जाती है। उन्होंने आज के समय की परिस्थितियों की समीक्षा काल गणना के आधार पर काफी पूर्व कर दी थी। सौर कलंकों की संख्या में वृद्धि, बृहस्पति प्रभाव से पर्यावरण असन्तुलन, सूर्य व चन्द्र ग्रहणों का बड़ी जल्दी-जल्दी आना तथा पुच्छल तारे के रूप में विश्वव्यापी संकटों की भवितव्यता की चर्चा उनके ग्रन्थों में इसी समय विशेष के लिये की गयी है। इन पुरातन मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में आज के खगोल विज्ञानियों-रसेल कारमन तथा कार्ल साँगा, बी.बी. रमन तथा नोबेल लाँरिएट फ्रिटजाँफ काप्रा ने भी प्रस्तुत सन्धि बेला के संबंध में ऐसे ही विचार व्यक्त किए हैं। फिजिसिस्ट श्री काप्रा ने “द टर्निंग पाँइन्ट” नामक पुस्तक में पूर्वी सभ्यता के उभर कर आने एवं भोगवादी समाज के मिटने की चर्चा करते हुए लिखा है कि यह सब बदलती अंतर्ग्रही परिस्थितियों की प्रतिक्रिया के रूप में घटित होगा।

कीरिया के विश्व प्रसिद्ध ज्योतिर्विज्ञान सम्मेलन (सितम्बर 1972) तथा दिल्ली के ज्योतिर्विद् समागम (1982) में भी विभीषिकाओं के साथ-साथ विश्वव्यापी परिवर्तनों का संकेत किया गया था। सियोल में सम्पन्न उस सम्मेलन में विभिन्न देशों में आए ज्योतिर्विज्ञानियों ने दो महाशक्तियों के बीच 1980-84 के बीच बढ़ते तनाव तथा फिर अणु युद्ध की सम्भावना व्यक्त की। उन्होंने यह भी सुनिश्चित बताया कि “नव सृजन की शक्तियों का साथ देने के हटने वाले राज प्रमुखों की मृत्यु का 1985 से 1990 के बीच ऐसा योग है, जिसे टाला नहीं जा सकता। मानवी चिन्तन की विकृति एवं भ्रष्ट आचरण अगले दिनों चरम सीमा पर होगा, लेकिन महाकाल का चाबुक अपनी कड़ी दण्ड व्यवस्था द्वारा उन्हें सुधार कर ही रहेगा।” इन ज्योतिर्विज्ञानियों ने राष्ट्रों की कुण्डलियाँ बनाते हुए ग्रहों के दुष्प्रभावों को इनसे जोड़ा है व यह कहा है कि “पूर्वी एशिया से उदित एक महाशक्ति संघबद्ध प्रयास कर नूतन सृष्टि को जन्म देगी। सारे मत-मतान्तर मिट जायेंगे, वर्ण सम्प्रदाय-भाषावाद-प्राँतीयवाद -नस्लवाद जैसी दुष्प्रवृत्तियों का नामोनिशान ही मिट जायगा। इतना अवश्य है कि इस सब नव निर्माण की प्रक्रिया के पूर्व प्राकृतिक विक्षोभ चरम सीमा पर होंगे एवं अन्तर्ग्रही परिस्थितियाँ विषम बनी रहेंगी। भूकम्प विश्व के किसी न किसी कोने में बराबर आयेंगे। कहीं अकाल होगा तो कहीं अतिवृष्टि। कलह-अनाचार-विद्वेष बढ़ेगा तथा असाध्य रोगों की बाढ़ आएगी।”

तीसरा समूह है भविष्य विज्ञानियों का। ये अपने को ‘फ्यूचराण्टॉजिस्ट’ कहते हैं एवं वर्तमान के तथ्य व आँकड़ों के आधार पर भविष्य की रूपरेखा बनाते हैं। प्रसिद्ध चिन्तकों-वैज्ञानिकों को भी इसी श्रेणी में लिया जा सकता है जिन्होंने विज्ञान के उद्भव के साथ-साथ जुड़े अभिशापों से जन-मानस को सतत् चेताया है।

जुलाई 1980 में संसार भर के 50 प्रमुख राष्ट्रों के लगभग 6000 व्यक्ति टोरोण्टो (कनाडा) में एकत्र हुए। विभिन्न शाखाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले इन सभी मनीषियों का लक्ष्य था-प्रस्तुत विभीषिकाओं एवं भावी सम्भावनाओं पर गहन विचार मन्थन करके मानव जाति के भविष्य का निर्धारण करना, ताकि आगत को टाला जा सके एवं नंगे विश्व की कल्पना को मूर्त रूप दिया जाय। अगले वर्ष यह सम्मेलन बम्बई में होने जा रहा है। इसमें प्रमुखों तथा महत्वपूर्ण भविष्य विज्ञानी-मनीषी प्रवर श्री हरमन कॉन, मार्गरेट मीड, विलियम, थॉमसन, एल्विन टॉफलर आदि ने भी भाग लिया एवं अपने शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किए।

इन नेतृत्व विज्ञानियों का कथन है कि ‘मानवी चिन्तन जिस प्रकार भ्रष्ट होता जा रहा है, उससे प्रतीत होता है, ध्वंस सुनिश्चित है। प्राकृतिक विक्षोभ और कुछ नहीं, मानव के कृत्यों की ही परिणतियाँ हैं। आने वाले दिनों में सारा विश्व इनका बाहुल्य देखेगा। पारस्परिक व्यवहार में विद्वेष एवं अलगाव तथा सामूहिक व्यवहार में युद्धोन्माद जैसी स्थिति 1991 तक बनी रहेगी। तत्पश्चात् ही सृजन में विश्वास रखने वाली शक्तियाँ उभर कर आएँगी। बढ़ती जनसंख्या से नहीं चेती मानव-जाति को महामारी-बाढ़-अंतर्ग्रही दुर्घटनाएँ-बढ़ते अपराध जैसे प्रसंग ही सच्चा सबक सिखाएंगे। सन् 2000 में जनसंख्या 6 अरब नहीं होगी, जैसाकि कहा जा रहा है। व्यापक संहार, चाहे वह युद्ध के कारण हो अथवा संसाधनों की कमी के कारण, बड़ी संख्या में जनसंख्या को लुप्त कर देगा। यह घटकर चार अरब से भी कम रह जाएगी।”

इस सम्मेलन ने “उत्तरार्द्ध चिन्तन-आदर्श आचरण” का नारा दिया ताकि भवितव्यता को टाला जा सके। इस आधार पर ही वे नवीन सुसंस्कृत विश्व की कल्पना करते हैं। उन्होंने आशा व्यक्त की है कि संघबद्ध प्रतिभावान उदारचेता ही नव सृजन में प्रमुख भूमिका निभाएँगे।”

अमेरिकी वैज्ञानिक एण्ड्रयू डगलस कम्प्यूटर से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर परिस्थितियों का मूल्याँकन करते हुए कहा है कि आने वाले दिनों में सौर कलंकों की संख्या व प्रकट होने की दर और बढ़ेगी। पहले वे प्रति 11 वर्ष 3 माह के अन्तर से आते थे। अब 1990 तक उनके निरन्तर उभरते रहने, और ज्वालाओं से अन्तरिक्षीय तापमान के बढ़ते रहने की पूरी सम्भावना है। उल्कापात, कई स्थानों पर एक साथ भूकम्पों के झटके आना, समुद्री तूफान तथा अगणित टारनेडो (बवण्डर) से परिमित जन-धन की हानि होने की सम्भावना को भी नकारा नहीं जा सकता। असाध्य महामारियाँ इतनी तेजी से फैलेंगी कि उनका उपचार ढूँढ़ने से पूर्व ही नयी जन्म ले लेंगी। इससे जो संहार होगा, उसकी तुलना में विश्वयुद्ध कहीं भी नहीं ठहरता।

एक अर्थशास्त्री-नेतृत्व विज्ञान “नौरमन मेयर” ने यह निष्कर्ष निकाला है कि वातावरण की विषाक्तता इतनी बढ़ गयी है कि मानव समुदाय की जातियाँ निरन्तर नष्ट होती जा रही है। सारे विश्व में लगभग 50 लाख प्रकार की जातियाँ मानव एवं प्राणी जगत की हैं। कारण बताते हुए वे कहते हैं कि यह सृष्टि का अनुशासित गति चक्र है जिसमें अनावश्यक वृद्धि एवं प्रदूषण को जन्म देने वाले औद्योगिक विकास की प्रतिक्रिया ही दृष्टिगोचर हो रही है।

एक रोचक भविष्यवाणी वैज्ञानिक श्री फ्रैंक वार्नेशी ने की है जो स्टाक होम के इंटरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक हैं। उनका कथन है कि “तीसरा विश्वयुद्ध 15 जून 1985 का आरम्भ होगा तथा इसे समाप्त होने से मात्र 24 घण्टे लगेंगे। इस सीमित अवधि में 14 हजार सात सौ पचास अणु प्रक्षेपास्त्र व अगणित लेसर-नापाम बम प्रयुक्त होंगे। इससे 75 करोड़ व्यक्ति तो तुरन्त मर जायेंगे, लगभग एक अरब व्यक्ति अर्धमृत हो भारभूत जीवन काटेंगे। मुख्यतः उत्तरी गोलार्द्ध में होने वाले इस युद्ध में 4140 मेगाटन अग्नि ऊष्मा प्रयुक्त होगी। इससे जो विकिरण फैलेगा-उससे आने वाले दस वर्षों में मात्र केन्सर से ही मौतें होगी। दफनाने को कहीं जगह नहीं होगी। जलाने का ईंधन न होगा। लाखों को बहा देने पर सारा वातावरण विषाक्त हो जायगा।”

आयुध विज्ञान पर आधारित यह भविष्यवाणी संभव होती भी है कि नहीं, अणु अस्त्रों की दौड़ तो उसी दिशा में चल रही है। एक और बात वे कहते हैं कि प्रति वर्ष सारे विश्व में छह से दस लाख घन फुट “आणविक कचरा” एकत्र हो रहा है। समुद्र में टोह लेने के बाद अब इन विकसित राष्ट्रों को एकमात्र विकल्प सुदूर निहारिका के रूप में ही नजर आ रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे जो विकिरण युक्त वर्षा होगी, वह सौ मेगाटन के अणुबमों से भी अधिक घातक होगी।

वैज्ञानिकों के इस तीसरे समूह के बाद एक और महत्वपूर्ण पक्ष भविष्य कथनों का रह जाता है। वह है-विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में वर्णित बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का प्रसंग। बाइबल की भविष्य वाणियाँ “सेवन टाइम्स” के नाम से जानी जाती है। रूपक शैली में वर्णित इन भविष्य वाणियों में कहा गया है कि जब यह समय आएगा, सारी दुनिया परस्पर लड़ रही होगी। अकाल पड़ेंगे, महामारी फैलेगी। प्रसिद्ध एन्थ्रापॉलजिस्ट जेम्स ग्राण्ट के अनुसार यह समय 1980 से 1995 में मध्य का होना चाहिए। हर्बर्ट आर्मस्ट्राँग ने अपनी पुस्तक “वण्डरफुल वर्ल्ड टुमारो” में बाइबल के मैथ्यू 24। 22 का हवाला देते हुए कहा है कि बीसवीं सदी के अन्त में ऐसा समय आएगा, जब सारे विश्व में शीतयुद्ध एवं नाना प्रकार के विग्रहों की बाढ़ आ जायगी। ये सभी एक महायुद्ध को जन्म देंगे जिसमें बहुत कम लोग बचेंगे।

हरिवंश पुराण (भविष्य पर्व), कल्कि पुराण, श्रीमद्भागवत् तथा मनुस्मृति के अनुसार यह कलियुग का समापन समय है। इस अवधि को सन्धिकाल कहा गया है तथा व्यापक स्तर पर विनाश की सम्भावना व्यक्त की गयी है। पिरामिड पर अंकित भविष्यवाणियों तथा कुरआन के आधार पर भी नवयुग के आगमन का समय है।

वस्तुतः सभी तत्वदर्शी इस तथ्य पर एकमत हैं कि युग परिवर्तन का ठीक यही समय है। अवाँछनीयता की गलाई इन्हीं दिनों होनी है। ऐसी परिस्थितियों में सृजन को जन्म देने-समुन्नत बनाने वाली दिव्य शक्तियोँ के साथ हाथ बँटाने हेतु जिस प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता है, उसे कमर कसकर तैयार हो जाना चाहिए। अनय को निरस्त करने में सामूहिक धर्मानुष्ठान एक महती भूमिका निभा सकते हैं। हम सबको अब इस साधना-पुरुषार्थ में एकजुट हो लग ही जाना चाहिए।


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