अदृश्य के परिशोधन में धर्मानुष्ठानों की भूमिका

August 1983

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वृक्ष का तना आँखों से दीखता है पर उसमें जीवन संचार करने वाली जड़ें जमीन में नीचे दबी होती हैं, दीखती नहीं। मनुष्य का शरीर दीखता है, प्राण नहीं। परिस्थितियों का आँकलन होता है पर उनके पीछे कठपुतली के धागों जैसा सूत्र संचालन करने वाली मनःस्थिति का समझने समझाने की ओर ध्यान ही नहीं जाता। यही बात दृश्यमान भली-बुरी परिस्थितियों के संबंध में भी है। अनुकूलता और प्रतिकूलता से संबंधित घटनायें- हलचलें- समस्यायें दृष्टिगोचर होती है और आमतौर से उनके उपचार साम, दाम, दण्ड, भेद के आधार पर सोचे, खोजे और कार्यान्वित किये जाते रहते हैं। यह उचित भी है और आवश्यक भी, किन्तु इतने भर को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए।

निशाने पर गोली गलती है और बन्दूक उसे चलाती है। इस प्रत्यक्ष के पीछे चलाने वाले का अभ्यास और साहस भी परोक्ष रूप से काम करता है उसके अभाव में कारतूस और बन्दूक सब प्रकार ठीक होने पर भी काम बनता नहीं। पौष्टिक आहार और कारगर औषधि उपचार की महिमा अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं पर पाचन तन्त्र का सही होना भी कम आवश्यक नहीं। यहाँ भी प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष की गरिमा कम नहीं आँकी जा सकती। अच्छी पौध लगाने से ही बगीचा खड़ा नहीं हो जाता, भूमि की उर्वरता, मौसम की अनुकूलता तथा माली की कुशलता भी उसके लिए आवश्यक है। अच्छे विद्यालय की भर्ती और सुयोग्य अध्यापक की नियुक्ति से ही कोई विद्वान नहीं हो जाता इसमें छात्र की लगन और मेधा अपनी भूमिका निभाती है।

व्यक्ति और समाज के सम्मुख प्रतिकूलताओं, कठिनाइयों, समस्याओं के समाधान के निराकरण और अभिवर्धन के कडुए-मीठे उपचार करने और साधन जुटाने होते हैं। प्रताड़ना और सहायता अपना-अपना काम करती हैं। इतने पर भी परोक्ष वातावरण की अनुकूलता प्रतिकूलता की सफलता असफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है। विज्ञजन उस संबंध में भी आवश्यक ध्यान रखते हैं। फसल उगाने के लिए वर्षा ऋतु की प्रतीक्षा करते हैं। अथवा अन्य उपायों से खेत का नम रखने का प्रबन्ध करते हैं। परोक्ष के संबंध में उपेक्षा बरतने से काम चलता नहीं। साधनों की तरह पराक्रम का भी-परिस्थितियों की तरह भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है। परोक्ष भी प्रत्यक्ष से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण प्रसंगों के संबंध में तो यह और भी अधिक आवश्यक है। युग परिवर्तन जैसे व्यापक और विशद् प्रयोजनों में प्रत्यक्ष से भी अधिक परोक्ष का योगदान रहता है।

रावण के आसुरी आतंक का निवारण करने के लिए लंका काण्ड महायुद्ध होने, लंकादहन से लेकर सेतुबन्ध बाँधने तक की बात सर्वविदित है। युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ था। और अन्ततः राम को विजय का श्रेय मिला था। सीता वापस लौटी और राज्याभिषेक का उत्सव हुआ था। रामचरित्र के ज्ञाता इस प्रसंग को भली भाँति जानते हैं। समझा जाता है कि इतने भर से ही तात्कालिक समस्या का समाधान हो गया होगा। सुख चैन की परिस्थितियाँ बन गयी होंगी।

तात्कालीन तत्वदर्शियों ने एकत्रित होकर यह निष्कर्ष निकाला था कि अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता ने उन दिनों लंका से शेकर, चित्रकूट, पंचवटी तक अगणित असुरों को उपजाया और आतंक बढ़ाया था। उसका अदृश्य घटाटोप लंका विजय के उपरान्त भी यथावत् बना हुआ था। कुछ ही समय के उपरान्त उसी दुःखद घटनाक्रम भी फिर पुनरावृत्ति होती कुछ के मर जाने पर रक्तबीज की तरह नये असुर उत्पन्न होते और नये उपद्रव खड़े करते। इसलिए राम विजय को पर्याप्त न माना जाय, अदृश्य का परिशोधन भी किया जाय। इनके लिए अध्यात्म उपचारों की आवश्यकता थी उनकी विज्ञजनों द्वारा व्यवस्था बनाई गयी थी। दस अश्वमेध यज्ञों की योजना बनी और सम्पन्न हुयी थी। काशी का दशाश्वमेध घाट, भगवान राम के द्वारा सम्पन्न हुयी अदृश्य परिशोधन की उस मात्र शृंखला को अभी भी साक्षी प्रस्तुत करता है।

जड़ बनी रहने पर टहनी कटने से भी कुछ बनता नहीं। जड़ें नयी कोपलें उगाती रहती हैं। प्रथम विश्वयुद्ध को कुछ ही दिन बाद दूसरा विश्व युद्ध और भी भयंकर रूप से लड़ा गया। दूसरे के बाद तीसरे की तैयारी तथा विनाश विभीषिका और भी बढ़ी-बढ़ी है। चम्बल क्षेत्र के डाकू निपटते ही नहीं। कितने ही पकड़े गये, कितने मरे, कितनों ने आत्म समर्पण किये पर वह आतंक अपने स्थान पर यथावत् विद्यमान है। सभी जानते हैं कि स्वच्छता का समुचित प्रबन्ध न होने के कारण सड़न के अगणित मक्खी मच्छर पैदा होते रहते हैं। मलेरिया विभाग के अधिकारी मच्छर मारने के लिए अपने तोप विभाग के अधिकारी मच्छर मारने के लिए अपने तोप तमंचों का भरपूर प्रयोग करते हैं। टनों डी.डी.टी. की बमबारी होती है किन्तु मच्छर हैं जो टस से मस नहीं होते। वरन् और भी अधिक ढीठ बनते जाते हैं। उनने अपनी प्रकृति ही विष भक्षण की बना ली है। स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष उपचार ही सब कुछ नहीं है। उसके लिए गन्दगी और नमी का भी निराकरण करना होगा। पत्ते तोड़ने की अपेक्षा अधिक अच्छा यह है कि जड़ पर कुल्हाड़ा चलाया जाय।

लंका विजय और रामराज्य स्थापना के बीच दस अश्वमेधों की शृंखला यह बताती है कि वातावरण में छाई हुयी विषाक्तता का निराकरण और अदृश्य जगत में देवत्व का अभिवर्धन एक ऐसा आयोजन था जिसे महायुद्ध और महा सृजन की मध्यवर्ती कड़ी कहा जा सकता है। दो पहियों के बीच में वह धुरी आँखों से ओझल रहने पर भी कम आवश्यक नहीं होती।

कृष्णावतार के समय भी इसी उपक्रम की पुनरावृत्ति हुयी। कंस, दुर्योधन, जरासंध, शिशुपाल जैसों से निपटने के लिए श्रीकृष्ण ने ध्वंस लीला रची। महाभारत युद्ध भी लड़ा गया। पाण्डव जीते। इसके उपरान्त परीक्षित के नेतृत्व में द्वापर में सतयुग की झलक दिखाने के तथा संगठित राष्ट्र को चक्रवर्ती आवश्यकता पूर्ण करने की व्यवस्था बनी। महाभारत का तात्पर्य था विशाल भारत। उस लक्ष्य की पूर्ति भली प्रकार हुयी। तात्कालीन भारत का नक्शा समूचे जम्बू द्वीप के साथ गुँथा हुआ दीखता है।

यह ध्वंस और सृजन की उभयपक्षीय प्रक्रिया हुयी। इतना बन पड़ने पर भी अदृश्य जगत में भरी हुयी विषाक्तता का निराकरण आवश्यक था अन्यथा कुछ ही समय उपरान्त उस अनाचार की पुनरावृत्ति होने लगती। नये कंस दुर्योधन उपजते और नये महाभारत की आवश्यकता पड़ती। भगवान कृष्ण ने उस परोक्ष समस्या का निराकरण आवश्यक समझा और प्रख्यात राजसूय यज्ञ के रूप में वातावरण परिशोधन का अध्यात्म उपचार नियोजित किया। उससे कुछ तो काम चला पर अधूरापन रह जाने के कारण कुछ ही समय उपरान्त परीक्षित पुत्र जन्मेजय ने नाग यज्ञ के नाम से विष परिशोधन का दूसरा अध्यात्म उपचार सम्पन्न किया।

भगवान राम और भगवान कृष्ण द्वारा नियोजित उपरोक्त दो घटनायें सर्वविदित हैं। पुरातन इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि समय-समय पर ऐसे ही अनेक उपचार सम्पन्न होते रहे हैं। पीछे तो उनकी एक क्रमबद्ध व्यवस्था परिपाटी ही बन गयी ताकि कूड़े का ढेर जमा होने पर सफाई करने की अपेक्षा साथ की साथ बुहारी लगती, धुलाई होती और फिनायल छिड़की जाती रहे।

विशेष पर्वों, विशेष तीर्थों में धर्मानुष्ठान होते रहने की परम्परा उसी उद्देश्य के निमित्त बनी और चली। तीन-तीन वर्ष बाद हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक कुम्भ आयोजन ऐसे ही हैं जिनमें साधनात्मक उपचार और ज्ञान यज्ञ की उभयपक्षीय व्यवस्था साथ-साथ चलती थी। प्रस्तुत समस्याओं पर मूर्धन्य मनीषियों द्वारा गम्भीर विचार विनियम करके किन्हीं निर्णय निष्कर्षों पर पहुँचा जाता था। बड़ी संख्या में धर्मप्रेमी उस अवसर पर उपस्थित होते थे और विद्वज्जनों के निर्धारणों को अपने अपने क्षेत्रों में कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर लेकर प्रयाण करते थे। ऐसे ही बड़े सम्मेलन आयोजन बुद्धकाल में भी संघारामों के माध्यम से सम्पन्न होते थे। उनमें उन सभी देश क्षेत्रों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे जिनमें बौद्ध धर्म का प्रचार पहुँच पाया था।

बड़े और केन्द्रीय वाजपेय यज्ञों को छोटे क्षेत्रीय एवं स्थानीय धर्म समारोहों में बाँटा गया। उनके लिए तिथि, समय, स्थान बार-बार बदलने के स्थान पर यह उचित समझा गया कि किसी पर्व पर किसी तीर्थ में ऐसे आयोजन हर वर्ष होते रहे। उनका क्रम निरन्तर जारी रहे। इस विकेन्द्रीकरण का सबसे बड़ा लाभ यह समझा गया कि समीपवर्ती धर्म प्रेमी उनमें सरलतापूर्वक पहुँच सकें जबकि दूरवर्ती बड़े आयोजनों में उनका पहुँच सकना समय साध्य, श्रम साध्य और व्यय साध्य होने के कारण कठिन असुविधाजनक पड़ता। इन दिनों भी अनेकानेक तीर्थों में नियत पर्वों पर हर साल धार्मिक मेले होते हैं। यद्यपि आज उनका रूप विकृत उपहासास्पद जैसा हो गया है और वे मनोरंजक व्यवस्थापक मेले ठेलों में अधिक कुछ रह नहीं गये हैं तो भी अतीत के उद्देश्यों की झाँकी किसी न किसी रूप में मिलती है। खण्डहरों को देखकर भी यह अनुमान लगता है कि वहाँ कभी कितने भव्य भवन खड़े रहे होंगे।

इन दिनों के धार्मिक मेले कभी क्षेत्रीय आयोजन थे जिनमें साधना यज्ञ और ज्ञानयज्ञ का समान समन्वय रहा तो था। प्रज्ञा अभियान द्वारा उस पुरातन परम्परा का नये रूप में जीर्णोद्धार करने का प्रयत्न किया है। गायत्री यज्ञ और युग निर्माण सम्मेलन की संयुक्त समारोह प्रक्रिया बहुत समय से चल रही है। इसका शुभारम्भ स्वरूप निर्धारण सन् 57 में गायत्री तपोभूमि मथुरा में सम्पन्न हुये सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ से सम्पन्न हुआ था। उस अवसर पर देश के कोने-कोने से प्रायः चार लाख की संख्या में धर्म क्षेत्र की मूर्धन्य प्रतिभायें एकत्रित की गयी थी। और उनके प्रभाव सहयोग से धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण का प्रयोग देशव्यापी बनाया गया था। जो अब बढ़ते-बढ़ते समस्त संसार में युगान्तरीय चेतना का आलोक वितरण कर रहा है। मत्स्यावतार की तरह उसकी प्रगति देखते ही बनती है।

इन दिनों वाणी अत्यधिक मुखर हुयी है। उसके पीछे ऊर्जा का नियोजन करने वाली साधना उपेक्षा के गर्त में गिर पड़ी है। यही कारण है कि जहाँ देखा जाय वहाँ छोटे-बड़े जन समारोहों में मात्र गीत प्रवचन भर की उछल-कूद होती रहती है। प्रचारात्मक, उत्तेजनात्मक प्रयोजन ही इनके सहारे पूर्ण होता है। भावनात्मक-आध्यात्मिक-अदृश्य को प्रभावित करने वाले-प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने वाले धर्मानुष्ठानों का समन्वय भी रहना चाहिए यह तथ्य विस्मृत हो जाने के कारण विभिन्न संस्थाएं अपने-अपने वार्षिकोत्सव गीत मंगल के साथ धूमधाम से सम्पन्न करती रहती है। राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक संस्थाओं के छोटे-बड़े समारोह आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। पर इस प्रचलन के पीछे काम करने वाली-भावनात्मक, श्रद्धासिक्त वातावरण बनाने वाली प्रक्रिया के दर्शन नहीं होते जिसे कभी सामूहिक धर्मानुष्ठान कहा और अत्यधिक महत्व दिया जाता था। प्राचीन काल के सतयुगी प्रचलनों के पीछे तात्कालीन समाज व्यवस्था तो प्रत्यक्ष थी ही। परोक्ष रूप में उन धर्मानुष्ठानों सहित सम्पन्न होने वाले ज्ञान यज्ञों का भी कम महत्व न था जिन्हें वाजपेय यज्ञ कहा जाता था। जिनका जनमानस के परिष्कार और अदृश्य वातावरण के अनुकूलन में असाधारण योगदान रहता था। प्रज्ञा पुरश्चरण आयोजनों के माध्यम से अब उसे अस्त-व्यस्त पराक्रम को नये सिरे से पुनर्जीवित किया जा रहा है। प्रस्तुत विपन्नताओं के समाधान में उनका असाधारण योगदान होगा, यह सुनिश्चित है।


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