प्रज्ञा पुरश्चरण की परोक्ष पृष्ठभूमि

August 1983

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महत्वपूर्ण कार्यों और प्रयत्नों के लिए संयुक्त शक्ति का जुटाना आवश्यक होता है। भौतिक क्षेत्र में तो ऐसा ही हो सकता है कि तोप का एक बड़ा गोला सौ गोलियों जितना काम कर दें, किन्तु अध्यात्म क्षेत्र में वैसा नहीं है। एक बड़ी मशाल की अपेक्षा यहाँ सौ दीपकों का महत्व अधिक माना जाता है। यों भौतिक क्षेत्र में भी छोटी-छोटी इकाइयाँ मिलकर एक बड़ी संरचना बनने की बात को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। रुई का एक गट्ठा मरोड़कर वैसा मजबूत रस्सा या कीड़ा नहीं बन सकता जैसा कि पतले धागों के संयोग से बनता है। सभी जानते हैं कि ईंटों से चुनकर मकान बनते हैं। कणों के सम्मिश्रण से पदार्थों की रचना होती है। चक्रवात की तुलना में हवा के छोटे-छोटे झोंके सन्तुलन बिठाते हैं। ज्वार-भाटों पर नहीं समुद्र की शोभा व्यवस्था सामान्य लहरों पर टिकी हुई है।

मनुष्य में शरीर और प्राण दोनों हैं। शरीर में बल और प्राण में जीवन रहता है। शरीर की संयुक्त शक्ति जितनी बनती है उसकी समता से एक यन्त्र मानव बन सकता है। किन्तु हर व्यक्ति की जो अपनी-अपनी सूझ-बूझ जीवट होती है उसका भी तो महत्व है। इसलिए सेना में अधिकाधिक सुयोग्य सैनिकों की आवश्यकता पड़ती है। अस्त्र-शस्त्रों की न्यूनाधिकता उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी कि सैनिकों का कौशल, साहस और पराक्रम। यह जीवन्तों की विशेषताएँ हैं। इसलिए प्रीति भोजों में, जुलूसों में, उत्सव आयोजनों में जन शक्ति के सहारे शोभा बनती है। एक दो सेनापति, नेता, विद्वान, धनाढ्य को विराजमान कर देने से न जुलूस बनता है न समारोह। व्यक्ति की प्राण शक्ति की अपनी गरिमा है। उसका गणित अलग है। एक और एक मिलकर जड़ पदार्थ दो होते हैं पर जीवन्तों के विषय में एक और एक मिलकर ग्यारह होने की उक्ति ही सार्थक होती है। भावनात्मक मिलन का अपना महत्व है। मुसाफिरखानों की भीड़ में भावनात्मक एकता न होने से उसका महत्व भले ही नहीं पर एक स्वभाव, एक शिक्षण, एक लक्ष्य वाले सैनिकों की संयुक्त शक्ति कैसा गजब ढाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। शरीर संरचना छोटे जीवाणुओं और अवयवों के संयुक्त समन्वय से ही बनती है।

अदृश्य परिशोधन की सामयिक आवश्यकता पूरी करने के लिए आदर्शवादी भावनाशीलों की संयुक्त सामर्थ्य सदा अपेक्षित रही है। उसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता है। सीता अवतरण के लिए ऋषियों का एक-एक बूँद रक्त संग्रह करके वह घड़ा भरा गया था। जिसे हल चलाते समय जनक ने सीता समेत खेत में पड़ा पाया था। यह प्रयोजन एक व्यक्ति ने सिर काटकर रक्त से घड़ा भर लेने से पूरा नहीं हो सकता था। उससे प्राणवानों की संयुक्त शक्ति से प्रजापति ने महाकाली की संरचना की थी। इन्द्र कुबेर जैसे एक दो वरिष्ठों को मिला देने भर से वह कार्य पूरा नहीं हो सकता था।

एक प्रकृति की अनेक प्राणवान् इकाइयों को एक लक्ष्य के लिए नियोजित कर देने कितनी प्रचंड शक्ति उत्पन्न होती है, उसे सभी विज्ञजन भली-भाँति जानते हैं। प्रजापति ने ऋषि रक्त की बूँद-बूँद संग्रह करके घड़ा भरने का इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए परामर्श दिया था। दुर्गावतरण में देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति का संग्रह करने का प्रबन्ध स्वयं भी इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए किया था।

राम-लक्ष्मण में बल कम न था। समुद्र को सुखा देने वाले बाण के धनी रावण को भी मार सकते थे। पर्वत उखाड़ने वाले हनुमान लंका को भी पानी में डुबा सकते थे, किन्तु यह पर्याप्त न समझा गया। व्यवस्था यह बनी कि अधिक संख्या में रीछ, वानरों की उमंगों का संचय करके समन्वित प्राण शक्ति का उद्भव किया जाय। यह महत्वपूर्ण कार्यों के लिए नीति निर्धारण भी है, साथ ही प्राणवानों को संयुक्त शक्ति से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड क्षमता का रहस्योद्घाटन भी। भगवान कृष्ण क्या नहीं कर सकते थे। जरासन्ध और शिशुपाल की तरह वे कौरवों से भी अकेले निपट सकते थे, पर महाभारत में उन्होंने बड़े प्रयत्न से पाण्डवों के पक्ष में विश्वभर से सैन्य सहयोग जुटाया। इतना ही नहीं उनने गोवर्धन तक ग्वाल-बालों की समन्वय शक्ति से उठा सकने का प्रदर्शन किया। यों वे उसे उठा तो अकेले भी सकते थे।

परशुराम के एकाकी प्रयत्नों का नगण्य परिणाम देखते हुए बुद्ध ने दूसरी नीति अपनाई। यों दोनों के सामने एक ही जैसी समस्या थी। बुद्ध भी भगवान थे। परशुराम तीन कला के और बुद्ध बीस कला के। फरसा वे भी उठा सकते थे, पर वे महान एवं व्यापक प्रयोजनों के लिए प्राणवानों की संयुक्त शक्ति का प्रयोग करने के पक्ष में रहे उनने चीवरधारी श्रवण परिव्राजक स्तर के नर नारियों की एक विश्ववाहिनी खड़ी थी। विश्व के कोने-कोने में पहुँचने का कार्य इसी प्रकार हो सका। शंकर दिग्विजय की तरह वे अकेले की दौड़ धूप करने की निरर्थकता को भी समझते थे अतएव उन्होंने गहराई तक सोचने और दूरगामी परिणाम उत्पन्न कर सकने वाले निष्कर्ष निकाले।

प्राचीन काल में राजाओं के मल्ल युद्धों में थोड़े से लोग ही हार जीत का फैसला कर लेते थे, और राज्य बदल जाते थे। गान्धी और अंग्रेज के बीच मल्लयुद्ध नहीं रचा गया। जन जागरण, जन समर्थन, जन सहयोग की संयुक्त जन शक्ति को उभारा गया और उस तूफान के सामने सूर्य समर्थ समझी जाने वाली सत्ता भी टिक न सकी। गान्धी की जीत का रहस्य इतना ही है कि उनने देश के मणि मुक्तकों-साहसियों को कोने-कोने से ढूँढ़ निकाला और उनकी एक जुट बनाकर इतनी बड़ी शक्ति पुँज एकत्रित किया, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध में जीतने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को बुरी तरह पछाड़ कर रख दिया।

अवाँछनीयता से लोहा लेने के लिए ही नहीं सृजन प्रयोजनों के लिए भी संयुक्त प्राण शक्ति का समय-समय पर प्रयोग होता रहा है। भगवान बुद्ध के समय में एक लड़की ने जन-जन की कसक जगाने का व्रत लिया और उस आधार पर दुर्भिक्ष पीड़ित बालकों की प्राण रक्षा का ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया। समुद्र का पुल बाँधने में रीछ वानरों के तनिक-तनिक से सहयोग से कितना बड़ा काम बन पड़ा, यह सर्वविदित है। देवर्षि नारद जन-जागरण के लिए निरन्तर परिभ्रमण करते थे। सूत जी शौनिकों को स्थान-स्थान पर एकत्रित करके प्रयत्नरत होने का प्रशिक्षण देते थे। ऋषि प्रणीत तीर्थ धामों और बुद्धकालीन विहार संघारामों में सदाशयता की संयुक्त शक्ति को एकत्रित एवं प्रशिक्षित किया जाना था। भूतकाल के महान इतिहास की-भारत की साँस्कृतिक गरिमा की-पृष्ठभूमि इसी आधार पर विनिर्मित हो सकी।

साधन क्षेत्र में यों होती तो व्यक्तिगत एवं एकान्तिक साधनाएँ भी हैं पर उनका लक्ष्य प्रयोजन एवं लाभकर्ता तक ही सीमित रहता है। सर्वजनीन समाधान एवं संवर्धन के लिए यदि कोई बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता हुई है तो सदा समन्वित सहयोगी प्रयत्नों की आवश्यकता हुई है तो सदा समन्वित सहयोगी प्रयत्नों की आवश्यकता समझी और पूरी की गई है। राजतन्त्र द्वारा राजसूय यज्ञ और धर्मतन्त्र द्वारा वाजपेय यज्ञ ऐसे ही प्रयोजनों के लिए आयोजित किये जाते थे। उन्हें समारोह, सम्मेलन, संवर्धन, सह प्रयत्न की भी संज्ञा दी जा सकती है। जो काम विद्वान मण्डली या तपस्वी परिकर एवं शासक वर्ग अपने सीमित पराक्रम से सम्पन्न नहीं कर सकता था उसे मध्यवर्ती भावनाशीलों की संयुक्त से भली प्रकार सम्पन्न कर लिया जाता था।

बड़े वजन उठाने या धकेलने वाले मजूर एक साथ हल्ला बोलकर संयुक्त बल लगाने के सिद्धान्त को भली प्रकार समझते हैं। इसी आधार पर वे कठिन कार्य सम्पन्न करते हैं। संयुक्त बल एक साथ लगाने का क्रम न बने तो फिर बड़े भार वाले चट्टान को इधर से उधर ले पहुँचना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है। संयुक्त शक्ति के ऐसे प्रमाण परिचय छप्पर उठाने, आग बुझाने जैसे छोटे-मोटे कार्यों में आये दिन दृष्टिगोचर होते रहते हैं।

तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रज्ञा पुरश्चरण की सामयिक परिस्थिति से निपटने के लिए योजना बनी है। इसका समय और विधान तो तनिक-सा है। सूर्योदय से पूर्व पाँच मिनट मानसिक गायत्री जप और उसका अदृश्य परिशोधन के लिए संकल्प।” इसे किसी विधान प्रतिबन्ध उपकरण आदि से सर्वथा मुक्त रखा गया है। जो प्रज्ञा परिजन जहाँ भी जिस भी स्थिति में हों नीयत समय पर पुरश्चरण की निर्धारित प्रक्रिया को पूरा कर लें। देखने-सुनने में यह प्रयोग बहुत छोटा और महत्वहीन-सा लगता है, पर बात ऐसी है नहीं। उसमें एक वर्ग, एक लक्ष्य, एक विधान, एक समय, के चार तथ्यों का एक साथ समावेश हो जाने से जिस संयुक्त प्राणशक्ति का उद्भव होता है उसके प्रयोग-परिणाम की प्रतिक्रिया निश्चित रूप से असाधारण होनी चाहिए। समय, श्रम, लक्ष्य एवं उपक्रम के बिखराव से महत्वपूर्ण शक्ति स्त्रोत भी विश्रृंखलित बने रहते हैं। बिखराव में सामर्थ्य का कितना अपव्यय होता है और उसके विकेन्द्रीकरण से उत्पन्न चमत्कार कितने प्रचण्ड होते हैं, यह किसी से छिपा नहीं हैं। सूर्य किरणें पृथ्वी पर पड़ती और छितराती रहने के कारण मात्र गर्मी रोशनी भर उत्पन्न करती हैं। यदि एक इंच परिधि की सूर्य किरणें आतिशी शीशे के द्वारा एकत्रित कर ली जाय तो देखते-देखते चिनगारियाँ उठने लगेंगी और उनके दावानल बनने से देर न लगेगी।

तनिक-सी भाप के केन्द्रीकरण द्वारा प्रेशर कूकर से लेकर विशालकाय वालयर प्रचण्ड सामर्थ्य का परिचय देते देखे गये हैं। वर्षा का बिखरा जल जहाँ-तहाँ बहता रहता है, पर जब वह किसी नदी नाले में एकत्रित होकर एक दिशा पकड़ता है तो उसे हाथी तक बहा ले जाने वाले प्रवाह का रौद्र रूप धारण करते देखा गया है। बिखरी हुई ढेरों बारूद को जलाने पर भक से उड़ती देखी गई हैं, किन्तु यदि तनिक-सी मात्रा एक कारतूस में बन्द करके छोटी नली वाली बन्दूक द्वारा चला दी जाय तो सिंह के आर-पार निकलने, कड़े लक्ष्य बेधने में सफल होती है। विचारों की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली ध्यान शक्ति का महत्व योगीजन भली प्रकार समझते हैं।

देव-दानव संघर्ष में देवताओं के बार-बार हारने और असुरों के बार-बार जीतने के पीछे कारण ढूँढ़ा जाय तो बिखराव और एकत्रीकरण के भिन्न परिणामों का प्रमाण परिचय स्पष्टतः सामने आ खड़ा होता है। देवता हर दृष्टि से वरिष्ठ और समर्थ होते हुए भी इसलिए हारते रहे कि उनने संयुक्त शक्ति विकसित करने की आवश्यकता नहीं समझी और अपनी ढपली, अपना राग बजाते रहे। जबकि दैत्यों ने गठन का महत्व समझा और गिरोह बनाकर हमला किया। इस एक ही विशेषता के कारण वे जीते, यद्यपि वे हर दृष्टि से देवताओं की तुलना में पिछड़े हुए थे।

धर्मशीलों की संकल्प शक्ति का एकत्रीकरण और उसका सामयिक समस्या के समाधान में उपयोग, यह है एक महत्वपूर्ण आधार जिसके कारण प्रज्ञा पुरश्चरण से उन परिणामों की आशा की गई हैं जो प्रस्तुत विपन्नता से विश्व-व्यवस्था को उबार सकें।


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