असुरता अपने आरम्भिक दौर में सदा जीतती रही है। इसका कारण यह नहीं कि दुष्टता की सामर्थ्य अधिक है। प्रकाश से अधिक समर्थ एवं व्यापक अन्धकार हो ही नहीं सकता। सत्य देवत्व के साथ है। अतः बलिष्ठ एवं विजयी उसी को होना चाहिए। फिर भी आश्चर्य इस बात का है कि देवासुर संग्रामों के प्रथम चरण में देवता ही हारे और भागे हैं।
इस विसंगति के पीछे तथ्य एक ही रहा है कि देवता संगठित नहीं हुये। मिल-जुलकर काम करना नहीं सीखे। व्यक्तिगत विलास में निरत रहे और निजी प्रगति की बात सोचते रहे। इस एकाकी चिन्तन में उन्हें स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि, पूजा प्रतिष्ठा जैसे लाभ मिले ही मिले हैं, पर वे प्रखरता की दृष्टि से दुर्बल होते गये और असुरता के संगठित आक्रमण अनाचार का सामना न कर सके। यह है असुरों की आरम्भिक सफलता का पर्यवेक्षण। यदि देवताओं ने आरम्भ में ही असुरों जैसा संगठन और सम्मिलित योजना का महत्व समझा- ध्यान रखा होता, तो उस दुर्गति का कष्ट एवं अपयश न ओढ़ते, जिसकी चर्चा सुनने भर से आदर्शवादियों के मन छोटे होते हैं।
देवासुर संग्राम के उत्तरार्ध में देव विजयी तभी हुए हैं जब वे मिल-जुलकर ब्रह्माजी के पास पहुँचे और एक स्वर में बोले हैं। असुर निकंदिनी दुर्गा का उद्भव ब्रह्माजी द्वारा देवताओं की संयुक्त शक्ति संजोकर ही किया गया था। आज भी देवत्व को यदि जीतना है तो पूर्व इतिहास से शिक्षा ग्रहण करनी और संगठित प्रयासों की गरिमा समझनी चाहिए।