शब्द शक्ति और वातावरण संशोधन

August 1983

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वातावरण जिसमें हम रहते हैं, चेतनात्मक है। उसका संबंध प्राण-प्रवाह के स्तर से है। ऐसी मान्यता है कि सतयुग में ऐसा अदृश्य प्राण-प्रवाह चलता था जिससे व्यक्तित्वों की भावना, मान्यता प्रभावित होती थी। इसी कारण उनके गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता भरी होती थी। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश रहता था। मानवी पुरुषार्थ का भी इसमें योगदान रहता था, पर इस प्रयोजन को सफल बनाने में अदृश्य वातावरण की भूमिका-अनुकूलता का भी भारी योगदान रहता था। परिस्थितियाँ मनःस्थिति के आधार पर इतने बड़े करवट लेती है कि उसे भाग्य विधान, ईश्वरेच्छा जैसा नाम देना होता है। इसलिये अदृश्य जगत में संव्याप्त वायुमण्डल की तरह ही उसका दूसरा पक्ष वातावरण भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता।

इन दिनों बढ़ती विषाक्तता एवं उससे वायुमण्डल तथा वातावरण दोनों के ही प्रभावित होने की चर्चा तथ्यों व आँकड़ों के साथ पिछले पृष्ठों में की गयी है। इसका गम्भीर पर्यवेक्षण करें तो ज्ञात होता है कि इनका मूल कारण प्रचलन-प्रवाह तक ही नहीं है। इसकी जड़ें अदृश्य वातावरण में बड़ी गहराई तक घुसी दृष्टिगोचर होती है। दुष्चिंतन की भरमार से विषाक्त अदृश्य वातावरण और इससे फिर लोक-मानस में असुरता-निकृष्टता का बढ़ता। यह एक ऐसा कुचक्र है जो एक बार चल पड़ने पर फिर टूटने का नाम नहीं लेता। लोक चिन्तन व प्रवाह का अदृश्य वातावरण से अन्योन्याश्रय संबंध है।

इस कुचक्र को संघबद्ध प्रयासों द्वारा तोड़ना ही होगा। परमात्मा की तरह आत्मा को भी अपना उत्तरदायित्व निभाना होगा। अवतार प्रकरण की सूक्ष्म प्रक्रिया अपने स्थान पर है लेकिन सुधार प्रयोजन का दूसरा पक्ष मनुष्यकृत है जिसे जागृत व्यक्ति आपत्ति धर्म की तरह अपनाते और सृष्टा के प्रयोजन में हाथ बँटाते हैं। उन्हें अध्यात्म उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। विशालकाय सामूहिक धर्मानुष्ठान प्रायः इसी प्रयोजन के लिए किये जाते हैं।

लंका विजय में असुरों का संहार तो हुआ पर अदृश्य वातावरण में विषाक्तता भरी होने के कारण लगा कि सामयिक समाधान भर पर्याप्त नहीं, अदृश्य का भी संशोधन होना चाहिए। श्रीराम ने दस अश्वमेधों का नियोजन इसी निमित्त किया। कुरुक्षेत्र में महाभारत विजय के उपरान्त कंस, दुर्योधन, जरासंध से तो पीछा छूटा पर अदृश्य की विषाक्तता यथावत् रहने से स्थायी समाधान न सूझा। अन्ततः अध्यात्म उपचार का आश्रय लिया गया एवं विशालकाय राजसूय यज्ञ की भी ऐसी ही अध्यात्म परक योजना बनाई गई।

सामूहिक धर्मानुष्ठानों से अदृश्य वातावरण की संशुद्धि के और भी अगणित प्रमाण-उदाहरण इतिहास पुराणों में भरे पड़े है। आसुरी सत्ता से भयभीत देवगणों को रक्षा का आश्वासन ऋषिरक्त के संचय से बनी सीता के माध्यम से मिला था। इसी प्रकार देवता जब संयुक्त रूप से प्रजापति के पास पहुँचे, एक स्वर से प्रार्थना की तो महाकाली प्रकट हुई जिन्होंने असुरों का संहार किया। संघशक्ति की ही यह परिणति थी। जिस समय राम-रावण युद्ध हो रहा था, अगणित अयोध्यावासी मौन धर्मानुष्ठानरत थे ताकि अन्य परास्त हो, नीति की विजय हो। ये सभी उदाहरण सामूहिकता के माध्यम से वातावरण को संशोधित करने के घटनाक्रमों पर लागू होते हैं।

सामूहिकता में असाधारण शक्ति है। दो निर्जीव वस्तुएं मिलकर एक+एक=दो ही बनती हैं जबकि प्राणवानों की एकात्मकता कई गुना हो जाती है। तिनके-तिनके मिलकर रस्सा बंटने, धागों के बुन जाने से कपड़ा बनने, ईंटों से इमारत, बूँदों से समुद्र तथा सींकों से बुहारी बनने के उदाहरण यही बताते हैं कि मिलकर एक हो जाने की परिणति कितनी महान होती है। एक लय-ताल से जब संघात किया जाता है तो बड़ी विस्फोटक परिणति की सम्भावनाएँ दृश्यमान होने लगती है। तालबद्ध ढंग से परेड करती फौज ध्वनि शक्ति द्वारा पुल तोड़ सकती है तथा एक छोटा-सा पेण्डुलम निरन्तर संघात से गर्डर तोड़कर भवन धराशायी कर सकता है। समूह बद्ध ढंग से की गयी प्रार्थना में वह प्रभाव है जो वातावरण के प्रवाह को बदल-उलटकर असम्भव को भी सम्भव बना सकता है। आज जो परिस्थितियाँ हैं, वे न रहकर सतयुग के अरुणोदय जैसी स्वर्गीय परिस्थितियाँ उभर सकें, जैसी दिव्यदर्शियों ने अपने भविष्य कथन में व्यक्त की हैं, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

मानव निर्मित वातावरण की जहाँ चर्चा की जा रही है, वहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अवसर आने पर इसकी भूमिका बड़ी विशिष्ट होती है। एक चिन्तन-एक प्रयास जब आँधी की तरह चलता है, सारे वातावरण को हिलाकर रख देता है। इसका एक उदाहरण ‘युद्धोन्माद’, “मॉब मेन्टलिटी” के रूप में देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में दिमाग पर मात्र लड़ने का आवेश छाया होता है। हवा में तेजी और गर्मी कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य व्यक्ति भी सम्मोहित होकर, असामान्य पुरुषार्थ करते देखे जाते हैं।

महात्मा गाँधी का सत्याग्रह आन्दोलन, दाण्डी यात्रा मानव निर्मित प्रवाह का एक स्वरूप है। अगणित व्यक्ति स्वेच्छा से जेल गए। मस्ती की इस युग में अनेकों शहीद हो गए। स्वतन्त्रता इस आँधी प्रवाह की परिणति थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय विंस्टन चर्चिल ने हाथ की उंगलियों से अंग्रेजी का ‘वी’ (क) बनाते हुए एक नया नारा दिया था-“वी फॉर विक्ट्री।” इस नारे ने जन-साधारण को आत्मबल ऐसा बढ़ाया कि अन्ततः जीत नाज़ीवाद से संघर्ष करने वाली समूह शक्ति की ही हुई।

नियाग्रा जल प्रपात के बारे में अमरीका की जनजातियों में यह मान्यता संव्याप्त है कि जिस दिन यह झरना बन्द हो गया, प्रलय आ जाएगी। योगवश इसी सदी में एक बार हिम ग्लेशियर के नदी के उद्गम स्त्रोत पर जम जाने से कुछ घण्टों के लिए झरने से पानी गिरना बन्द हो गया। विश्व के सबसे बड़े प्रपात के थम जाने से सारा अमरीकन समुदाय अनायास ही शंकित हो उठा। सारे राष्ट्र में चर्चा में घण्टियाँ बजने लगी एवं सामूहिक प्रार्थना की जाने लगी। कुछ ही घण्टों में वह प्रपात फिर बहने लगा। पर्यावरण विशेषज्ञों का कथन है कि सामान्यतः ऐसा होता नहीं (ग्लेशियर का जमना)। परन्तु होने पर इतना शीघ्र पूरे प्रवाह से नदी का शीत ऋतु में भी बह निकलना अपने आप में अविज्ञात रहस्य है। स्कायलैब के गिरने व सारे विश्व में उसके गिरने से होने वाली क्षति से आशंकित जनसाधारण द्वारा प्रार्थना व उसके समुद्र पर गिरकर नष्ट होने का वर्णन तो अभी-अभी का ही है।

मुस्लिमों की नमाज का एक सुनिश्चित समय होता है। अजान का समय होते ही जो व्यक्ति जहाँ भी है, तुरन्त अपनी उपासना का शुभारम्भ कर देता है। ईसाई रविवार प्रातः एकत्र होते हैं तथा चर्च में सामूहिक प्रार्थना करते हैं। मिलिट्री की ‘रिट्रीट’ जब भी होती है, जो व्यक्ति जहाँ होता है, वहीं सावधान मुद्रा में खड़ा हो जाता है। ये सारे उदाहरण एक समय एवं सामूहिकता की शक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए बताए जा रहे हैं।

प्रज्ञा अभियान का प्रस्तुत प्रयास पुरुषार्थ कई विशेषताएँ लिए हुए हैं। अगणित व्यक्तियों की प्राण ऊर्जा, एक-सा चिन्तन, शब्द शक्ति की अपरिमित क्षमता एक समय-एक साथ जप ध्यान तथा महाप्रज्ञा की प्रेरणा का चिन्तन-इन सभी का प्रज्ञा पुरश्चरण में समावेश हैं। साधक पाँच मिनट तक सूर्योदय के साथ ही गायत्री मन्त्र का मौन-जप करते हैं। अन्तरिक्ष में परिशोधन हेतु आहुतियों का यह परोक्ष यज्ञ है। जितना अधिक उच्चारण इस मन्त्र का सृष्टि के आदि से अभी तक हुआ है, उतना किसी का नहीं हुआ। शब्द शक्ति ओंकार गुँजन के रूप में समग्र अन्तरिक्ष में संव्याप्त है। ऐसी स्थिति में उच्चारित मन्त्र की शक्ति का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है। समधर्मी कम्पन परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते ही है।

शब्द शक्ति सूक्ष्म मानव शरीर तथा परोक्ष अन्तरिक्षीय संसार को प्रभावित करने वाली एक समर्थ ऊर्जा शक्ति है। यह जीभ से नहीं, मन व अन्तःकरण से निकलती है। लोक प्रवाह को निकृष्टता से उलटकर उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के लिए उच्चस्तरीय शब्द सामर्थ्य चाहिए। साधक स्तर की उत्कृष्ट जीवनचर्या वाले माँत्रिक जब एक साथ पुरश्चरण सम्पादित करते हैं तो ऋषि कल्प महामानवों जैसी वातावरण की आमूलचूल बदले देने की सामर्थ्य विकसित होने लगती है तपःपूत उच्चारण ही मन्त्र जाप है। सदाशयता को संघ बद्ध करने और एक दिशा में चल पड़ने की व्यवस्था बनाने के लिए इस जप का सामूहिक अनुष्ठान स्वरूप ही आदर्श है। श्रुति ने आदेश भी दिया है-“सहस्र सा कमर्चत्” अर्थात्-“हे पुरुषों तुम सभी सहस्रों मिलकर देवार्चन करो।” वस्तुतः सामवेद और ऋग्वेद की समस्त ऋचाएँ सामूहिक गान ही तो हैं।

लोहे का लम्बा गर्डर, सीमेन्ट का एक बड़ा पिलर अकेला एक व्यक्ति नहीं उठा पाता। जब कई व्यक्ति मिलकर “हईशा” के निनाद के साथ जोर लगाते हैं तो वे उसे उठाकर खड़ा कर देते हैं। बड़े-बड़े भवन इससे बन जाते हैं। लेकिन जब यही शब्द शक्ति शुभ कामना का चिन्तन लिए एक साथ कई व्यक्तियों द्वारा उच्चारित होती है, एक सी तरंगें जन्म लेती है और बदले में शुभ विचारों की वर्षा ऊपर से करती हैं। “धियो यो नः प्रचोदयात्”, “आग्नेय सुपथा राये अस्मान्”, “आनो भद्रा कृणवो यन्तु विश्वतः”-इन सभी मन्त्रों में सारे समूह के लिए श्रेष्ठ विचारों की-सन्मार्ग पर चलने की भारी प्रार्थना की गयी है। एक सी भाव लहरें एक ही चित्तवृत्ति को जन्म देती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक फ्रीक्वेंसी पर तरंगें उत्पन्न होने पर वे अप्रत्याशित परिवर्तन लाती है। अल्ट्रासोनिक तरंगों से रोगों का निदान व चिकित्सा की जाने लगी है। माइक्रोवेव्स से केवल संपर्क वरन् ऊर्जा उत्पन्न करने में भी सफलता मिली है। गायत्री मन्त्र की विशेषता उसे वह स्तर प्रदान करती है जिससे वह सामूहिक उच्चारण के माध्यम से अन्तरिक्ष को मथने में समर्थ हो सके। “सिम्पेथेटिक वाइब्रेशन” के सिद्धान्त पर आधारित यह प्रक्रिया “लाइटनिंग” (तड़ित विद्युत) जैसी सामर्थ्य रखती है।

वैज्ञानिकों का कथन है कि शब्द शक्ति से इलेक्ट्रो-मैगनेटिक लहरें उत्पन्न होती है जो स्नायु प्रवाह पर वाँछित प्रभाव डालकर उनकी सक्रियता ही नहीं बढ़ाती-वरन् विकृत चिन्तन को रोकती व मनोविकार मिटाती हैं। एक अन्य निष्कर्ष के अनुसार संसार के पचास व्यक्ति यदि एक साथ एक शब्द का तीन घण्टे तक उच्चारण करें तो उससे छह हजार खरब वाट विद्युत शक्ति पैदा होगी। सारे विश्व में इससे घण्टों तक प्रकाश किया जा सकता है।

विशिष्ट बात यह है कि पृथ्वी जिसका चुम्बकत्व 0.5 गॉस है, हमेशा 0.1 से 100 साइकल्स प्रति सेकेंड की गति से स्पन्दन छोड़ती रहती है। इन चुम्बकीय धाराओं को “शूमैन्स रेजोनेन्स” कहा जाता है। इसकी गति साढ़े सात साइकल्स प्रति सेकेंड है। यह चुम्बकीय प्रभाव लगभग उतना ही है जितने की मस्तिष्क के विद्युत उद्भव। ब्रेनवेव्स की तरंगें भी अल्फाव थीटावेव्स के मध्य साढ़े सात साइकल्स की होती है। यह तथ्य व्यष्टि चेतना के उस महत् चेतना से विद्युत चुम्बकीय सम्बन्धों को सिद्ध करता है। मन्त्र शक्ति के कम्पन दोनों ही चेतन धाराओं को “इनट्यून” करके उन्हें बड़े विस्तार से समग्र ब्रह्माण्ड में फैला देते हैं।

प्रातःकालीन प्रज्ञा पुरश्चरण का अपना वैज्ञानिक महत्व है। शोध निष्कर्ष बताते हैं कि शरीर में प्राण शक्ति को प्रवाहित रखने के लिये उत्तरदायी “सिरोटोनिन” नामक हारमोन ‘पीनियल’ ग्रन्थि से इसी समय प्रवाहित होता है। मनःसक्रियता, काया की स्फूर्ति सार्थक मन्त्रोच्चार हेतु अनिवार्य मानी जाती है।

प्रस्तुत साधना को युग परिवर्तन हेतु अनिवार्य परिशोधन का, युग शक्ति के प्रचण्ड उत्पादन हेतु प्रेरित एक विशिष्ट धर्मानुष्ठान मानकर सविता देवता के उदय काल को प्रमुख मानते हुए सभी स्थानों पर आरम्भ कर दिया जाना चाहिए। विभीषिका निवारण, अनीति-उन्मूलन तथा परिस्थिति की अनुकूलन हेतु महाकाल निर्देशित यह साधना अनुष्ठान है।


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