परिवार निर्माण पर नये सिरे से ध्यान दिया जाय

November 1979

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व्यक्ति को सुसंस्कृत होना चाहिए, ताकि वह मानवी काया में रहते हुए देवता की भूमिका निभा सके। समाज को समुन्नत होना चाहिए ताकि धरती पर ही स्वर्गीय सुख शान्ति का रसास्वादन संभव हो सके।व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के लिए हमें नये सिरे से नये प्रयास करने चाहिए ताकि छाया हुआ पतनोन्मुख अवसाद का समापन और अभिनव उल्लास से उज्ज्वल भविष्य का सृजन सम्भव हो सके। व्यक्ति को विज्ञ और सभ्य बनना चाहिए तथा समाज की संरचना में एकता, ममता, समता और शुचिता के तत्वों का समावेश होना चाहिए। जन जन में चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा जगे। समाज का अनुशासन और वातावरण ऐसा हो जिसमें न कोई पिछड़ा रह सके और न किसी को संग्रही विलासी और आततायी बनने की छूट रह सके। युग सृजन के लिए इसी रीति-नीति को अपनाया और इसी प्रक्रिया को अग्रगामी बनाया जाना आवश्यक है।

यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि व्यक्ति को सुसंस्कृत और समाज को सभ्य बनाया कैसे जाय? समाज का स्वतंत्र रूप से कहीं कोई अस्तित्व नहीं, उसका दृश्य स्वरूप पारिवारिक संगठन में ही देखा जा सकता है। और उन इकाइयों का समुच्चय ही समाज है। समाज को समुन्नत बनाने का अर्थ है उन परिवारों को समुन्नत बनाना; जिनकी संगठना ही समन्वित रूप से समाज बनता है। इसी प्रकार व्यक्ति निर्माण कैसे हो? इस प्रश्न की हद तक जाना हो तो यही उत्तर उभर कर आता है कि बहुज्ञता और कुशलता सिखाने के लिए प्रशिक्षण से काम चल सकता है किन्तु यदि उसे सुसंस्कृत बनाने की बात हो तो यह ढलाई परिवार के परिष्कृत वातावरण में ही संभव हो सकती है। क्योंकि नृतत्व विज्ञान के अनुसार मनुष्य गर्भ प्रवेश के दिन से लेकर दस वर्ष की अवधि तक अपने व्यक्तित्व की ढलाई पूरी कर चुकता है। गुण, कर्म, स्वभाव की जड़ें इसी अवधि में गहराई तक जा पहुँचती हैं। इसके बाद तो मात्र खाद पानी लगाने और रखवाली करने जैसा ऊपरी उपचार ही शेष रह जाता है अस्तु व्यक्ति निर्माण के लिए भी परिवारों को सराय की गई गुजरी स्थिति में नहीं रहने दिया जा सकता। उसे सदाशयता की पाठशाला के रूप में विकसित करना होगा।

व्यक्ति और समाज के दो पहिये हैं और परिवार उन दोनों को जोड़ने एवं गतिशील रखने वाली धुरी। व्यक्ति की महानता दीखती है और समाज के समृद्ध होने का भी परिचय मिलता है; किन्तु परिवार की उन भूमिगत खदानों की महत्ता ही समझ में नहीं आती, जिसे नर रत्नों की खदान कहा जा सकता है। मनुष्य प्रायः बारह घण्टे घर में रहता है, बारह घण्टे बाहर। बालक,वृद्ध और महिलाएँ तो प्रायः पूरा ही समय घर की सीमा में गुजारते हैं। कुल मिलाकर समस्त मनुष्य जाति को अपने समय का दो तिहाई भाग घर की परिधि में परिवार के साथ ही गुजारना पड़ता है। उसकी जैसी भी परिस्थितियाँ होती हैं उसी के अनुरूप उत्थान पतन की सम्भावनाएँ बनती हैं। परिवार को प्रत्यक्ष देखा जा सकने वाला स्वर्ग या नरक कहा जा सकता है।

समस्त संसार मिलकर जीवन को जितना प्रभावित करता है प्रायः उतना ही परिवार का वातावरण भी सुख दुख का निमित्त बनता है। आश्चर्य इस बात का है कि परिवार संस्था की गरिमा को समझा नहीं जाता। उसे परिष्कृत करने पर ध्यान नहीं दिया जाता है। चाहता तो हर कोई यही है कि उसके परिवारी अब एवं भविष्य में सुखी रहें, पर इसके लिए परिवार को उपयुक्त वातावरण बनाने की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा किस प्रकार किया जाय, यह सोचा तक नहीं जाता। परिवार संगठन और न समाज ऊँचा उठेगा। भले ही ऊपरी उपचार कितने ही क्यों न किये जाते रहें। इस तथ्य को जितना जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।

युग निर्माण योजना के तीन सृजन प्रयोजनों में व्यक्ति और समाज की ही तरह परिवार निर्माण को भी समान महत्व प्राप्त है। इसके लिए अब तक महिला जाग्रति नाम दिया जाता रहा है। क्योंकि जागृत महिलाएँ ही प्रधान तथा परिवार गठन का उत्तरदायित्व सम्भाल सकती हैं। इस संदर्भ में उन्हें ही प्रधानता देनी होगी; उन्हीं को इतना समर्थ बनाना होगा कि इस छोटे शासन तन्त्र को कुशलतापूर्वक चलाने में गृहलक्ष्मी एवं साम्राज्ञी की भूमिका निभा सकें। नव सृजन के लिए महिला जाग्रति अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए ही शान्ति कुँज की स्थापना की गई थी। उसमें प्रधानता भी उसी की रही है। कन्यासत्र, महिलासत्र, देव कन्याओं के दौरे, महिला पत्रिका, परिवार साहित्य आदि के रूप में कुछ न कुछ चलता ही रहा है। अड़चन इसी की रही है कि अन्य स्थान न होने एवं युग शिल्पियों के मोर्चे पर जौहर दिखाने का प्रशिक्षण देने के लिए अन्य कोई उपयुक्त स्थान था नहीं अतएव वह कार्य भी शाँति कुँज में ही चला। फलतः एक म्यान में दो तलवारें रहने की तरह गुजारा तो होता रहा पर अड़चन जरूर रही।

समय ने वह अड़चन दूर की है। गायत्री नगर बनने से स्थान की कमी दूर हुई है और एक साथ कई-कई शिविर चलाने का उपक्रम बना है। इसमें युग शिल्पियों के विभिन्न वर्ग एक साथ प्रशिक्षण प्राप्त कर सकेंगे और नये-नये मोर्चे सम्भाल सकेंगे। इसके अतिरिक्त इस स्थान संबंधी सुविधा का दूसरा प्रयास यह बन पड़ा है कि परिवार निर्माण अभियान को नये सिरे से गठित किया जाय और उसे नये प्रवाह एवं नये विस्तार का लाभ दिया जाये। महिला जागरण शब्द इस नई योजना के अनुसार छोटा पड़ता है। क्योंकि महिला कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, समग्र परिवार नहीं हो सकती। परिवार निर्माण में महिला निर्माण आता है, महिला निर्माण में परिवार निर्माण नहीं। ‘महिला’ सुविज्ञ एवं प्रौढ़ होती है। जबकि परिवार में उनके अतिरिक्त भी पुरुषों एवं बाल वृद्धों की भर मार रहती है अस्तु प्रयास की पदोन्नति की गई है और महिला जागरण को परिवार निर्माण नाम दिया गया है पुराने परिचित नाम को धीरे-धीरे नये नाम में परिवर्तित किया जायेगा। इतने पर भी प्रधानता महिलाओं की ही रहेगी क्योंकि नेतृत्व हर हालत में उन्हीं को करना है। यह कर्म क्षेत्र प्रधानतया उन्हीं का है। पुरुष तो उनका समर्थन करने, सहयोग देने और साधन जुटाने की भूमिका निभा सकें तो भी बहुत है।

अखण्ड ज्योति परिवार के समस्त परिजनों को इन्हीं दिनों एक नया का सौंपा गया है। कि वे परिवार निर्माण की ओर पुराने अवसाद को छोड़ कर नये सिरे से नये दृष्टिकोण से ध्यान देना आरम्भ करें और इसके लिए विशेष रूप से प्रयास करें। यों साधारण तथा जीवन का अधिकाँश भाग, श्रम, समय एवं मनोयोग परिवार के निमित्त ही लगता है, पर वह सब कुछ बेतुका होने से मोह मात्र बनकर रह जाता है। आदर्शों का समावेश न रहने से वह प्रयास निरर्थक ही चला जाता है और कई बार तो उल्टा कष्ट कारक ही सिद्ध होता है। मोहजन्य दुलार पक्षपात से परिजनों में अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ उठ खड़ी होती हैं और उनका परिणाम संचालकों के सामने विषाक्त बन कर आता है। यह पुराना ढर्रा बदला जाना चाहिए और हर परिवार में नव सृजन की चेतना उत्पन्न होनी चाहिए। परिवार संस्था को अधिकाधिक समुन्नत बनाने का प्रयास किया जाय तो इससे स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही समान रूप से सधते हैं, स्वयं सुखी बनते परिजनों को समुन्नत बनाने और समाज के अभ्युदय में महत्वपूर्ण योगदान देने के तीनों ही प्रयोजन इस प्रयास से सधते हैं। परिणाम हाथों हाथ सामने आता है। परिवार निर्माण पर किये गये अभिनव प्रयासों का सत्परिणाम हर कोई हथेली पर सरसों जमने की तरह तत्काल देख सकेगा।

काम बड़ा है और व्यापक भी। एकाकी प्रयत्न से एक घर का सुधार होने पर भी कुछ बनता नहीं। क्योंकि अन्य परिवारों की विकृतियाँ सुधरे परिवार को चपेट में लेंगी और बनाने के लिये जो प्रयास किया गया था वह निरर्थक चला जायेगा। महिला जागरण में आधी जनसंख्या का और परिवार निर्माण में पूरे मानव समाज का भाग्य एवं भविष्य जुड़ा हुआ है। इन प्रयत्नों में कारगर सफलता तभी मिल सकती है जब अपने निजी परिवार का साज सम्भाल करने के साथ-साथ इस आँदोलन को व्यापक बनाया जाय। एक ही नकल दूसरे के द्वारा किये जाने की आदत के अनुसार परिवार निर्माण को भी एक प्रचलन का रूप देना होगा। इसके लिए सामूहिक रूप से प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ेगी इससे कम में व्यापक लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव ही नहीं हो सकेगा।

इस संदर्भ में प्रथम चरण इन्हीं दिनों यह उठाया जाना चाहिए कि अखण्ड ज्योति, महिला जागृति, युग-निर्माण, युग शक्ति, पत्रिकाओं के सभी सदस्य मिल कर एक महिला शाखा गठित कर लें। परिवार निर्माण का नेतृत्व महिलाओं को ही करना है। इसके लिए श्रेय उन्हीं को देने की दृष्टि से शाखा को महिला शाखा ही कहा जाय और उसकी सदस्या तथा पदाधिकारी भी उन्हीं को बनाया जाय। पुरुषों की सारी भूमिका पृष्ठ पोषण की रहे। वे समर्थन करें, सहयोग दें; साधन जुटायें। किन्तु संगठन में भीतर घुसपैठ न करें; अन्यथा नये किस्म की विकृतियाँ खड़ी हो जायेंगी। इस संकेत को समझा जाय और परिवार निर्माण के लिए महिलाओं को ही आगे बढ़ाया जाय। पुरुषों के जिम्मे आत्म निर्माण और समाज निर्माण के पहले से ही ढेरों कार्यक्रम सौंपे गये हैं। प्रत्यक्षतः वे उन्हीं को सम्भालें और यह कार्य महिलाओं के ही तत्वावधान में चलने दें। नवगठित महिला शाखा की महिलाएँ सदस्या रहें। और पुरुष दूसरी श्रेणी के सदस्य अर्थात् सभ्य कहलायेंगे। अर्थ एक होते हुए भी इससे पृथकता और प्रमुखता का भेद स्पष्ट होता है।

महिला शाखाओं की सदस्याओं की सदस्यता फीस यह होगी कि वे साप्ताहिक सत्संगों में उपस्थित रहने का यथासंभव पूरा प्रयत्न किया करें। अनिवार्य कारण आने पर ही अनुपस्थित रहें। बड़ा नगर हो तो मुहल्लों के हिसाब से टोली बनाई जाय और टोली नायिका नियुक्त की जाय। छोटा गाँव हो तो उसकी एक ही शाखा पर्याप्त है। ऐसी दशा में संचालिका को कार्यवाहिका कहा जायेगा जहाँ सुविधा के अनुरूप कार्य क्षेत्र बढ़ेंगे और टोलियाँ बनेंगी वहाँ भी एक प्रबुद्ध कार्यवाहिका रहेगी, समस्त टोलियों का मार्ग दर्शन करने का उत्तरदायित्व सम्भालेगी।

आमतौर से महिलाओं में ऐसे सार्वजनिक प्रयासों में सम्मिलित होने का उत्साह नहीं होता। संकोची स्वभाव, घर से बाहर जाने में असुविधा, बड़े बूढ़ों की असहमति, बच्चों की देखभाल, घर का काम आदि कितने ही कारण ऐसे होते हैं जिनसे वे महिला शाखा जैसे कार्यों में सम्मिलित होने, साप्ताहिक सत्संगों में पहुँचने में आन-कानी करती हैं। इस प्रारम्भिक कठिनाई को दूर करना पुरुष परिजनों का काम है। वे इस प्रयोजन के लिए अपने-अपने घरों की महिलाओं को आगे धकेलें। उन्हें समझायें, उत्साह दें और अवसर प्रदान करें। साप्ताहिक सत्संग में ही उन्हें वह प्रेरणा तथा जानकारी मिलेगी; जिसके आधार पर घर में उत्कृष्टता का वातावरण बनाया जा सके। अस्तु संगठन बनाने के साथ साथ ही यह कार्य भी साथ साथ ही पूरा करना चाहिए। साप्ताहिक सत्संगों का ढर्रा अविलम्ब चल पड़े। रविवार की अपेक्षा गुरुवार या अन्य कोई दिन रखा जाय। क्योंकि उस दिन छुट्टी रहने से हर घर में काम बढ़ता है। समय मध्याह्नोत्तर दो से पाँच के बीच का ही उपयुक्त रहता है। सदस्याओं, सभ्यों, टोली नायिकाओं, कार्य वाहिकाओं के पूरे नाम पते शाँति कुँज भेजकर नई शाखा का नये सिरे से पंजीकरण करा लिया जाय। जहाँ पुरानी महिला शाखा चल रही थी। उन्हें रद्द करके नये सिरे से निर्धारण कर लिया जाय।

महिला शाखाएँ परिवार निर्माण के लिए किस प्रकार क्या करेंगी? उसका सुविस्तृत उल्लेख अखण्ड ज्योति के सीमित पृष्ठों पर सम्भव नहीं। इसके लिए 13 सितम्बर का साप्ताहिक युग निर्माण तथा सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर के महिला अभियान अंकों को देखा जाना चाहिए भविष्य में भी आन्दोलन को उपयुक्त दिशा देने का कार्य इन्हीं पत्रिकाओं में मिलता रहेगा। घरों में धार्मिक वातावरण बनाने एवं पंचशीलों का प्रचलन करने के लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से किन परिस्थितियों में कौन क्या कर सकता है इसकी विस्तृत विवेचना उपरोक्त पत्रिकाओं में नियमित रूप से पढ़ने को मिलती रहेगी। परिवार निर्माण का, महिला जागरण का सूत्र संचालन करने का कार्य नये सिरे से शान्ति कुँज के तत्वावधान में आरम्भ हुआ है। समस्त परिजनों को उस सच्चे अर्थों में युग बदलने वाले और हर व्यक्ति द्वारा क्रियान्वित हो सकने वाले कार्य में हाथ बंटाने के लिए कहा गया है। यदि उपेक्षा न की जाय तो इस सहयोग में स्वार्थ और परमार्थ की उभयपक्षीय सिद्धि हाथों हाथ होती दिखाई पड़ेगी।

अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजन ही अब तक शान्ति कुँज आते रहे हैं। सृजन शिक्षण के कार्य में जिन युग शिल्पियों की आवश्यकता थी, उन्हीं को सत्रों में बुलाया जाता रहा है। स्थान सम्बन्धी असुविधा रहने के कारण स्त्री, बच्चों को साथ लाने पर रोक रही है। अब स्थान संबंधी की भी छूट मिलने लगेगी। निश्चय ही इस आधार पर हर परिवार को नया प्रकाश मिलेगा और सुधार परिष्कार का नया वातावरण बनेगा। अप्रैल, मई, जून के तीन महीनों में एक एक सप्ताह के परिवार निर्माण सत्र लगा सकेंगे। इस में आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करने के अतिरिक्त ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला, हरिद्वार, कनखल, मंसादेवी, चण्डीदेवी आदि दर्शनीय स्थानों को सुनियोजित ढंग से देखने का भी अवसर मिलेगा। इस अवधि में जिन्हें अपने बालकों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुँडन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत आदि संस्कार कराने होंगे। पितरों के श्राद्ध तर्पण कराने की इच्छा होगी तो वे सब धर्म कृत्य भी गायत्री नगर में ही करा दिये जाया करेंगे। यह सुविधा उत्साहवर्धक भी है, प्रेरणास्पद भी, सरल सस्ती भी। परिवार सत्र अप्रैल, मई, जून में 1 से 7 - 8 से 14 - 16 से 21 - 22 से 28 तक के रहेंगे। आगन्तुकों को स्थान तो इनमें भी सुरक्षित कराना होगा।

महिला शाखाओं का गठन होने पर नेतृत्व करने वाली महिलाएँ किस प्रकार अपने कार्य क्षेत्र में इन रचनात्मक प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनायें। इस संदर्भ में महिला जागृति पत्रिका के अक्टूबर, नवम्बर अंकों में ठोस सामग्री है। उन्हें सामयिक मार्ग दर्शन माना जा सकता है। इतने भर से भी काम तो चल पड़ेगा किन्तु एक आवश्यकता फिर भी बनी ही रहेगी कि प्रत्यक्ष प्रशिक्षण प्राप्त हों तो और भी उत्तम है। इसके लिए शान्ति कुँज में महिला सत्रों की विशेष व्यवस्था की गई है। नवम्बर, दिसम्बर, जनवरी, फरवरी में एक-एक महीने के महिला सत्र उनके लिए लगाये जा रहे हैं, जिन्हें टोली नायिका का कार्यवाहिका का अथवा कर्मठ कार्य कर्त्री का उत्तरदायित्व निभाना है। इतने थोड़े समय में भी उन्हें वह काम चलाऊ शिक्षा मिल जायेगी जिसके आधार पर अपने घर में तथा कार्य क्षेत्र का परिवार निर्माण का रचनात्मक कार्यक्रम सरलता और सफलता के साथ क्रियान्वित कर सकना सम्भव हो सके।

इसी प्रयोजन के लिए बड़े महिला सत्र तीन-तीन महीने के लगा करेंगे। वे हर वर्ष तीन होंगे। (1) जुलाई, अगस्त, सितम्बर (2) अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर (3) जनवरी, फरवरी, मार्च। इन में संगीत, प्रवचन, गृह उद्योग, संगठन संचालक को उन महत्वपूर्ण विषयों की शिक्षा दी जायेगी जिसके आधार पर अपने-अपने यहाँ की शाखाओं में महिला विद्यालय चलाना तथा अन्य रचनात्मक प्रवृत्तियों को गति देना संभव हो सकता है। परिवार निर्माण अभियान को जब व्यापक बनाना है और विश्व का नव निर्माण, पारिवारिकता के तत्व दर्शन को प्रधानता देते हुए करना है तो उसका नेतृत्व सम्भालने वाली प्रतिभाएँ भी चाहिए। अन्यथा वसुधैव कुटुम्बकम्, विश्व परिवार, विराट ब्रह्म के महान लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव ही न हो सकेगा।

समयदानी परिव्राजकों के एक-एक महीने का सामान्य एवं तीन महीने का .... शिक्षण क्रम बनाया गया है। ठीक इसी प्रकार महिला सत्र भी एक महीने और तीन महीने के चलते रहेंगे।

परिवार निर्माण की उपयोगिता, आवश्यकता समझी जाय और उस महान प्रयोजन के लिए यथासम्भव योगदान प्रस्तुत किया जाय। इन पंक्तियों के साथ यही आग्रह अनुरोध परिजनों तक भेजा जा रहा है।


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