आधुनिक मनोविज्ञान ने परम्परागत अध्यात्म के इस अनुभव की पुष्टि कर दी है कि मानवी-चेतना विविध स्तरों पर एक साथ क्रियाशील रहती है। उन सभी स्तरों पर सक्रिय जीवन अपने आप में अखंड है। जीवन को विभाजित रूप में नहीं देखा समझा जा सकता। चेतना किस क्षेत्र में, किस रूप में सक्रिय होगी, यह इस पर निर्भर है कि उस क्षेत्र की किन प्रवृत्तियों के प्रति उसकी आस्था है। अतः स्पष्ट होता है कि चेतना की क्रियाशीलता का स्वरूप मुख्यतः आस्था से निर्धारित-निर्देशित होता है। यह बात जितनी अन्य क्षेत्रों के लिए लागू होती है, उतनी ही धर्मतन्त्र के लिए भी। धर्मतन्त्र भी उसी स्थिति में कल्याणकारी, उपयोगी और श्रेयप्रद होता है, जब उसके साथ प्रतिपादित जीवन मूल्यों में गहन आस्था हो। जब आस्था उन जीवनमूल्यों में न होकर स्वयं को धार्मिक कहलाने-दिखलाने और लोक-श्रद्धा को ठगने-फुसलाने में हो जाती है तो वही धर्मतन्त्र हानिकर, विकृत, पतनकारक भी बन सकता है।
आस्था ही पाषाण-प्रतिमा में परमेश्वर के दर्शन सम्भव बनाती है। आस्था के अभाव में धर्मतन्त्र के विशाल कर्मकाण्डों का अनुशीलन भी निष्फल ही रहता है।
भिन्न-भिन्न मानसिक संस्कार के लोगों में किसी विषय के प्रति आस्था का स्वरूप एवं स्तर भिन्न होता है। जिन व्यक्तियों को शरीरबल पर आस्था है, वे उसके दुरुपयोग को देखकर भी अपनी आस्था नहीं गंवाते क्यों कि उनकी दृष्टि में दुरुपयोग से भी शरीर बल का महत्व तो प्रकट होता ही है। यदि किसी व्यक्ति की कवित्व-शक्ति पर आस्था है तो किसी कवि की मद्यपी या अपव्ययी प्रवृत्ति से उसकी आस्था कवित्व शक्ति के प्रति नहीं घटेगी।
इस दृष्टि से विचार करें तो आज भी धर्मतन्त्र के प्रति जन साधारण में जो उल्लास, उत्साह, उमड़ता-दीखता है, उससे प्रबुद्ध जनों के विचलित होने का कोई कारण नहीं। धर्मतन्त्र के प्रति उमड़ती लोक श्रद्धा इस तथ्य का संकेत है कि उसके द्वारा मानवी अन्तःकरण के परिष्कार एवं समाज के कल्याण की सम्भावना के प्रति भारतीय जन में गहन आस्था है। यह अलग बात है कि इस आस्था के निरन्तर दोहन किये जाने एवं बदले में जन-मानस को समुचित मार्गदर्शन न दिये जाने से अब यह आस्था छीज चली है।
आस्था अकारण ही नहीं जमती और न अकारण ही उखड़ती। धर्मतन्त्र के प्रति जन-जन व्यापी आस्था का आधार मनीषी पूर्वजों द्वारा लम्बे समय तक किये जाते रहे, वे प्रयत्न-उपचार हैं, जिनके द्वारा यह धर्मतन्त्र देव-मानवों के भव्य उत्पादन में समर्थता और चारों ओर सुख-शान्ति भरे वातावरण की पृष्ठभूमि बनाता था। इसी प्रकार आज यदि वह आस्था कुछ घट रही है तो इसका कारण पिछली कुछ शताब्दियों से धर्मतन्त्र के प्रतिभाशालियों द्वारा उपेक्षा और उस पर प्रतिगामी तत्वों का एकाधिपत्य है। इसके कारण ही उसमें विकृतियों की भरमार हो चली। जहाँ-जहाँ धर्माध्यक्षों का रूप बनाकर अपने स्वार्थों को पूरा करने की तिकड़म चल पड़ी। समाज के श्रम, धन और सम्मान का शोषण होने लगा। प्रतिगामी लोगों ने धर्मतन्त्र के माध्यम से जन साधारण को दीं-कल्पनालोक की निरर्थक उड़ानें, मूढ़ मान्यताएँ, अन्धविश्वास, भाग्यवाद, देववाद, पलायनवाद की हानिकर धारणाएँ। जिस आदर्शवादी दृष्टिकोण का परिष्कार धर्मतन्त्र की स्थापना का उद्देश्य था, वह तो विस्मृत-विलुप्त ही होता चला गया। फैलता गया वह विकृत दृष्टिकोण जिसके अनुसार नदी स्नान, देवदर्शन जैसे छुट-पुट कर्मकाण्डों से पाप के दण्ड भुगतने से छुटकारा मिल जाता है या अमुक पूजा-विधान से स्वर्ग-मुक्ति की, देव-अनुग्रह से मनोकामना पूर्ति की सिद्धि मिल सकती है। अनैतिकता एवं अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाली ये मान्यतायें धर्मतन्त्र पर लम्बे समय से छाई हैं और उस मृगमरीचिका में भटक रही जनता भ्रांत क्लान्त हो चली है। इसलिए अब विचारशील वर्ग में धर्मतन्त्र के प्रति आस्था वैसी अविचल नहीं रही। वे धर्मतन्त्र की उपयोगिता को संशय के दृष्टिकोण से देखने लगे हैं। किन्तु यह तो निषेधात्मक दृष्टि है।
विचारणीय यह है कि भारत के लोकमानस में मानवतावादी, सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियों की स्थापना किस पृष्ठभूमि पर हो सकती है। उपयोगी गतिविधियाँ अपनाने के लिए जन सामान्य को सहमत करने की सर्वाधिक सुगम प्रक्रिया क्या होगी?
अशिक्षित, देहाती भारत की कठिनाई यह है कि उसकी पूर्व जानकारी प्रधानतया धार्मिक स्रोतों से सम्बद्ध है। वे ही विचार, वे ही मान्यतायें उस तक सहजता से सम्प्रेषित हो सकती हैं, जो धर्म के कलेवर से जुड़ी हों। उसी सिलसिले को आगे बढ़ा कर बात ठीक से समझाई जा सकती है। धर्म भारतीय जनता का प्रिय विषय है। धार्मिक कलेवर को उपयोग विवेकपूर्ण विचारों के शिक्षण के लिए करने से वे गहराई तक सरलता से जम सकते हैं। धार्मिक आयोजनों में जो भावनात्मक वातावरण बनता है, उस ऊष्मा का उपयोग श्रेष्ठ मान्यताओं, उत्कृष्ट धारणाओं के प्रस्थापन के लिए किया जा सकता है। आज भी जनता के धन, समय और मनोयोग का बहुत बड़ा अंश धर्मतन्त्र के लिए स्वेच्छा से समर्पित होता रहता है। अतः उस शक्ति का सदुपयोग करना एक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कर्त्तव्य-कर्म है। धर्म-कलेवर में नये प्राण फूँकना भारत में एक राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।
धर्मतन्त्र द्वारा ही लोकमानस का परिष्कार-परिमार्जन सम्भव है। प्राणी भी पदार्थों की ही तरह प्रकृतितः अनगढ़ ही होते हैं। जिस प्रकार पदार्थों को पकाना, गलाना, ढालना, खरीदना आवश्यक होता है, तभी वे काँतिमान, सुन्दर, सुडौल और उपयोगी बन पाते हैं। उसी प्रकार प्राणियों को भी प्रशिक्षित, परिष्कृत करना होता है। जिस प्रकार पेड़-पौधों की कटाई, छटाई, गुड़ाई निराई, सिंचाई आदि करने पर ही सुन्दर, आकर्षक उद्यान तैयार होता है, उसी प्रकार प्राणियों की प्रवृत्तियों को भी परिष्कृत-विकसित कर उन्हें अधिक उपयोगी, अधिक सुन्दर बनाया जाता है। परिष्कृत, प्रशिक्षित मनुष्य ही सुसंस्कृत कहलाता है।
मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की प्रक्रिया द्विपक्षीय है। उसका दर्शन पक्ष अध्यात्म कहलाता है और व्यवहार पक्ष का नाम धर्म है। धर्मतन्त्र का कार्य कलेवर संस्कृति के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए ही खड़ा किया गया है। एक लम्बी अवधि से इस धर्मतन्त्र का भीषण दुरुपयोग होता रहा है और वह मनुष्य के लिए हानिकारक विकृतियों का पोषण केन्द्र बनता रहा है। इस पर भी धर्मतन्त्र के प्रति लोक-आस्था शेष है। आस्था की इस ज्योति को स्वास्थ्यप्रद प्राणवायु से प्रखर प्रदीप्त बनाया जाना चाहिए। यह दायित्व उन लोगों का है, जो लोक-मानस के परिष्कार एवं प्रशिक्षण का महत्व समझते हैं और राष्ट्रीय संदर्भ में उसके उपयुक्त माध्यम के रूप में धर्मतन्त्र की उपदेयता भी समझते हैं। धर्मतन्त्र रूपी मन्दिर में जल रही जन आस्था की ज्योति को बुझा देने से मिलेगा कुछ नहीं, घाटा ही घाटा होगा। धर्म भावना का अभ्यासी मानस इससे विभ्रांत दिड़्मूढ़ हो जायेगा। अतः आवश्यकता इसी की है कि आस्था की उस ज्योति को प्राण वायु पर्याप्त रूप में पहुँचाई जाय। भावनाशील अन्तःकरण, उत्कृष्ट, चिन्तन एवं श्रेष्ठ आचरण वाले जीवन्त देव मानव एवं प्रबुद्ध जन इस क्षेत्र में आगे आयें और धर्मतन्त्र को परिमार्जित, परिशोधित, नवनिर्धारित कर आस्था की ज्योति को जागृत रखें। आस्था ही मानवीय अन्तःकरण को आनन्दित, पुलकित, प्रफुल्लित रख सकती है और प्रगति पथ पर बढ़ते रहने का पाथेय जुटाती रह सकती है।