समृद्धि और प्रगति का आधार बाहर नहीं भीतर

November 1979

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सुविधा साधन प्राप्त करने के लिए, दूसरों को अनुकूल बनाने के लिए जो प्रयत्न होते हैं उनमें दबाव या अनुरोध ही प्रधान रखा जाता है इस आधार पर कुछ तो मिलता है, पर उतना नहीं जितना अपेक्षित है। दबाव की विवशता से किसी प्रकार पीछा छुड़ाने के लिए कोई कुछ देने भी लगे तो भी उसका स्तर गया बीता होता है। उपलब्धि क्या है और कितनी है यह देखना पर्याप्त नहीं। यह समझना भी आवश्यक है कि वह किस स्रोत से प्राप्त हुई और किस स्तर की है। निकृष्ट स्तर की उपलब्धि विस्तार से कितनी ही बड़ी क्यों न हो उसका परिणाम अन्ततः दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण ही होता है। इस प्रकार अनुरोध आग्रह से अपनी दीन दुर्बलता व्यक्त करते हुए जो मिलता है उसमें प्राप्त कर्त्ता को असमर्थ दुर्बल अभागी .... तिरस्कृतियों की मात्रा घुली रहती है। अनुग्रह से जो मिलता है उसके बदले आत्म-सम्मान और आत्मावलम्बन की गरिमा भी निश्चित रूप से घट जाती है।

सुविधा साधनों की वास्तविक आवश्यकता वस्तुतः बहुत स्वल्प है। सुखी निर्वाह के लिए जितना आवश्यक है, सरलता और स्वल्प श्रम से सर्वत्र पाया जा सकता है यदि अधिक की आवश्यकता हो तो फिर उसका सही उपाय है अपने योग्यता का एवं पुरुषार्थ का अनुपात बढ़ाना। गुण, कर्म स्वभाव में शालीनता का संवर्धन करने से मनुष्य की प्रामाणिकता बढ़ती है और उस पूँजी के मूल्य पर अनायास ही दूसरों का सद्भावसिक्त समर्थन सहयोग मिलने लगता है। हर मनुष्य और हर पदार्थ के भीतर एक ऐसी श्रेष्ठ सत्ता विद्यमान है जो शालीनता को समुन्नत बनाने के लिए प्रकृति प्रेरणा एवं विधि विधान के अनुसार स्वतः ही काम करती और सहायता देती है।

अपने स्तर और पुरुषार्थ का बढ़ाना यही है वह सुनिश्चित मार्ग जिस पर चलते हुए भौतिक साधन सुविधाएँ ही नहीं आत्मिक विभूतियाँ भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकती हैं।

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