युगांतर चित्रण (kavita)

November 1979

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आ रहे उभरकर नये चित्र, युग का आकाश निहारो तो। नूतन-युग के नव-चित्रण का, अनुपम-आभास उभारो तो॥1॥

युग की धरती पर फूट रहे, देखो तो आज नये-अंकुर। फूटी पड़तीं कोंपलें नई, नूतन-पल्लव हो रहे मुखर॥ आने वाली है नई-फसल, युग के खेतों, खलियानों में। नूतन-रस भरता जाता है, युग की फसलों के दानों में॥ युग-परिवर्तन के चित्र-तनिक, आंखों के बीच उतारो तो॥2॥

देखो! वह चित्र उभर आया, जिसमें श्रम का श्रृंगार हुआ। देखो! वह चित्र कि जिसमें, नव-सृजन सहज-साकार हुआ॥ वह चित्र निहारो तो जिसमें, युग-कलाकार की मनमानी। हैं जहां विशेषताएं, युग की समता का भरती हैं पानी॥ शोषण, उत्पीड़न, भेद-भाव, हैं शेष न तनिक विचारो तो॥3॥

यह चित्र गजब है, गिरतों को युग-पुरुष उठाते हाथ पकड़। देखो! कितनी करुणा छलकी, दीनों का दर्द न जाये बढ़॥ युग की ममता टूटी पड़ती, जन-जन को प्यार लुटाने को। रस की धारा फूटी पड़ती, प्यासे को प्यार पिलाने को॥ अपनी संवेदन-क्षमता को, पीड़ित के लिये पुकारो तो॥4॥

नव-युग के चित्र अनूठे हैं, अपने घर का श्रृंगार करो। जन-मानस में इन चित्रों को जड़कर स्वर्णिम-उल्लास भरो॥ ये चित्र मनुज की गरिमा को, देवत्व प्रदान करायेंगे। ये चित्र मनुज की धरती को, स्वाभाविक-स्वर्ग बनायेंगे॥ इन चित्रों से आचारों की दीवारें तनिक संवारो तो॥5॥

-मंगल विजय

*समाप्त*


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