मानवी व्यक्तित्व में अन्तर्निहित समग्रता!

November 1979

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पदार्थवादी दृष्टिकोण वाले बौद्धिक मनुष्य को जैव रासायनिक संयोगों का एक आकस्मिक समुच्चय ही मानते रहे हैं। उस स्थिति में सम्पूर्ण व्यक्तित्व की किसी विशिष्ट एक सूत्रता का प्रश्न ही नहीं उठता। रंग, रक्त, शरीरस्थ रसों आदि की दृष्टि से निश्चित वर्गों का निर्धारण हो जाने पर तो यह और भी निश्चित माना जाने लगा कि जिस प्रकार कुछ तत्वों की निश्चित मात्रा एवं निर्दिष्ट प्रक्रिया में संयोग से अमुक यौगिक विशेष तैयार हो जाता है, उसी प्रकार कुछ निश्चित तत्वों के संयोग में सफल हो जाने पर वर्ग विशेष के मनुष्य भी तैयार हो सका करेंगे।

लेकिन विज्ञान प्रेमियों की इस बाल-कल्पना का आधार ध्वस्त किया खुद वैज्ञानिकों ने। जैसे-जैसे जीवन के रहस्यों की खोज का क्रम बढ़ता गया, वैसे-वैसे वे तथ्य सामने आते गये, जिनसे स्पष्ट होता गया कि शरीर के ढाँचे वर्ण, कद, आकृति, रक्त हड्डियों आदि के हिसाब से तो वर्गीकरण ठीक है। किन्तु जीवन के इससे गहरे आधारों के क्षेत्र में वर्गीकरण से काम चलने का नहीं। चेतना की विद्यमानता प्रत्येक व्यक्तित्व को एक समग्र रूप देती है। जो दूसरे से बिल्कुल भिन्न है और इस लिये जिसे वर्गों में नहीं बाँधा जा सकता क्योंकि हर व्यक्ति अपने आप में एक पूर्ण इकाई है। अपना वर्ग वह स्वयं है।

व्यक्ति के संस्कार उसकी जन्म-जन्माँतर की संचित सम्पदाएँ और साधन हैं यह मान्यता भारतीय तत्व दर्शन की रही है। संस्कारों का यह सम्पुंजन बहुआयामी और अति विस्तृत होता है। संस्कार रूपी ये विशेषताएँ व्यक्ति की स्वयं उपार्जित क्षमताएँ होती हैं। इन्हीं से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उसकी अपनी विशिष्टता घनीभूत रहती है। दृश्यमान मानव-शरीर को स्थूल संरचना में बहुत अधिक अन्तर नहीं होता। तो भी कोई दो व्यक्ति शत प्रतिशत एक जैसे नहीं होते। फिर अंतरंग क्षेत्र तो और भी विस्तृत है। प्रत्येक व्यक्तित्व का अलग-अलग अनूठापन होता है। जो संस्कार समूहों की ही विशेषता होती है।

यह विशेषता ही मनुष्य की प्रवृत्तियाँ, रुचियों और सामर्थ्य के रूप में प्रकट होती रहती हैं। कोई प्रचण्ड शरीर बल का स्वामी है, तो किसी में उसकी अल्पता है। कोई विलक्षण मेधा और स्मरण शक्ति से सम्पन्न है तो किसी की बुद्धि में स्थूल बातों के अतिरिक्त और कुछ पैठता ही नहीं और स्मरण शक्ति भी मन्द होती है। किसी के हृदय में करुणा का अथाह समुद्र उमड़ता घुमड़ता रहता है, तो किसी को पर-पीड़न में ही पुरुषार्थ प्रतीत होता है। ये सभी भिन्नताएँ ईश्वरीय अनुदान में किसी प्रकार के पक्षपात या विषमता का परिणाम नहीं है, वरन् जन्म-जन्मान्तरों से अमुक व्यक्ति द्वारा बढ़ाई जा रही विशेषताओं या खोयी गँवाई जा रही क्षमताओं का ही जोड़ बाकी और गुणनफल हुआ करती है।

जिस प्रकार मिट्टी, पत्थर प्रतीत होने वाली वस्तुओं के तल में इलेक्ट्रान-प्रोटान-न्यूट्रान और उनकी आधारभूत विद्युत-तरंगें सक्रिय रहती हैं, उसी प्रकार स्थूल दृष्टि से जो काय कलेवर के अवयव हाड़-माँस के बने दीखते हैं उनमें चेतन कोशिकाएँ और उनकी भी तह में जीन्स क्रोमोसोम की निर्माणकारी चेतना प्रक्रियाएँ क्रियाशील रहती हैं।

प्रत्येक मनुष्य के अपने व्यक्तित्व की विशिष्ट छाप उन मूलभूत इकाइयों तक में विद्यमान होती हैं। इस विशेषता का पता चला आणविक जैविकी के विकास से, जिसकी भव्य परिणति के रूप में पिछले दिनों दुनिया की प्रथम परखनली शिशु का प्रादुर्भाव हो सका है और जिसने पूरे संसार को रोमाँचित कर दिया है।

आणविक जैविकीविदों की खोजों से यह तथ्य सामने आया कि जीवन की मूलभूत इकाई कोशिका। ये इकाइयाँ अति सूक्ष्म होती हैं। ये प्राणिमात्र की देह-इकाइयाँ हैं। एक कोशीय जीव अमीबा से लेकर विकसित मनुष्य तक। किसी स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट युवक के शरीर में लगभग साठ हजार अरब कोशिकाएँ होती हैं। इनमें से दस हजार अरब कोशिकाएँ होती हैं। इनमें से दस हजार अरब तो ऐसी इकाइयाँ ही हैं, जो स्वचालन-क्रिया को परिचालित करती हैं जितनी जगह में ‘मैं कोशिका है’ छपा है, उतनी जगह में औसत आकार की पचास हजार कोशिकाएँ रखी जा सकती हैं।

इनमें से प्रत्येक कोशिका एक शानदार कारखाना है। जो उत्पादन, कचरे के निष्कासन, सक्रियता, सुव्यवस्था एवं प्रशासन की सुनियोजित प्रणाली से क्रियाशील है। इस कारखाने के तीन मुख्य खण्ड होते हैं-पहला बाहरी खोल, जो एक पतली झिल्ली जैसा होता है, दूसरा साइटोप्लाज्म जैसे लसलसे पदार्थ से लबालब भाग और तीसरा केन्द्रक। यह केन्द्र ही प्रत्येक गतिविधि का नियन्त्रक होता है। केन्द्रक में ही डी.एन.ए. रहता है जो मनुष्य के गुणसूत्रों तथा अन्य सूचनाओं का भंडार होता है। सच पूछा जाय तो कोशिका एक बड़ी झील है, इसे जीव-द्रव्य या प्रोटोप्लाज्म की झील कह सकते हैं, जीव चेतना को क्षीर सागर भी कहा जा सकता है। इसी क्षीर सागर के केन्द्र में है केन्द्रक या न्यूक्लिस रूपी विष्णु जिनकी नाभिवत् केन्द्रिका या न्यूक्लिजोलस में रहते हैं- डी.एन.ए. रूपी ब्रह्मा। इन ब्रह्मा के चार मुँह हैं- डी॰एन॰ए॰ रूपी सीढ़ी की पौड़ियों के चार यौगिक एडिनिन, ग्वैनिन, साइटोसिन और थाइमिन। एडिनिन और थाइनिन का सदा जोड़ा रहता है तथा साइटोसिन और ग्वैनिन का। इन चारों का क्रम ही समस्त जीवों की समानता या भिन्नता का मूल है। डी॰एन॰ए॰का जो कुण्डलीनुमा फीता है उसके उपयुक्त चार यौगिक उसकी चार अक्षर की वर्णमाला है। इन्हीं अक्षरों के क्रम और डी॰एन॰ए॰ की संख्या के उलट फेर से भिन्न-भिन्न चेतना संदेश तैयार हो जाते हैं और उन चेतना सन्देशों से ही बनता है यह सारा चेतना संसार गुणसूत्र के डी॰एन॰ए॰ के एक क्रम से व्यक्ति का रंग काला बनता है तो अन्य भिन्न-भिन्न क्रम से गोरा, भूरा या पीला। देह के प्रत्येक अवयव और उनकी विशिष्टताओं का निर्माण इन्हीं डी॰एन॰ए॰ के हेर-फेर से हुआ करता है। कोशिकाओं के भीतर का डी॰एन॰ए॰ ही प्रोटीनों के संश्लेषण का निर्देशक है। इन प्रोटीनों से बनते हैं एन्जाइम। प्रत्येक जैव-रासायनिक क्रिया का प्रारम्भ, विकास या अन्त इन्हीं एन्जाइमों का खेल है।

दुनिया में प्राणियों की बोलियाँ भिन्न-भिन्न हैं। एक प्राणी दूसरे वर्ग के प्राणी की बोली कम समझ पाता है। मनुष्य ने तो भिन्न-भिन्न भाषाएँ विकसित कर ली हैं और जिस भाषा-बोली का उसे ज्ञान नहीं, उसका आशय अभिप्राय वह नहीं समझ पाता। कई बार तो मनोदशा और ज्ञान स्तर की भिन्नता से एक ही भाषा के बोलने वाले दो व्यक्ति एक दूसरे का अभिप्राय ठीक-ठीक नहीं समझ पाते। किन्तु सभी जीवों की रासायनिक भाषा एक है और प्रत्येक जीवकोशिका उससे भली−भांति अवगत है। उस भाषा का जो अर्थ जीवाणु कोशिका के लिए है वही अर्थ मानव-कोशिका के लिए।

इन सबसे यही स्पष्ट होता है कि सभी प्राणियों में क्रियाशील मूलभूत चेतना एक ही है और उनकी संरचना के आधारभूत सूत्र भी एक में हैं।

भारतीय तत्वदर्शी प्रखर साधनाओं द्वारा इसी एकमेव द्वितीय चेतन सत्ता और उसके लिए क्रियाकलापों की जानकारी में समर्थ होते रहे हैं। तभी वे सूक्ष्म जगत में उभरने वाली हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में समर्थ होते थे। सृष्टि के रहस्यों को समझ सकने के लिए सर्व व्याप्त चेतना से तादात्म्य स्थापित करने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी नहीं।

एक ही आत्मा सब में समाया हुआ है। एक ही सूर्य असंख्य लहरों में प्रतिबिंबित हो रहा है। यह प्रतिबिम्ब भिन्न-भिन्न रूपकारों में उसी रूप से ढला दिखाई पड़ता है।

आकार-प्रकार की यह भिन्नता कोशिकाओं तक में देखी जा सकती है। चमड़ी का बाहरी हिस्सा चपटी कोशिकाओं से बना रहता है तो पाचन प्रणाली की कोशिकाएँ सिलेण्डर के आकार की होती हैं। माँसपेशियों की कोशिकाएँ आकुँचन प्रसारण में सहायक होती हैं, तो गुर्दे की मूत्र निर्माण-निष्कासन में सहायक होती हैं। किन्तु कहीं की भी कोशिका हो उसमें वे विशिष्टताएँ विद्यमान होती हैं जो उस व्यक्तित्व का सार है। उनका पुनरुत्पादन भी सम्भव है। इसी आधार पर वैज्ञानिक दावा करते हैं कि यदि महात्मा गाँधी की त्वचा की ही कोशिकाएँ लेकर उनके ‘ऊतक संवर्ध’ बना लिये गये होते, तो अब तक कुछ दिनों बाद तकनीक विकसित होने पर उन्हीं ‘ऊतक संवर्धों’ से हजारों गाँधी बनाये जा सकते थे। या कि यदि आज जिम्मी कार्टर अथवा ब्रेजनेव की त्वचा की कोशिकाएँ इसी प्रकार रख ली जायें, तो कल उन्हीं से अनेक कार्टर और अनेक ब्रेजनेव बन सकते हैं।

चेतना विज्ञान और अणु जैविकी के अन्वेषण में कदम-कदम पर पैदा होने वाली नई-नई कठिनाइयाँ एवं प्रतिक्रियाएँ वैज्ञानिकों की इस सामर्थ्य सम्भावना को साकार कर सकें अथवा नहीं। किन्तु एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति के अँगूठे की छाप दूसरे व्यक्ति से और एक के स्वरों का ध्वनि-चित्राँकन दूसरे के स्वरों के ध्वनि चित्राँकन से भिन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका दूसरे से भिन्न होती है। साथ ही एक मनुष्य के शरीर में विद्यमान खरबों कोशिकाओं में से प्रत्येक में उसकी आधारभूत विशेषताएँ सुरक्षित होती हैं। इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता में समग्रता है। वह किन्हीं चित्र-विचित्र प्रवृत्ति प्रवाहों का आकस्मिक मेल नहीं है। उसकी विशेषताएँ भिन्न-भिन्न रासायनिक तत्वों के यों ही एकत्रीकरण भर से नहीं होतीं, अपितु उसके रोम-रोम में अंग-अंग में उन विशेषताओं का सारभूत अंश विद्यमान होता है।

इसी तथ्य से एक अन्य निष्कर्ष भी सामने आता है। मृत्यु के बाद मनुष्य के मस्तिष्क के प्रोटोप्लाज्म के बिखर जाने और उसके किसी अंश-विशेष के अन्य मनुष्य में प्रविष्ट हो जाने की बात कई वैज्ञानिकों द्वारा उन प्रमाणों के संदर्भ में की जाती रही है जहाँ कोई व्यक्ति अपने कथित पूर्व जन्म का कोई प्रामाणिक विवरण दे देता है। किन्तु कोशिका-सम्बन्धी ये खोजें उस तर्क को कमजोर बनाती हैं। जब शरीर के किसी भी हिस्से की कोशिका में व्यक्ति की सभी मूलभूत विशेषताएँ संरक्षित रहती हैं तो मस्तिष्क की कोशिका का प्रोटोप्लाज्म बिखर कर घूमघूम कर दूसरे में प्रविष्ट होने के स्थान पर चेतन कोशिका के ही नये रूप में पहुँचने की सम्भावना है। यों अभी तो इसके अनेक रहस्य अज्ञात के गर्भ में ही हैं। इतना ही स्पष्ट हुआ है कि हर नयी कोशिका अपनी जननी कोशिका से समस्त सूचनाएँ, साँचे संकेत और नक्शे लेकर अपना नया कारखाना खोलती है। आनुवाँशिकी कूट भाषा अभी तक पूर्णतः जानी नहीं जा सकी है। रहस्य खुलने पर वह जानकारी जीव-कोशिकाओं में निहित चेतना को अविच्छिन्नता पर भी प्रकाश डाल सकेगी।

आणविक जैविकी की इन खोजों ने ये दो बातें अब तक स्पष्ट की हैं-सभी जीव-कोशिकाओं की मूलभूत रचना-प्रक्रिया एक है। जिस व्यक्तित्व की वे इकाइयाँ होती हैं उसकी सभी आधारभूत विशेषताएँ इनमें सूत्र रूप में सन्निहित होती हैं। दोनों ही तथ्य भारतीय दर्शन के प्रतिपादन के अनुरूप हैं। वेदान्त दर्शन की मान्यता है कि एक ही चेतन-तत्व भिन्न-भिन्न दृश्यों के रूप में सर्वत्र दीखता है। साथ ही इन दृश्यों का बनना-बिगड़ना भी आकस्मिक नहीं है। वह एक सुनिश्चित सृष्टि प्रक्रिया का अंग है। विकास किसी अन्धेर गर्दी-भरी शैली से नहीं होता। अपितु उसी व्यवस्था के नियमों के अनुसार होता है।

हमारा चेतना-स्तर न तो आकस्मिक है और न अन्तिम या अपरिवर्तनीय। न तो इसका चाहे जैसे संयोग होता है न ही चाहे जैसा विघटन। इस सृष्टि में सभी कुछ सुव्यवस्थित और नियमबद्ध है और चेतना से परिपूर्ण है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है और वह परम पिता परमेश्वर का लाड़ला पुत्र है, इन दो तथ्यों को ध्यान में रखने पर उन्नति तथा आनन्द की वास्तविक दिशाएँ सदा स्पष्ट रहेंगी और उस ओर चलते हुए जीवन को सफल सार्थक बनाया जा सकेगा।


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