जो माँगेगा उसे दिया जायेगा

November 1979

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बाइबिल में ईसा अपने एक शिष्य से कहते हैं, “ईश्वर” के राज्य में जो माँगेगा उसे दिया जायेगा और जो खट खटायेगा उसके लिए द्वार खट खटाया जायेगा। यह नियम या सिद्धान्त बहुत ही सरल प्रतीत होता है। माँगने मात्र से मिल जाने का सिद्धान्त सच भी है अर्थात् जो भी आकाँक्षा की जाती है वह तत्काल पूरी होती है। लेकिन वास्तविक जीवन में इसका उल्टा ही प्रतीत होता है। लोगों की हजारों आकाँक्षायें रहती है, और उनमें से अधिकाँश अधूरी रह जाती है। यह देखते हुए सहज ही लगने लगता है कि यह सिद्धाँत और मनीषियों ने कहा है कि प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। वह अवश्य पूर्ण होती है।

प्रार्थना ईश्वर से की जाती है और उसका प्रयोजन कुछ प्राप्त करना ही है। ईश्वर सर्वव्यापी होने के साथ-साथ जगत् का पिता है। उसे हर किसी की आवश्यकता तथा इच्छा की जानकारी है। वह परम पिता परम दयालु और अनन्त वत्सल होने के नाते अपनी संतान के सभी मनोरथ पूरे करना चाहता है। कोई सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा आवश्यकता पूरी करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहता है। तो परम पिता, परमदयालु होने पर ईश्वर क्यों नहीं अपनी प्रिय सन्तान की इच्छा पूरी करना चाहेगा।

ईश्वर अपनी संतान की प्रत्येक इच्छा आकाँक्षा पूरी करता है। लेकिन मनुष्य आम तौर पर किसी आकाँक्षा को सही ढंग से नहीं जगाता है कभी किसी को देख कर इच्छा उत्पन्न होती है कि अपने पास भी बढ़िया कपड़े, सुन्दर बँगला, अच्छी कार और वैभव संपन्न सुविधा साधन होना चाहिए। किसी को देखकर मन में यह इच्छा उत्पन्न होती है परन्तु तभी किसी आत्माराम योगी, अपने, में ही आनन्द मग्न संन्यासी, सिद्ध पुरुष को देखा तो वैभव संपन्न होने की इच्छा न जाने कहाँ दब जाती है और योगी जैसी स्थिति प्राप्त करने का मन होने लगता है। उसके कुछ ही देर बाद किसी विद्वान का विद्वतापूर्ण भाषण सुना या कोई पुस्तक पढ़ी तो दोनों विचार पीछे छूट जाते हैं और विद्वान बनने का मन करने लगता है। नित निरन्तर बदलती रहने वाली इन स्फुरणाओं को आकाँक्षा नहीं कहा जा सकता। जो लहर की भाँति आती और तुरन्त उठ कर शाँत हो जाती है, फिर उसके स्थान पर नई लहर उठ जाती है वह लहर है प्रवाह नहीं। लहरों में कोई प्रवाह नहीं होता और प्रवाह में कोई लहर नहीं उठती। क्षण प्रतिक्षण बदलने वाली इच्छाओं को यदि लहर कहा जाय तो वे उठकर भी कहीं नहीं पहुँचती और निरन्तर एक दिशा में, एक लक्ष्य के प्रति एक निष्ठा से निरन्तर उमंग उठती रहे तो प्रवाह मान नदी की भाँति वह अपने गन्तव्य तक पहुँच कर ही रहती है।

गलती यहीं होती है कि लहर को इच्छा समझा जाने लगता है और उनकी पूर्ति न होने पर ईश्वर को दोषी ठहराया जाता है अथवा उपरोक्त सिद्धान्त को ही गलत ठहराया जाता है। इच्छा या आकाँक्षा किसी भूख की तरह जगती है। जब कड़ी भूख लगने लगती है तो रोम-रोम पुकारने लगता है कि रोटी चाहिए और जब तक क्षुधा पूर्ति नहीं हो जाती तब तक चैन नहीं मिलता न ही उस बीच कोई इच्छा जगती है। जब बहुत तेज प्यास लगती है तो पानी के अलावा कुछ नहीं सूझता। यह प्यास जगी ही रहे तो एक ऐसी दशा आ जाती है जब जीवन ही पानी का प्रतिरूप लगने लगता है और उस स्थिति में पानी पीये बिना चैन नहीं मिलता। इसी स्थिति में रेगिस्तान में दूर की रेत सरोवर की तरह लगने लगती है और उधर भागने का मन होता है। बहुत से भागते भी हैं, मनुष्य भले ही न भागे पर पशु पक्षी तो मृगतृष्णा के शिकार बनते हैं। एक कवि ने तो यहाँ तक गाया है कि मनुष्य समझदार है इसलिए रेगिस्तान में दीखने वाले सरोवरों की तरफ नहीं भागता लेकिन प्यास जब वे तरह बढ़ जाती है तो सारी समझ भूल जाती है। फिर यह विचार नहीं आता कि यह मृगतृष्णा है। उक्त कविता की अन्तिम पंक्तियों में तो यह भी कहा गया है कि जो मृग तृष्णा को समझ जाते हैं जानना चाहिए कि उनकी प्यास असली नहीं थी।

कहने का आशय यह कि आकाँक्षा अभीप्सा, ध्येय या लक्ष्य, कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा तब तक पूरी नहीं होती जब तक उसके प्रति सम्पूर्ण मन प्राण पुकार न करने लगे। उसी स्तर की माँग को ईसा ने सच्ची माँग कहा है कि जो माँगेगा उसे दिया जायेगा।

इस संदर्भ में स्मरणीय है कि मनुष्य की माँग सदैव आनन्द को लेकर ही उठती है। कभी लगता है धन पाकर सुख मिलेगा, परन्तु जब धन प्राप्त कर लिया जाता है तो लगता है कुछ नहीं मिला। कहीं कोई रिक्तता रह गई। कभी लगता है यश पा कर सुख मिलेगा। यश भी जब मिलने लगता है तो उससे भी अन्तःकरण की रिक्तता भरती नहीं। धन यश, प्रभाव, कीर्ति, सम्पदा आदि लौकिक उपलब्धियाँ प्राप्त होने के बाद भी असंतोष ज्यों का त्यों रिक्त ही बना रहता है। उस रिक्तता का कारण है। अन्तःकरण की मूल आकाँक्षा को न समझ पाना। मनुष्य को सच्ची और चिरस्थाई तृप्ति तभी मिलती है जबकि उसके अन्तःकरण की आनन्द पिपासा पूरी हो जाय। उस पिपासा को समझना चाहिए और जानना चाहिए कि जाने अनजाने सारी भागदौड़ उसी पिपासा को शान्त करने के लिए चल रही है।

पहाड़ों से निकल कर नदियाँ मैदानों में भागती दौड़ती हैं। उनका वेगवान प्रवाह तभी शान्त होता है जब वे सागर से मिल जाती हैं। सागर ही उनका अंतिम लक्ष्य है और वे सागर तक पहुँच कर ही विराम लेती है। मनुष्य भी विराट् चेतना का-परमात्मा का अलग थलग पड़ा हुआ एक घटक है। उससे मिलने की आतुरता ही आनन्द की पिपासा है। यह पिपासा न समझ पाने के कारण कई लोग धन में सुख खोजते हैं, कई यश में कई वैभव में और कई अधिकारों को प्राप्त करने में सुखी होना समझते हैं। लेकिन वैसा कुछ न होने पर अतृप्त ही भटकते हैं। अनेक प्रकार की आकाँक्षाओं इच्छाओं वासनाओं, और तृष्णाओं के जाल जंजाल में उलझे रहने के कारण अन्तःकरण की वह पिपासा कभी शान्त नहीं होने पाती और मनुष्य भटकता रह जाता है।

जबकि आनन्द प्राप्ति को एक ही दिशा है और वह कहीं बाह्य जगत में नहीं अपने ही भीतर की ओर है सारे संकेत उसी दिशा की ओर इंगित करते हैं। यह बात अलग है कि कोई उसे समझ लेता है और कोई नहीं समझ पाता है। जो समझ लेते हैं वे उसी दिशा में उन्मुख होते हैं, खटखटाते हैं, द्वारा खुल जाते हैं और अपने भीतर बैठे परमात्मा के सम्मुख आत्म समर्पण कर चिर स्थाई शान्ति तथा स्थिर आनन्द की अनुभूति करे लगते हैं।

भगवान को आत्म समर्पण करने की स्थिति में जीव कहता है- तस्यै वाहम् ‘मैं उसी का हूँ’ यह कहते कहते वह उसी में तन्मय हो जाता है और इतना तन्मय हो जाता है इतना घुल मिल जाता है कि अपने आपे का विसर्जन विस्मरण हो कर बैठता है और अपने को परमात्मा का ही स्वरूप समझने लगता है। तब वह करता है त्व्मेवाहम् (मैं तो तू ही है) शिवोऽहम् (मैं ही शिव हूँ) अहं ब्रह्मरिमा (मैं ब्रह्म ही हूँ)।

यह तो आनन्द प्राप्ति की, मनुष्य की मूल माँग की बात हुई। लौकिक जगत में भी मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति के बल पर वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जिसे पाने की वह कामना करता है। शर्त इतनी भर है कि इच्छा और संकल्प प्रखर हो प्रखर संकल्प के साथ पुरुषार्थ उसी तरह निहित है जिस प्रकार कि स्वस्थ बीज में एक परिपूर्ण वृक्ष। अतः यह कहना जरा भी अत्युक्ति पूर्ण नहीं है कि जो माँगेगा उसे दिया जायेगा और जो खट खटायेगा उसके लिए द्वारा खोला जायेगा। परमेश्वर की सृष्टि में यह शाश्वत नियम काम करता है। उसकी व्यवस्था में अपवाद की कहीं कोई गुंजाइश नहीं।


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