वैज्ञानिक मान्यताएँ या तीर तुक्का?

November 1979

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अनेक दिशाओं में बिखरा-फैला, ज्ञान और अनुभवों का क्षेत्र बहुत व्यापक एवं विशाल है। हमारे प्राचीन पूर्वज मनीषियों ने इसी लिए इस बात पर सदा बल दिया था कि ज्ञान के प्रति हमें अपना मस्तिष्क सदा खुला रखना चाहिए ताकि हर क्षेत्र की नई से नई जानकारी होती रह सके। यह खुलापन, जागरूकता और परिश्रम ही प्रतिभा है। प्रतिभा का अर्थ है क्षमतावान् मनुष्य। प्रतिभाशालियों की संख्या जितनी अधिक होती है और उनमें आपसी सहयोग जितना प्रगाढ़ होता है, ज्ञान-विज्ञान का उतना ही बहुमुखी विकास होता है। जहाँ और जब संख्या और सहयोग कम होता है, तब वहाँ संकीर्णता बढ़ती-फैलती है।

आधुनिक वैज्ञानिक विकास-क्रम के प्राथमिक चरणों में ऐसी ही संकीर्णता का बोलबाला था। यद्यपि उसके पीछे प्रगति की सत्प्रेरणा और सदुत्साह ही था, किन्तु ज्ञानराशि से अपरिचय के कारण वह बाल-उत्साह अनेक काल्पनिक मान्यताओं को वास्तविक मान बैठा था। उस बाल-कल्पना की उड़ान कभी ठीक दिशा में हो जाती रही, तो तीर बनती रही, लक्ष्य-बेध में सफल होती रही। कभी वह यों ही तुक्का होकर रह जाती थी। गम्भीर उद्योगों प्रयासों के सत्परिणाम देखकर लोग प्रत्येक वैज्ञानिक परिकल्पना और मान्यता को ही सत्य मानने लगे। किन्तु प्रगति के साथ साथ यह स्पष्ट होता जा रहा है कि उन परिकल्पनाओं-मान्यताओं में तथ्यों-नियमों के साथ ही पूर्वाग्रह-प्रेरित कल्पनाओं का अच्छा-खासा सम्मिश्रण है। नियम और तथ्य अपनी जगह पर हैं। उनसे सभी लाभान्वित होते और प्रगति करते हैं। मान्यताएँ भिन्न हैं। वे आपसी खींचतान का कारण बनती हैं समझदारी का तकाजा है कि मान्यताओं को कसौटी पर कसने के लिए सदा तैयार रहा जाय, उन्हें सदा सही सिद्ध करने के मोह से मुक्त रहा जाय।

विज्ञानवादियों की विकासवादी मान्यता भी ऐसी ही है, जिन्हें कई लोग विज्ञान द्वारा प्रमाणित और पुष्ट, निर्विवाद सत्य मान बैठे हैं।

यह माना जाने लगा है कि सृष्टि के विकास, प्रयोजन एवं कार्य-कारण की पूरी-पूरी जानकारी विज्ञान को हो चुकी है और वैज्ञानिक फार्मूलों द्वारा हर बात की सही-सही जाँच हो सकती है। दूध का दूध, पानी का पानी किया जा सकता है।

विकासवाद की मान्यता है-कि “सृष्टि एक निश्चित क्रम से क्रमशः विकसित हो रही है। पृथ्वी पर मानवीय सभ्यता का भी निरन्तर विकास हो रहा है आज का मनुष्य जितना उन्नत है, सुसंस्कृत है, उतना पहले कभी नहीं था। आध्यात्मिकता, आत्मसत्ता पर विश्वास, ईश्वर भक्ति आदि पुराने पिछड़े युग की मान्यताएँ हैं जब मनुष्य को प्रकृति पर विजय प्राप्त नहीं थी और वह प्रकृति की विचित्रता से विमोहित, आतंकित, चकित और विचलित होकर इन रहस्यवादी भावनाओं की शरण में जाता था। आज के उन्नत मनुष्य को विश्व के सभी रहस्य ज्ञात होने का सूत्र प्राप्त है। उसे इन मान्यताओं से चिपटे रहने के पिछड़ेपन से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए।”

सर्वप्रथम तो डार्विन के विकासवादी जोड़-तोड़ की सैद्धाँतिक परीक्षा ही की जा सकती है। उनके अनुसार एक कोशीय जीव अमीबा प्रारम्भ में हुआ। फिर वह हाइड्रा में विकसित हुआ। उससे मछली, मेढ़क, सर्पणशील पक्षी स्तनधारी जीव आदि के श्रेणी-विकास पथ से बात बंदर तक पहुँची। वही बंदर प्रागैतिहासिक मानव के रूप में परिवर्तित हुआ। मनुष्य निरन्तर अपना विकास करता बढ़ रहा है। विकासवाद द्वारा यह नहीं बताया जा सकता कि अमीबा से ही नर-मादा दो श्रेणियाँ कैसे विकसित हुईं। उस एक कोशीय जीव से दो कोशीय हाइड्रा कैसे पैदा हुआ? क्या अन्य सब जीव भी इसी गुणोत्तर श्रेणी में रखे जा सकते हैं। सर्पणशील जीव श्रेणी-विकास के क्रम में पंख धारी बने। तब चींटे, पतिंगे मच्छर, जैसे कृमि किस प्रक्रिया में पनपे? माँसाहारी पक्षी, जल-जन्तु आदि विकसित हुए तो गाय, भैंस, बकरी हाथी जैसे शाकाहारी प्राणी कैसे बन गये? सहसा माँसाहार से शाकाहार की प्रवृत्ति-परिवर्तन किस इच्छा के कारण हुआ? फिर एक ही जीव के नर-मादा में अन्तर का कारण क्या है? हाथी के दाँत होते हैं हथिनियों के नहीं। मुर्गे में कलंगी होती है, मुर्गियों में नहीं। मोर जैसे रंग-बिरंगे पंखों वाले की मादा मोरनी बिना पंख के क्यों? पक्षियों की उम्र कुछ ही वर्ष होती है, सर्प और कछुओं की आयु सैकड़ों वर्ष होती है, ऐसा क्यों एक जीव से दूसरी किस्म का उसी से मिलता जीव इच्छा के कारण विकसित हुआ, तब एक ही विकास श्रेणी में और एक दूसरी से जुड़ी विकास श्रेणी में इतनी भिन्नताएँ क्यों हैं?

सुविधा पूर्णजीवन की इच्छा ने शरीर संस्थानों में इच्छित परिवर्तन किये, तो मनुष्य की इच्छा-शक्ति तो अत्यधिक प्रबल और विकसित है। वह पक्षियों को आकाश में उड़ते देखकर खुद भी वैसा गगनचारी होने को लालायित है। मछलियों की तरह अगाध जल-प्रवाह में निर्द्वन्द्व विचरण करने को तरस रहा है और गोते मारने का अभ्यास कर रहा है। तब भी वह इन विशेषताओं से सम्पन्न क्यों नहीं बन पा रहा? हजार-हजार वर्षों से मनुष्य द्वारा की जा रही सामूहिक इच्छा कोई प्रभाव क्यों नहीं दिखा रही?

शायद विकासवादी कह दें कि वह ऐसी इच्छाओं में उतना समय और शक्ति नहीं लगाता। अपितु औद्योगिक-वैज्ञानिक विकास में प्रवृत्त है-और इन क्षेत्रों में निरन्तर अभूतपूर्व प्रगति कर रहा है। परन्तु नित नये ऐतिहासिक-पुरातात्त्विक तथ्य सामने आकर उनका यह दावा भी खंडित कर रहे हैं। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि प्राचीन काल का मनुष्य पिछड़ होने के स्थान पर बौद्धिक सामर्थ्य, विज्ञान तकनीक, उद्योग, वाणिज्य, नभ संचरण, स्थापत्य, वास्तुकला और अध्यात्म सभी में इतना विकसित था कि वहाँ तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को शताब्दियाँ लग सकती है।

अन्तरिक्ष-अभियान को विज्ञान की रोमाँचकारी प्रगति बताया जाता है। किन्तु ‘भारद्वाज संहिता’के वैज्ञानिक प्रकरण में विमान की विकसित तकनीक का वर्णन है, जो पुष्पक विमान समेत अतीत के विभिन्न विमानों की वास्तविकता पर प्रकाश डालता है।

दमिश्क की “टेरेस आफ बाल बैंक” कभी आधुनिक ‘एरोड्रोम’ से अधिक सुरक्षित अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा था, ऐसा विचार रूसी विद्वान अगरेस्ट ने व्यक्त किया है। यहाँ पहाड़ी छत पर एक सुन्दर ‘प्लेट फार्म’ बना है। इसमें 2 हजार टन तक के वजन वाले 65-65 फुट लम्बे पत्थर प्रयुक्त हुए हैं। टिहानको की 13 हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित पहाड़ी छत भी पुराना अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा होने का अनुमान है। यह सुमेरियन सभ्यता का विकसित शहर था। 4784 वर्ग फुट क्षेत्र को समतल बनाकर विमान तल इस का निर्माण किया गया था। इस समतल में एक सूत भी ऊँचाई-निचाई का अंतर नहीं है। टिहान को नगर का पर्यावरणीय दबाव समुद्र तल से आधा है। वहाँ वायु में आक्सीजन बहुत कम रही होगी। तब शहर कैसे बना?

अंतरिक्ष-अभियान में नक्षत्रीय गणना और वेधशालाएँ आवश्यक हैं। चिली से छत्तीस सौ किलो मीटर दूर स्थित ईस्टर ड्रीप “ह्यूमन बर्ड आइसलैण्ड” (मानव पक्षी द्वीप) के नाम से प्रसिद्ध है। यह मय सभ्यता का केन्द्र था। टिहानको से यह द्वीप 5 हजार किलोमीटर दूर है। तो भी यहाँ उपलब्ध साक्ष्य यह संकेत देते हैं कि इन दोनों केन्द्रों में पारस्परिक संपर्क था इस द्वीप में उन दिनों एक अति विकसित वेधशाला थी। वहाँ ज्वालामुखी की चट्टानों को काट काट कर 33 से 66 फुट तक की ऊँचाइयों वाली और 40 से 50 टन तक भार वाली विशाल पाषाण-प्रतिमाएँ गोलाकार में खड़ी हैं। इनके खूबसूरती से तराशे अंग प्रत्यंग उनके सजीव होने का भ्रम पैदा कर देते हैं, मानो वे बस बोलने ही वाली हैं। यहाँ लकड़ी की पट्टियों में नक्षत्र गणना के विचित्र संकेत मिले हैं। अनुमान है-कि इन आकृतियों की छाया से गणितीय सूत्रों के हल और नक्षत्रमंडल की नाप जोख का काम होता रहा है। इस द्वीप के निवासी विद्या के उस स्रोत से विच्छिन्न हो जाने पर भी अभी तक यह बताने में समर्थ होते हैं कि प्रकृति का अमुक परिवर्तन भूकम्प, वर्षा, समुद्री तूफान आदि का परिचायक है। नक्षत्रों और चन्द्रमा आदि ग्रहों की भी उन्हें बहुत बारीकी से जानकारी है।

मय-सभ्यता के समय के कलैंडर प्राप्त हुए हैं, जो आगामी 4 हजार लाख वर्ष तक सूर्य-चन्द्र ग्रहण की प्रति वर्ष की घोषणाएँ करने में सक्षम हैं और इतने वर्षों तक पंचाँग का काम करते रहेंगे। इन कलैंडरों में पृथ्वी का वर्ष 365.2420 दिनों का बताया गया है। आधुनिक इलेक्ट्रानिक उपकरणों से निकाली गई अवधि 365.2422 दिन की है। अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि मय-कलैंडर में जो 0002 का अन्तर है वह गलत ही है। हो सकता है, आज के वैज्ञानिकों की गणना में ही अभी कुछ कमी हो। इन कलैंडरों द्वारा किसी स्थान पर पड़ने वाले विशेष नक्षत्रीय विकिरण तक जाने जा सकते थे। उसी आधार पर दुर्गों, प्रसादों, नगरों और नक्षत्र-वेध शालाओं का निर्माण होता था। ‘इनका’ सभ्यता में भी मय-कलैंडरों का ही आधार लिया जाता था।

बैवीलोनिया में कुछ पट्टियों में चन्द्र ग्रहणों की तिथियाँ अंकित हैं, जो आज भी सच निकलती हैं। चींचा की वेध शाला की सीढ़ियाँ, छत, गुम्बद सब इस प्रकार बनाये गये थे कि वे गणितीय समीकरणों और नक्षत्रीय गवेषणाओं में सहायक थे। ब्रोंसिया (इटली) की गुफाओं की भित्तियों में अन्तरिक्ष यात्रियों की वेशभूषा से सज्जित आकृतियाँ हैं।

विस्तृत भौगोलिक ज्ञान भी पूर्वजों को था। ईसा पूर्व 18 वीं शताब्दी यानी आज से 38 सौ वर्ष पहले का एक एटलस तुर्की के टापाकापी राजप्रासाद में मिला है। इसमें अमेरिका के पठार समेत विभिन्न महाद्वीपों के पर्वत-शिखर और पठार, नदियाँ, समुद्र, द्वीप भूमध्यरेखीय राज्य, दक्षिणी ध्रुव आदि को दिखाया गया है। आधुनिक सभ्यता के इतिहास में सन् 1952 में पहली बार दक्षिणी ध्रुव का सर्वेक्षण सम्भव हो सका उनके पूर्व तक इतनी वैज्ञानिक सामर्थ्य विकसित नहीं थी। “ईको साउण्ड” यन्त्रों द्वारा ही यह सर्वेक्षण सम्भव हो सका। क्योंकि जहाजों का वहाँ पहुँच सकना सम्भव नहीं था। तब इतने वर्षों पूर्व दक्षिणी ध्रुव का वैसा ही भौगोलिक स्वरूप कैसे दर्शाया जा सका, जो 1952 के सर्वेक्षण के ही अनुसार है?

आधुनिक इंजीनियरी अति विकसित मानी जाती है। किन्तु काहिरा और अलेक्जेन्ड्रिया के मध्य बने विशाल पिरामिड कुछ और ही तथ्य प्रकट करते हैं। “च्योप्स के पिरामिड” आधुनिक अभियाँत्रिकी एवं स्थापत्य को चुनौती देते हैं। ये पिरामिड उस स्थान पर बने हैं जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति के मध्य में है। इसका अर्थ है कि उस समय के लोगों को चुम्बकीय बलों और नक्षत्रीय विकिरणों की जानकारी थी। यहाँ से महाद्वीपों और समुद्रों को बराबर के दो भागों में बाँटा जा सकता है। ऐसा पृथ्वी का मध्यवर्ती यह स्थान है। बिना अति विकसित यन्त्रों की यह गणना सम्भव नहीं थी।

पत्थर के 26 लाख आकर्षक डिजाइन पिरामिडों में पाये गये हैं। दो पत्थरों के बीच एक सेन्टीमीटर के पाँच सौवें भाग के करीब ही झिरी है। यानी लगभग बिल्कुल नहीं, अदृश्य सी एक एक पत्थर का ब्लाक 12 टन भार वाला है। गैलरी सुन्दर रंगों से रंगी पुती हैं। पिरामिडों की सुरंगें पचीसों मीटर लम्बी हैं। वे भी सुन्दर ढंग से रंगी पुती हैं। मशालें वहाँ ले जाई जा नहीं सकती थीं, अन्यथा श्रमिकों का दम कार्बनडाइ आक्साइड से घुट जाता। दीवारें काली हो जातीं। विकासवादी प्रतिपादन सत्य है तो उस समय टार्च और बिजली की जानकारी थी नहीं। भीतर प्रकाश की क्या कैसे व्यवस्था हुई? पत्थरों की ऐसी शानदार कटाई कैसे हुई?

विकासवाद के अनुसार सन् 1600 के आस-पास आदमी ने पहली बार बैलगाड़ी और घोड़ा गाड़ी का प्रयोग किया। डाइनामाइट का तो कहीं नामोनिशान था नहीं? ये 12-15 टन भार के पत्थर कैसे खदानों से निकाले गये, किस साधन से ढोये गये। इस विशाल मात्रा में कैसे ऊपर चढ़ाये गये। ये पिरामिड एक ही निर्माता “फराह खूफ” द्वारा बनाये गये यानी सौ-पचास वर्ष नहीं, कम ही समय लगा होगा। टनों वजनी 26 लाख पत्थर इतने कम समय में कैसे चढ़ाये और बिठाये गये? यदि रोलर्स से ढोये गये तो ये रोलर्स बने कैसे? उस रेगिस्तानी इलाके में तो बस ताड़ के पेड़ हैं। वही भोजन का आधार है। उन्हें इतनी तादाद में क्यों काटेंगे? क्या अपना पेट काटकर कोई इमारतें बनवाता है? यदि रोलर्स बाहर से मंगवाये गये तो क्या समुद्री मार्ग से जलयानों द्वारा बुलवाये गये?

मैक्सिको की राजधानी से 60 मील दक्षिण चोसला में भी ऐसे ही विशाल खंडहर मिले हैं। ग्वाटेमाला के जंगलों में तूतमखान के भव्य पिरामिड नक्षत्रों की गणना के आधार पर बनाये गए हैं।

लीमा के दक्षिण पिस्को की खाड़ी में 8.0 फुट ऊँची सीधी चट्टान की लाल दीवाल है, जो 20 किलो मीटर दूर से देखी जा सकती है। इस दीवाल पर मनोरम चित्रकारी की गई है।

पेरू की पल्पाघाटी में 37 मील लम्बा 1 मील चौड़ा विस्तृत क्षेत्र पत्थरों के सुडौल टुकड़ों से भरा पड़ा है। ये पत्थर जंग लगे लोहे जैसे लगते हैं।

मिश्र सभ्यता, मय-सभ्यता और इनका सभ्यता के खंडहर इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उस समय अत्याधुनिक किस्म के नगर बसते थे। मन्दिर, मूर्तियाँ, सड़कें, जल मल निष्कासन की नालियाँ, स्टेडियम आदि परिष्कृत ढंग से बनाये जाते थे। भाषा, गणित, इतिहास, विज्ञान, दर्शन अध्यात्म, संगीत की शोध होती थी और ग्रन्थ रचे जाते थे। तिहानको नगर में भवनों हेतु 100-100 टन पत्थरों का प्रयोग किया गया दिखता है। 6 फिट लम्बे डेढ़ फुट चौड़े पत्थरों से बनी सुन्दर सुघड़ नालियाँ हैं, जो आज की कंक्रीट नालियों से भी अच्छी हैं। एक 4 मंजिला इमारत के बराबर ऊँचा भवन है, जो 20 हजार टन का एक ही स्टोन-ब्लाक है और उल्टा खड़ा किया लगता है। इस भवन से 800 मीटर दूरी पर पत्थरों को पिघलाकर एक प्रकोष्ठ बनाया गया है। पत्थर अत्युच्च ताप-ऊर्जा से ही पिघल सकते हैं? इसे पैदा करने की विधि उन्हें कैसे ज्ञात थी?

तात्पर्य यही कि विकासवाद की स्थापना के विरोध में इतने सारे प्रमाण मिलते हैं कि इसकी धज्जियाँ उड़ती हैं। यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वज जीवन के सभी क्षेत्रों में हम से अधिक विकसित थे। हाँ, अनास्था में जरूर पिछड़े थे। सम्भवतः किसी भयंकर युद्ध में या जल प्रलय, हिमप्रलय, भूस्खलन आदि की चपेट में वे संस्कृतियाँ और उनका इतिहास नष्ट-भ्रष्ट अवश्य हो गया है, पर बचे अवशेष भी इस बात को प्रमाणित करते हैं कि वे अति समर्थ पूर्व पुरुष आध्यात्मिक सिद्धान्तों का दैनंदिन जीवन में परिपालन करते थे। उनकी आध्यात्मिक क्षमताएँ अति विकसित थीं। इस पर भी आत्म विज्ञान को रूढ़िवाद कहना और पदार्थ विज्ञान के वर्तमान विकास को मानवीय इतिहास में अभूतपूर्व बताना तथ्यों से आँखें चुराना और वैज्ञानिक प्रतिपादन के नाम पर यों ही तीर-तुक्का चलाना है। साक्ष्यों और अनुभवों का तकाजा है कि इस तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त हुआ जाय और अपने दृष्टिकोण में पूर्वजों द्वारा निर्दिष्ट आध्यात्मिकता का समावेश किया जाय, तभी जीवन में आनन्द उल्लास का नव-संचार हो सकेगा।


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