जीवन की सार्थकता समृद्धि में नहीं है!

November 1979

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प्रकृति ने अपने भंडार में वे सभी वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कर रखी हैं जिनकी जीवन निर्वाह के लिये आवश्यकता है। जो वस्तु जितनी अधिक आवश्यक है, वह उतनी ही सरलता से सुलभ है। उदाहरण के लिए मनुष्य और अन्य जीवधारियों को जीने के लिए साँस लेना सबसे अधिक आवश्यक है। साँस लेने के लिए प्रकृति द्वारा वायु का सबसे बड़ा भंडार उपलब्ध है। इसके बाद संभवतः पानी की आवश्यकता सबसे ज्यादा पड़ती है तो वायु के बाद पानी सर्वाधिक सरलतापूर्वक उपलब्ध है। उसे थोड़े बहुत प्रयत्नों द्वारा हर कहीं सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। वायु तथा जल के बाद अन्न सबसे अधिक आवश्यक है उसे भी मनुष्य परिश्रमपूर्वक आवश्यक ही नहीं पर्याप्त मात्रा में उगा सकता है। धरती माता में इतनी पोषक और उर्वरा शक्ति विद्यमान है कि वह एक दाने के हजार दाने बनाकर मनुष्य को वापस लौटा देती है। उसी प्रकार वह पहनने के लिए वस्त्र, भोजन बनाने के लिए ईंधन आदि भी प्रकृति से ही प्राप्त करता है। औषधियाँ, लोहा, इमारती लकड़ी, मकान के लिए मिट्टी और मिट्टी से बनी ईंटें, पत्थर, धातु, लोहा, ताँबा, सोना आदि वस्तुएँ भी धरती माता की कृपा से ही प्राप्त हो जाती हैं। इनमें जो वस्तुएँ जितनी कम मात्रा में आवश्यक होती हैं वे उतनी ही दुर्लभता से मिलती हैं।

जीवन की सामान्य आवश्यकताएँ साधारण प्रयत्नों से पूरी हो जाती हैं। प्रकृति ने ये सारी वस्तुएँ इतनी आसानी से इसलिये उपलब्ध करा रखी हैं कि उसकी संतानों को जीवन निर्वाह में कोई कष्ट या असुविधा न हो और वह सरलतापूर्वक अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए अपना विकास कर सके। वत्सल और ममत्व से परिपूर्ण हृदय वाले माता-पिता जिस प्रकार अपने बच्चों की निर्वाह सम्बन्धी आवश्यकताएँ जुटाते हैं उन्हें इस ओर से निश्चिंत रखते हुए पढ़ने लिखने योग्य बनने और क्षमताओं को विकसित होने देने की व्यवस्था बनाते हैं प्रकृति भी बहुत कुछ ऐसी ही व्यवस्था अपनी संतान के लिए करती है। यह बात और है कि मनुष्य और अन्य प्राणियों को निर्वाह के लिए परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम का स्वरूप भले ही दूसरा रहता हो पर माता पिता के सान्निध्य में रहते हुए भी बच्चों को खाने पीने तथा पहनने ओढ़ने के लिए थोड़ा बहुत प्रयास तो करना ही पड़ता है।

प्रकृति ने जिस उद्देश्य से मनुष्य के लिए आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध करने की व्यवस्था जुटाई है, वह है मनुष्य का नैतिक, बौद्धिक और आत्मिक स्तर का विकास, उन्नयन तथा उच्च स्थिति में आरोहण। लेकिन आज कल आमतौर पर यही समझा जाता है कि आत्यंतिक समृद्धि ही सर्वतोमुखी उन्नति और शाँति का मूल आधार है। उस आधार पर ही व्यक्ति और समाज की आँतरिक स्थिति तथा बाह्य व्यवस्था स्थिर प्रगतिशील और उन्नति बनाती है।

समृद्धि बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना कोई बुरी बात नहीं है। एक प्रकार से वह मनुष्य की श्रमशीलता का पुरस्कार है। लेकिन समृद्धि के प्रति आत्यंतिक आग्रह मनुष्य को अपने स्वभाव से ही विचलित कर देता है। इस दृष्टि से समृद्धि के प्रति एकाँगी आग्रह मनुष्य को व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से पतन की ओर धकेलता है इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध विचारक ई॰एफ॰ शूमाकर ने लिखा है आत्यंतिक समृद्धि से सर्वतोमुखी की धारणा मनुष्य को दो प्रकार से क्षति पहुँचाती है। पहला तो यह कि इस धारणा ने शाँति को और प्रगति के लिए त्याग अथवा शाँति को अनावश्यक घोषित कर दिया है और दूसरा यह कि जिस विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास हमने आज कर लिया है उस के कारण असमानता और शोषण की परंपरा बलवती होती जा रही है।

तथ्यों के संदर्भ में शूमाकर के इस प्रतिपादन को देखते हैं तो इसमें रत्ती भर भी अतिरंजना नहीं दिखाई देती है। एक बार किसी वस्तु विषय या लक्ष्य की उपयोगिता समझ ली जाय, भले ही वह अनुचित हो तो भी मनुष्य पूरी लगन और निष्ठा के साथ उसे प्राप्त करने में लग जाता है। समृद्धि को सबसे मूल्यवान समझ लेने पर भी यही होता है। उसके लिये ललक उत्पन्न होने पर नैतिक मूल्य समृद्धि के मार्ग में रुकावट लगने लगती है। उदाहरण के लिए ईमानदारी से मेहनत करने पर लग सकता है कि उसके सत्परिणाम विलम्ब से मिलेंगे। जल्दी लाभ उठाने या अधिक मुनाफा कमाने के लिए मनुष्य बेईमानी से लेकर अन्य तरह के अनैतिक उपाय अपनाता है।

उपार्जन में अनीति का उपयोग किया जाता है तो स्वाभाविक है कि अर्जित धन भी इसी तरह की अमंगलकारी दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ाता है। परिश्रम, ईमानदारी और नीतिपूर्वक कमाई गई संपत्ति को अनुचित ढंग से अपव्यय करने का साहस नहीं होता लेकिन जिस सम्पत्ति को कमाने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी, या जो मेहनत से अधिक प्राप्त हो गई हैं उसका दुरुपयोग हो सकेगा इस की कम ही संभावना रहती है। उससे दूसरे लोगों को अपने लाभ के लिए खरीदना या उनके नैतिक मूल्यों का सौदा करना व्यभिचार, नशेबाजी, महंगे शौक दुर्व्यसन, विलासिता आदि कई प्रकार की अनय प्रवृत्तियाँ अपनाई जाने लगती हैं। जिनके पास इस तरह के साधन होते हैं वे तो बड़े मजे से यह भले बुरे काम कर लेते हैं, लेकिन जिनके पास इस तरह की साधन सुविधाएँ नहीं होतीं वे भी सम्पन्न व्यक्तियों की देखा देखी उनकी तरह नकल करना चाहते हैं। इस योग्य स्थिति तो होती नहीं परन्तु अपने से ऊँची आर्थिक स्थिति के लोगों जैसे रहने की ललक उन्हें और भी जोर से अनीति के मार्ग पर धकेलती है। इस प्रकार समृद्धि को ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य या जीवन दर्शन बना लेना व्यक्ति में गिरावट तथा समाज में अव्यवस्था ही पनपाता है।

इस तथ्य की ओर इंगित करते हुए शूमाकर ने अपनी पुस्तक ‘स्माल’ इजव्यूर्रा में लिखा है, आधुनिक व्यवस्था लोभ की प्रबल वासना से संचारित है तथा ईर्ष्या से ओत प्रोत है। स्वाभाविक ही समृद्धि और केवल समृद्धि को ही एकमात्र जीवन लक्ष्य मान लेना तो लोभ की प्रवृत्ति को ही पनपाता है। अब यह तो सम्भव नहीं है कि सभी लोग समान रूप से साधन सम्पन्न हो जायें या समृद्ध हों। विज्ञान की कृपा से अनेकानेक यंत्र निर्मित हुए हैं जो थोड़े समय में प्रचुर उत्पादन करते हैं। सौ आदमियों का काम संभालने वाली एक मशीन बाकी निन्यानवे व्यक्तियों को बेकार बनाती और उन निन्यानवे व्यक्तियों को बेकार बनाती और उन निन्यानवे व्यक्तियों द्वारा संभावित उपार्जन भी एक मालिक के पास चला जाता है।

मशीनों और यंत्रों से थोड़े समय में अधिक उत्पादन होता है यह ठीक है पर यह भी सही है कि अधिक व्यक्तियों द्वारा हो सकने वाला उपार्जन थोड़े व्यक्तियों के पास चला जाता है। परिणाम यह होता है कि कुछ लोग जा मालदार और धन सम्पन्न होते हैं, मशीनें लगा सकते हैं, उद्योग धन्धे और कल कारखाने खोल सकते हैं, दिनों दिन और अधिक सम्पन्न होते जाते हैं तथा जिनके पास थोड़े साधन होते हैं, वे और साधन हीन, निर्धन होते जाते हैं। यह व्यवस्था विषमता की खाई को ही बढ़ाती है।

यह भी स्वाभाविक ही होगा कि जो लोग निर्धन और साधनहीन होते जाते हैं, उन्हें धनवानों और साधन संपन्नों से ईर्ष्या होगी। परिणामस्वरूप समाज में कलह का वातावरण बनता है। समृद्धि को ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मान लेना अन्ततः अनीति, अमंगल, अव्यवस्था और कलह को ही जन्म देना है। इसलिए आवश्यक है कि साधन वृद्धि की आवश्यकता को एक निश्चित स्तर तक ही सीमित रखा जाय। महात्मा गाँधी ने भी औद्योगीकरण और यंत्रीकरण को उतना ही आवश्यक माना था जितने से कि मनुष्य का जीवन और सरल बने। यंत्रीकरण बुरा भी नहीं है, बुरा उस स्थिति में है जब समृद्धि ही जीवन दर्शन बन जाय। साधन सुविधायें भले ही बढ़ाई जाय पर उन का उपयोग वैभव विलास, बड़प्पन की धाक जमाने और दूसरों को छोटा सिद्ध करने के लिए नहीं किया जाय। इस तथ्य और सत्य को पूरी तरह स्वीकार तथा अंगीकार किया जाना चाहिए कि जीवन साधनों के लिए नहीं है बल्कि साधन सुविधाएँ जीवन के लिए हैं। जीवन सर्वोच्च और सर्वाधिक मूल्यवान है तथा उसकी सार्थकता आत्मिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास एवं ऊपर उठाने में ही है। इसलिए आदर्शों और नैतिक मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए ही किसी क्षेत्र विशेष में प्रवेश और प्रगति के प्रयास करने चाहिए।


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