उपासना से आत्मशोधन एवं आत्म परिष्कार

November 1979

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नित्यकर्म में उपासना का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। नित्य कर्मों में ग्रहण और विसर्जन की दो प्रक्रियायें सम्मिलित हैं। अन्न, जल, वायु आदि शरीर ग्रहण करता है और मल, मूत्र, पसीना, साँस आदि विसर्जित करता है। इनके प्रबन्ध को नित्य कर्म कहते हैं। शरीर यात्रा के लिए यह सब अनिवार्य रूप से आवश्यक है। आत्मा की भी आवश्यकतायें शरीर की तरह ही हैं। उनके लिए भी कुछ नित्य कर्म करने होते हैं। न करने पर अन्तरात्मा को भूख रहने से दुर्बल बनना पड़ता है। मल-विसर्जन न होने पर उस विकृत संजय की सड़न-से उत्पन्न विषाक्तता रुग्णता के रूप में परिणित होती है। नित्यकर्मों में व्यतिरेक उत्पन्न होने से शरीर का स्वास्थ्य संतुलन बिगड़ता है। इसी प्रकार आत्मा की आवश्यकतायें पूरी न होने पर मानसिक रुग्णता और आत्मिक मलीनता बढ़ने लगती है।

ईश्वर का अंश होने के कारण जीवात्मा अपने मूल उद्गम से ही अपनी महत्वपूर्ण आवश्यकतायें पूरी करता है। जलाशय की सम्पदा बादल के अनुदान पर निर्भर रहती है। धरती पर जितनी भी जिस स्वरूप में भी गर्मी है वह सूर्य की सम्पदा है। इसी प्रकार व्यक्ति चेतना न केवल विश्व चेतना का एक घटक है वरन विशिष्ट उपलब्धियों के लिए उसे परब्रह्म के भण्डार से कुछ प्राप्त करना पड़ता है। उपासना इसी आदान-प्रदान का द्वार खोलती है। रिजर्व बैंक में जारी की गई नोट मुद्रा ही सर्वत्र फैली पड़ी है। यों लोगों के पास अपना-अपना धन भी होता है पर यदि उसका सम्बन्ध रिजर्व बैंक से न रह जाय तो बड़े नोट भी कानी-कौड़ी मोल के रह जाते हैं। जाली नोटों की नहीं, उन्हें रखने वाले की भी दुर्गति होती है। ईश्वरीय सत्ता के साथ जीवसत्ता की सघनता जोड़ने और आदान-प्रदान का द्वार खोलने के लिए उपासना को प्रमुख माध्यम माना गया है। उपासना न करने से ईश्वर का तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं पर मनुष्य को वैसे ही लाभ से वंचित रहना पड़ता है जैसा कि शुद्ध वायु प्राप्त न कराने पर शरीर को। पानी न पीने पर वरुण देवता की कोई क्षति नहीं। धूप सेवन न करने से सूर्य का कोई हर्ज नहीं। बिजली का उपयोग न करने से इन्द्र को कोई नाराजी नहीं। प्रयोक्ता को ही उनके लाभ अनुदानों से वंचित रहना पड़ता है।

नित्य कर्म में स्नान, कपड़े धोना, दाँत माँजना, बुहारी लगाना आदि कृत्यों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि भीतर से निकलने और बाहर से बरसने वाली गन्दगी का नियमित रूप से परिमार्जन होता रहे। मन पर भी आन्तरिक कुसंस्कारों और बाह्य अनाचरणों से मलीनता की छाप पड़ती और बढ़ती है। उपासना से उनका नित्य-नियमित परिमार्जन होता है और विघातक विकृतियों के कारण होने वाला पतन और पराभव रुक जाता है। उपासना का लाभ मिले बिना नहीं रहता। अग्नि, बर्फ, सुगन्ध आदि की समीपता का प्रभाव तत्काल देखा जा सकता है। कुसंग-सत्संग का प्रभाव सर्वविदित है। ईश्वर की समीपता प्राप्त करने के लिए की गई उपासना यदि सच्चे मन और सही उद्देश्य के लिए की गई है तो उसका प्रभाव लोह पारस के स्पर्श से स्वर्ण बनने जैसा सत्परिणाम सामने लाता है। उपासक को उपास्य की विशेषताओं और विभूतियों का लाभ मिलता है और वह क्रमशः अधिकाधिक समुन्नत होता चला जाता है। दो तालाबों को नाली खोद कर आपस में मिला दिया जाय तो कम पानी वाले तालाब की सतह उठने लगती है और उतनी बड़े तालाब के बराबर जा पहुँचती है। उपासक के अन्तराल का स्तर ऊँचा उठाने में असाधारण सहायता करती है। ऐसे-ऐसे अनेकानेक सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए उपासना को चेतना क्षेत्र का नित्य कर्म माना गया है और उसकी उपेक्षा करने वालों की शास्त्रकारों द्वारा भर्त्सना की गई है।


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