स्थूल से भी अधिक चिरंजीवी सूक्ष्म

November 1979

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भारतीय दर्शन में आत्मा और शरीर को देह तथा आवरण की संज्ञा देकर पृथक अस्तित्व माना गया है। विश्वास किया जाता है कि देहावसान होने के बाद जीवात्मा कुछ समय तक विश्राम करती है और फिर कर्मफल भोगने के लिए नया जीवन, जन्म ग्रहण करती है। इस विश्वास की पुष्टि में अनेकानेक प्रमाण आये दिन मिलते रहते हैं। पुनर्जन्म की स्मृतियाँ, प्रेतात्माओं का अस्तित्व तथा बहुत छोटी अवस्था में असाधारण प्रतिभा का परिचय देने वाली घटनाओं से मरणोत्तर जीवन की सहज ही पुष्टि होती रहती है। इस तथ्य को प्रमाणित करने वाला एक और पक्ष भी है, वह यह कि जीव सत्ता अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा मरणोपरान्त ऐसी स्वतन्त्र इकाई खड़ी करती है मानो कोई दीर्घजीवी प्रेत ही बन कर खड़ा हो गया हो।

इन अति प्रचण्ड शक्ति संपन्न आत्माओं का समय समय पर परिचय मिलता रहता है। लोग इन्हें पितर नाम से देवस्तर की संज्ञा देकर पूजते पाये जाते हैं। यह आत्माएँ अपने अस्तित्व का प्रमाण इस ढंग से देती हैं कि उसे देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है।

ऐसे प्रसंग भी देखने में आए हैं जिनमें हजारों वर्ष पुरानी आत्माएँ अपनी सूक्ष्म देह द्वारा अशरीरी अस्तित्व बनाये रहती हैं। इन तथ्यों के प्रकाश में आने पर प्रेत विद्या में विश्वास रखने वाले उन लोगों को भी आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है जो प्रेत योनि को अल्पकालीन मानते हैं। उन्हें भी इस वर्ग के प्रेतों का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ रहा है तथा यह मानना पड़ रहा है कि आत्मा की शक्ति की कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की जा सकती। वह अपनी प्रचण्ड शक्ति का परिचय बिना शरीर धारण किये भी अनिश्चित काल तक देती रह सकती है।

सन् 1932 में लन्दन की यूनिवर्सल न्यूज एजेन्सी ने लार्ड वेस्टवुरी का समाचार एक विस्तृत टिप्पणी के साथ प्रकाशित कराया। इस टिप्पणी में लिखा गया था कि अब यह बात अक्षरशः सत्य सिद्ध हो चुकी है कि कोई फीरोन बादशाहों की कब्र खोद कर ममी के अंग अथवा उसकी अन्य कोई चीज निकालने की चेष्टा करेगा उसकी भयावह दुर्गति होगी। उस क्षेत्र में बने हुए पिरामिडों में मिश्र के प्राचीन राजपुरुषों के मृत शरीर ऐसे मसालों से पोत कर रख गये हैं कि वे हजारों वर्षों तक सुरक्षित रह सकें। प्राचीन काल में इन पिरामिडों में सुरक्षित रह सकें। प्राचीन काल में इन पिरामिडों में सुरक्षित दफनाये गये राजाओं अथवा श्रीमन्त सरदारों के शव के साथ उनके उपयोग की प्रिय वस्तुएँ भी गाढ़ दी जाती थीं। इन प्रिय वस्तुओं में न केवल बहुमूल्य बर्तन, वस्त्र, शस्त्र आदि चीजें होती थीं वरन् स्त्रियों को भी शव के साथ जीवित ही गाड़ दिया जाता था।

लार्ड वेस्टबुरी ने पिरामिडों के इन कौतूहल पूर्ण कृत्यों पर अधिक प्रकाश डालने के उद्देश्य से मिश्र जाकर पिरामिडों की खुदाई करने का निश्चय किया। इस खुदाई का एक उद्देश्य ऐतिहासिक सामग्री और उस समय की सभ्यता संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करना भी था। लार्ड वेस्टबुरी के साथ उनके अन्य कई सहयोगी भी इस खोज यात्रा उनके अन्य कई सहयोगी भी इस खोज यात्रा में शामिल हुए। ‘टुर अंख अमेन’ की एक कब्र खोदी गई तो उसमें से वाँछित सामग्री बड़ी मात्रा में निकली। इससे खोजियों का उत्साह बढ़ा और वे अन्य कब्रों की खुदाई के लिए भी प्रोत्साहित हुए। इंग्लैण्ड के एक विख्यात धनपति लार्ड कारनारवान ने इस अभियान का सारा खर्च स्वयं उठाने की पेशकश की। लार्ड रिचार्ड वेथल ने भी इस कार्य में गहन अभिरुचि दर्शाई ओर जितनी कब्रें खोदी गईं उनमें से प्रायः प्रत्येक में से बड़ी मात्रा में ऐसी वस्तुएँ प्राप्त हुईं, जिनके आधार पर पिरामिडों के निर्माण सम्बन्धी रहस्यों पर प्रकाश डालना संभव हो सका। ब्रिटेन के अधिकाँश समाचारों ने इस अभियान की प्रगति और उपलब्धियों के समाचार प्रकाशित किये तथा पत्र पत्रिकाओं ने शोध सामग्री के आधार पर पिरामिड कालीन मान्यताओं पर विस्तृत लेख छापे एवं इतिहास के उन अज्ञात पृष्ठों पर प्रकाश डालने वाले प्रयासों के लिए खुदाई करने वालों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

लेकिन इस अभियान का एक दुखद पहलू भी है। वह यह कि अभियान में भाग लेने वाले अधिकाँश व्यक्तियों को अपना शेष जीवन बड़ी कष्ट कर तथा भयंकर परिस्थितियों में व्यतीत करना पड़ा। उन्हें एक से एक भयंकर घटनाओं का इस तरह सामना करना पड़ा कि उन्हें किसी अदृश्य शक्ति की कोपलीला ही कहा जा सकता है। कुछ की रहस्यमय परिस्थितियों में बड़े विचित्र ढंग से मृत्यु हुई, कुछ ने आत्महत्याएँ कीं, कुछ लोग दुर्घटनाओं के शिकार होकर अकाल मृत्यु के ग्रास बने। लार्ड वेस्टपुरी, जो इस अभियान का नेतृत्व कर रहे थे, एक दिन सैंट जेम्स पैलेस के सात तल्ले पर चढ़कर कूद गये और उन्होंने आत्महत्या कर ली। इस आत्महत्या की पृष्ठभूमि में ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे मन मस्तिष्क पर कोई बहुत बड़ा आघात तो क्या हल्की सी ठेस भी पहुँचे।

खुदाई अभियान में लगे अन्य लोग भी इसी प्रकार मरे थे। जीवन भर दुखी रहे। कुछ यह अनुभव करते रहे कि उन्हें कोई प्रेतात्मा आ कर डराती तथा हैरान करती है। कइयों को प्राण घातक विपत्तियों का सामना करना पड़ा और मरते-मरते बचे। कुछ डर के मारे विक्षिप्त स्थिति तक जा पहुँचे, दुर्दशा ग्रस्त होकर मरे। लार्ड वेस्टपुरी ने जब सेंट जेम्स पैलेस के सातवें तल्ले से छलाँग लगाकर आत्म हत्या कर ली तो उनकी मृत्यु का समाचार जिस टिप्पणी के साथ छपा था, उसमें इन दुर्घटनाओं का संक्षिप्त किन्तु दिल दहला देने वाला वर्णन था। स्मरणीय है कि मिश्र के पिरामिडों का निर्माण ईसा से कई शताब्दियों पूर्व हुआ था। उस समय के प्रेत हजारों वर्ष तक कैसे जीवित हैं, यह अचम्भे की बात है।

प्रतिशोध के लिए एक हजार वर्ष तक प्रेतयोनि में रहकर अपने शत्रु की प्रतीक्षा करने वाले एक मुसलमान पीर सुलेमान का विवरण कल्याण के 1969 के वार्षिक अंक में छपा था। वह प्रेत ईरान के रहने वाले एक मुसलमान का था जो नादिरशाह अब्दाली के साथ लूट खसोट के लिए भारत आया था। नादिरशाह तो लूट कर अपने मुल्क वापस चला गया पर सुलेमान यहीं रह गया। सहारनपुर के पास मुगल खेड़ा गाँव में उसने शादी भी कर ली और इस शादी से उसके चार बच्चे हुए। इनमें से दो लड़के थे और दो लड़कियाँ जिस स्थान पर सुलेमान रहता था, उसके पास ही एक ढोंगी तपस्वी भी रहा करता था वह गंड़े, ताबीज, तन्त्र-मन्त्र, झाड़-फूँक आदि का काम किया करता था। उस तपस्वी ने सुलेमान की जवान लड़की से अवैध सम्बन्ध स्थापित कर लिया। इस का पता चलने पर सुलेमान ने तपस्वी को काफी समझाया बुझाया सरकारी अधिकारियों से भी हस्तक्षेप करने का आग्रह किया पर उसे कोई सफलता नहीं मिली। सुलेमान की लड़की और उस तपस्वी में अवैध यौनाचार यथावत जारी रहा। इससे सुलेमान को काफी ठेस पहुँची और वह इसी गम में घुल-घुल कर मर गया। दुखी रहने और मर जाने की बात सोचते-सोचते सुलेमान मन में यह भी विचार करता रहा कि चाहे जो हो वह इसका बदला जरूर लेगा।

मरने के बाद वह प्रेत बनकर उसी गाँव में उसी स्थान पर पेड़ के ऊपर रहने लगा जहाँ कि उसे दफनाया गया था। कालान्तर में लोगों ने उसकी कब्र को मजार का रूप दे दिया और पूजा करने तथा मनौती मानने के लिए आने लगे। पीर सुलेमान आने वाले सब लोगों को देखता था पर उनमें वह व्यक्ति सैकड़ों साल बीत जाने पर भी नहीं दिखाई दिया, जिससे उसको प्रतिशोध लेना था। करीब एक हजार वर्ष पूरे होने के बाद वह तपस्वी दिखाई दिया। जिसने पीर सुलेमान की लड़की से अनुचित सम्बन्ध स्थापित किया था। वह एक सिख परिवार में जन्मा था और युवक ही था। पीर सुलेमान ने उस की आत्मा को पहचान लिया और सात वर्षों तक उसे खूब सताया। बाद में एक सन्त ने उस युवक को पीर सुलेमान से छुटकारा दिलाया तथा पीर सुलेमान को भी प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाई।

इस तरह की सैकड़ों घटनाएँ हैं जिनमें मनुष्य का अशरीरी अस्तित्व हजारों वर्षों तक बने रहने के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रकार की सूक्ष्म सत्ताओं के प्रमाण जहाँ भी मिलते हैं, वहाँ इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य की संकल्प शक्ति और प्राणशक्ति में आत्मा नहीं बल्कि उसकी किरणें मात्र हैं। पर उनमें भी इतनी सामर्थ्य होती है कि वे अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व खड़ा कर के मूल आत्मा की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती रहे।

लेकिन इसी क्रम में एक और आश्चर्य की बात है कि जड़ पदार्थों से बनी ऐसी वस्तुएँ जिनका जीवित मनुष्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा हो, वे भी अपना प्रेत अस्तित्व बना लेती हैं। और मूल पदार्थ के नष्ट हो जाने पर भी उसी प्रकार अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं, जिस प्रकार कि मरने के बाद मनुष्य अपना परिचय प्रेत के रूप में प्रस्तुत करते हैं। समुद्री इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंगों के उल्लेख हैं, जिनमें सामने से आते हुए जहाज के साथ संभावित टक्कर से बचाने के ला मल्लाहों ने अपनी नाव या पाल वाले जहाज इतनी तेजी से मोड़े कि उस प्रयास में वह नाव अथवा जहाज उलट कर नष्ट हो गये। इस तरह की कई घटनाएँ घटीं और उनमें से जो थोड़े बहुत लोग बच सके उन्होंने बाद में बताया कि यह सब बहुत ही आश्चर्य जनक ढंग से होता था। सामने से आता हुआ दिखाई देने वाला जहाज जिसकी टक्कर से बचने के लिए मल्लाह आतुरतापूर्वक प्रयत्न कर रहे थे। वह कहाँ से आया, अचानक कैसे सामने प्रकट हो गया उसके चालक उसे बचा क्यों नहीं रहे थे आदि प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिल रहा था और न ही ऐसे जहाज का अस्तित्व सिद्ध हो रहा था। यह मान लिया गया कि संभवतः वह मल्लाहों की आँखों का भ्रम था, वस्तुतः दुर्घटनाओं के समय उस प्रकार का कोई जहाज नहीं हुआ करता था।

जब इस तरह की घटनाएँ बहुत होने लगीं तो जाँच कमेटियाँ बिठाई गईं। इन कमेटियों में डूबने वाले और न डूबने वाले जहाजों के यात्रियों तथा मल्लाहों की ऐसी अनेक गवाहियाँ हैं जिन्होंने समुद्र की सतह पर ऐसे जहाज देखे जिनका अस्तित्व प्रमाणित नहीं किया जा सका। रिपोर्टों में उसे भ्रम बताकर जाँच पर पर्दा डाल दिया गया पर उन मल्लाहों और यात्रियों का समाधान न हो सका जिनने अपनी आँखों से यह सब देखा था। भ्रम तो एक दो को हो सकता था, सारे मल्लाह और सारे यात्री एक ही तरह का दृश्य देखें यह कैसे सम्भव था। अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि डूबे हुए जहाजों में से कुछ के प्रेत अपने जीवन काल की आकृति में समुद्र तल पर भ्रमण करते रहते हैं। यह उनका सूक्ष्म शरीर होता है। जिसमें ठोस तत्व तो नहीं होते लेकिन उनकी छाया आकृति ठीक वैसी ही होती है जैसी कि उनके जीवित काल में थी।

डूबे हुए जहाजों के प्रेत होते हैं, इस मान्यता का पहले मजाक ही उड़ाया गया, पर पीछे उनके प्रमाण इतने ज्यादा मिलने लगे कि इस मान्यता को एक शोध का विषय बनाना पड़ा। अभी भी डूबे हुए जलयानों में से कई प्रेत के रूप में जीवित हैं। यह किसी प्रामाणिक कसौटी पर तो सिद्ध नहीं हो सका है लेकिन शोधकर्ताओं को विश्वास है कि उपलब्ध प्रमाण या साधन अपर्याप्त हैं और भविष्य में कई ऐसे उपकरण या सिद्धान्त निकल सकते हैं जो इन बहुचर्चित प्रेतों के बारे में कोई संतोष जनक तथ्य प्रस्तुत कर सकें।

जो भी हो इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि अस्तित्व के रूप में प्रतिभासित होने वाली वस्तुओं का केवल उतना ही स्वरूप नहीं होता जितना कि वह दिखाई देता है बल्कि उसका सूक्ष्म और कारण अस्तित्व भी होता है। भारतीय मनीषियों ने प्रत्येक प्राणी तथा पदार्थ के तीन स्तर माने हैं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल वह स्तर है जो दृश्यमान होता है, सूक्ष्म में उसकी शक्ति निहित रहती है जो उसे जीवित और सक्रिय बनाये रहती हैं तथा कारण स्तर जड़ या बीज के समान होता है। चेतना अविनाशी है, और इसी कारण जड़ वस्तुएँ भी नष्ट हो जाने के बाद कभी कभी अपने सूक्ष्म स्वरूप का परिचय देती हैं, तो इसे असम्भव नहीं मानना चाहिए। स्थूल के नष्ट हो जाने पर भी प्राणी या पदार्थ का सूक्ष्म अस्तित्व बना रहता है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि जो दिखाई देता है वहीं सच नहीं है अपितु उससे भी बड़ी एक दुनिया अविज्ञात और रहस्यमय है। यदि विज्ञान के क्षेत्र में एक नई किन्तु अति महत्वपूर्ण कड़ी जुड़ सकती है।


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