सत्य भाषण को अध्यात्म साधना का एक अंग कहा जाता है। एक अंग ही नहीं आत्म निर्माण का प्रथम और अनिवार्य चरण भी। साधारण से साधारण और अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति से भी धर्म का अर्थ पूछा जाय तो वह सर्व प्रथम सत्य बोलने की ही शिक्षा देते हैं। स्कूल के अध्यापक भी अपने छात्रों को ‘सत्यं वद’ का उपदेश देते हैं। कोई भी संत महात्मा अपने धार्मिक प्रवचनों में सत्य भाषण की महिमा सर्व प्रथम गाते हैं। विश्व के विचारवान व्यक्तियों, विद्वानों, महात्माओं और उपदेशकों से लेकर सामान्य व्यक्ति तक ने जितना महत्वपूर्ण बतलाया है, उतना शायद ही अन्य किसी सदाचरण को बताया है।
किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है और वह है कितने व्यक्ति सत्यव्रती होते हैं। झूठ बोलने की बुराई सभी करते हैं किन्तु उतने ही ज्यादा लोग अपनी जीभ पर इस कुटेव को बिठाये हुए हैं। यह विडंबना ही कही जायेगी कि झूठ बोलने को एक बुरी आदत कह कर उसे अवाँछनीय और अनैतिक बता कर ही कितने ही लोग सत्य भाषण का व्रत सध गया मान लेते हैं। सत्य भाषण की जितनी प्रशंसा की जाती है लगभग उतनी ही झूठ बोलने को आदत लोगों के स्वभाव का अंग बनी है। बेईमान, चोर, अवसरवादी, दुर्व्यसनी, नशेबाज, अनैतिक आचरण करने की दुष्प्रवृत्तियाँ जितनी हैं उन सबको मिलाकर भी झूठ बोलने की आदत वालों की संख्या से अधिक नहीं हैं।
और यह भी एक तथ्य है तो अधिकाँशतः झूठ बोलने की आदत ही व्यक्ति को अन्य दुष्प्रवृत्तियों की ओर ले जाती है। बच्चा सर्व प्रथम यदि कोई दुर्गुण सीखता है तो वह है झूठ बोलना। कई ऐसी बातें हैं जिन्हें स्पष्ट बताने में बच्चा डरता है। बाहर शैतानी करने की शिकायत आने पर पिटने के डर से बच्चा झूठ बोलेगा, या कोई नुकसान कर देने पर धमकाये जाने के भय से झूठ बोलेगा। जो भी कारण हो, बच्चे में अन्य दुर्गुण जब प्रवेश करते हैं तो उनका प्रवेश द्वार झूठ बोलना ही बनता है। इसमें वह अपनी सुरक्षा समझने लगता है कि झूठ बोल दिया तो पिताजी की नाराजगी से बच जायेगा। आरम्भ में तो माता पिता भी इस ओर कोई ध्यान नहीं देते, पर जब लड़का बड़ी गलतियाँ करता है और झूठ बोलकर अपना बचाव भी तो अन्य दुर्गुण बड़ी तेजी से बढ़ते हैं।
बड़े वयस्क व्यक्ति भी सुरक्षा की दृष्टि से झूठ बोलना सीखते हैं या उसे अपने स्वभाव का अंग बना लेते हैं। प्रारम्भिक रूप में झूठ बोलने की इतनी हानियाँ दिखाई भी नहीं देतीं। क्योंकि सामान्य व्यवहार में उसकी कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं दिखाई देती। लेकिन जब इस आदत के परिणामस्वरूप बड़ी हानियाँ होती हैं तो निश्चित ही पश्चाताप होता है। देर से आफिस पहुँचने वाला कर्मचारी कभी बस न मिलने या कभी बच्चे की तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर अपना बचाव कर लेता है। लेकिन बार बार के बहाने सुनकर जब अधिकारियों का विश्वास उठ जाता है या सन्देह होने लगता है तो संयोग से कदाचित असली कारण होने पर भी विश्वास नहीं टूटता। साथियों सहयोगियों का विश्वास खोकर व्यक्ति की स्थिति उस ग्वाले की सी हो जाती है जो भेड़िया आया! भेड़िया आया!! चिल्लाकर गाँव वालों को इकट्ठा कर लिया करता था और झूठ मूँठ ही उन्हें हैरान कर देता। रोज की बात होने के कारण गाँव वालों ने जाना छोड़ दिया तो सचमुच भेड़िया आ जाने और सहायता के लिए चिल्लाने पर भी कोई नहीं आया और उसकी कितनी ही बकरियाँ मारी गयीं।
साथियों सहयोगियों के बीच झूठ बोलने का एक कारण असलियत को छुपा कर रखने की आवश्यकता अनुभव करना भी है। साधारण आमदनी वाले किसी व्यक्ति को कोई खर्चीला दुर्व्यसन लग जाये तो मित्रों से उधार लेकर गुजारा करने का ही रास्ता रह जाता है। अब उनसे तो बताया नहीं जा सकता कि पैसों की जरूरत क्यों आ पड़ी। परिचित व्यक्तियों के सामने झूठ बोलकर बहाना बना कर ही काम चलाना पड़ता है। इसी प्रकार के कोई सज्जन अपनी पत्नी की बीमारी का बहाना बना कर काफी दिनों तक उधार लेते और शराब पीते रहे। असलियत तब खुली जब कैसी बीमारी है यह समझ कर सहानुभूति जताने के लिए मित्रगण उनके घर आये पत्नी को स्वस्थ दशा में देखकर आश्चर्य हुआ और उन सज्जन की पोल भी खुली। आगे से न मित्रों ने उधार दिया और न ही उन्हें उधार माँगने की हिम्मत हुई। कुछ हफ्तों बाद श्रीमती जी सचमुच बीमार हो गयीं, उन्हें मोतीझरा हुआ। ऐसी परिस्थिति में मित्रों से उधार माँगना पड़ा। मित्रों ने उनकी सच्ची बात को भी बहाना मान कर कोई सहायता न की। परिणामस्वरूप समुचित चिकित्सा के अभाव में उनकी गृहिणी चल बसी।
इस प्रकार मित्रों का विश्वास खोकर हम अपनी हानि तो करते ही हैं जिसका देश कभी कभी बड़े बड़े दुष्परिणाम लाता है-हम स्वयं अपना विश्वास भी खो देते हैं। मनोविज्ञान का यह नियम है कि किसी व्यक्ति को बार बार कुछ कहा जाय उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा व्यक्त की जाय उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा व्यक्त की जाय तो बार बार सुनकर अपने सम्बन्ध में भी वह उसी धारणा को दोहराने लगता है। अनृत भाषण करने वाले व्यक्ति दूसरों का विश्वास खो बैठते हैं और उनकी दृष्टि में सदैव संदेहास्पद बने रहते हैं तो यह निश्चित है कि बोलने वाला स्वयं भी अपने प्रति उन्हीं धारणाओं को पुष्ट करने लगे। मित्र-परिचितों का कोई सहयोग न करने के कारण उसे अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक श्रम और अधिक संघर्ष करना पड़ता है। जिसकी तुलना में थोड़ी सफलता मिलती है। जब कि वह अन्य व्यक्तियों को थोड़े से श्रम और थोड़े से संघर्ष के कारण अधिक सफलतायें अर्जित करता हुआ देखता है। फलस्वरूप उसे अपने अयोग्य होने की आशंका सताने लगती है। इस प्रकार उसका स्वयं का भी आत्मविश्वास खत्म होने लगता है।
साथ ही यह बात और भी है कि झूठ बोलने वाला किसी और को धोखा देने में भले ही सफलता प्राप्त कर ले पर अपनी अन्तरात्मा के सामने तो वह उतना ही अपराधी रहता है। सत्य पर सदैव अटल रहने वाला अंतर्मन जब इस प्रवंचना की अनुभूति करता है तो वह निर्बल होगा ही। इस निर्बलता का अनुभव वह व्यक्ति आसानी से कर सकते हैं जो झूठ बोलना आरम्भ करते हैं। पहली बार झूठ बोलते समय अंतरात्मा का विरोध जितना सशक्त होगा उतना सशक्त दूसरी बार झूठ बोलते हुए नहीं रहता। यह क्षीणमना स्थिति बार बार पुनरावृत्ति करते समय बनती चली जाती है और अन्ततः व्यक्ति की अन्तश्चेतना में झूठ बोलने के विरुद्ध जो आवाज उठती है वह लुप्त हो जाती है। दूसरों का विश्वास तोड़ना, आत्मविश्वास खोने के साथ साथ आत्म बल भी क्षीण होने लगता है।
कहा जा चुका है कि सबसे पहला दुर्गुण झूठ बोलने वाला व्यक्ति अपने बचपन में ही सीखता है और नहीं सीखता है तो बड़ा होकर अभ्यास करता है। बचपन में पड़ी हुई झूठ बोलने की आदत थोड़ी सी कड़ाई और वाणी के संयम से छूट सकती है। पर वयस्क होने पर पकड़ी गयी यह आदम मुश्किल से छूटती है क्योंकि तब इसे कोई बड़ा अपराध भी नहीं माना जाता और न ही इतना बुरा क्योंकि तब इसमें कुछ लाभ होता दिखाई देता है।
तत्काल कुछ लाभ होता है। लेकिन इसका कारण यह नहीं मानना चाहिए कि वह झूठ बोलने से हुआ है। क्योंकि झूठ बोलने की बात तो हम जानते हैं, जिससे झूठ कहा गया है वह तो यही समझता है कि कहने वाला सच कह रहा है। अर्थात् झूठ से लाभ इसलिए होता है कि वह सच की आड़ में है। अन्यथा झूठ से लाभ होता तो विचारक मनीषी और ऋषि महर्षि सच को नहीं झूठ को ही सद्गुण मानते। सद्गुण का अर्थ सार्वभौम और सार्वकालिक वे विशेष प्रवृत्तियाँ हैं जो सफलता और लाभ प्रदान करती हैं।
कदाचित अनृतवादी यह घोषित कर दें कि मैं झूठ कह रहा हूँ और झूठी स्थिति यह है तो भी सच छुपता नहीं। सारी चालाकी और होशियारी इसी बात को छुपाने में बरती जाती है कि झूठ पकड़ में न आये। जब सारा ध्यान और मनोयोग झूठ को ही सच साबित करने में लग जाता है तो अन्य दिशाओं में श्रम की शक्ति कम लगती है। एक प्रकार से उधर लापरवाही आ जाती है। लापरवाही से किये गये कामों में असफलता ही मिलेगी। तो सच की ओट में बोले गये झूठ से ही असफलता की संभावना ही अधिक रहती है।
बच्चे बड़ों को देखकर झूठ बोलते हैं तो बड़े लाभकर और होशियारी मानकर झूठ बोलते हैं। यह प्रवृत्ति आदत बन कर जब स्वभाव का अंग बन जाती है तो व्यक्ति बात बात में झूठ बोलने का आदी हो जाता है उसके अन्तर और बाह्य जीवन में तो दो होते ही हैं। रहन सहन परिवार और व्यवहार में भी दोहरा जीवन बन जाता है। झूठे व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी शान बढ़ाने और उच्चस्तरीय सिद्ध करने की ओर उन्मुख होते हैं। उन्हें परिश्रम और पुरुषार्थ द्वारा अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की अपेक्षा झूठ बोलकर शेखी बहाना अधिक आसान लगता है। क्यों कि इसमें न तो कुछ लगता है और न ही माथे पर पसीना आता है। अतः वे घर की स्थिति को छुपाकर उसे बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं। और इस स्थिति को बनाये रखने के लिए इतनी तिकड़में लगाने में अपनी मानसिक शक्ति खर्च करते हैं कि वह यदि सही दिशा में लगायी जाती तो सचमुच जीवन स्तर कुछ तो ऊँचा उठ ही जाता।
झूठ बोलना, असत्य भाषण करना हर दृष्टि से हानिकारक है। साथ ही सत्य भाषण में भी कुछ सावधानियाँ बरती जानी चाहिए। सत्य बोलने का अर्थ यह नहीं है कि सिद्धान्तवादिता का अहंकार हममें आ जाय और अंधे को अंधा कह कर उसे खिजाने लगें अर्थात् ऐसी बातें भी कहने लगें जो सुनने वाले को खिजा कर दें, उसे उद्विग्न बना दें। उपनिषदों ने इस सम्बन्ध में सत्य भाषण की व्याख्या करते हुए कहा है- रुत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् प्रियं (सच बोलो, प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो)।
मिथ्यावादी इस सतर्कता में भी अपनी आदत की पुष्टि कर सकते हैं। लेकिन अप्रिय सत्य न बोलने का अर्थ झूठ बोलना नहीं है। चुप या मौन रह कर भी काम चलाया जा सकता है। कहने का अर्थ यह है कि यह बहाना जो प्रायः किया जाता है-झूठ बोले बिना काम नहीं चलता और आटे में नमक के बराबर तो जरूरी है झूठ। आटे में नमक की दलील तो तब दी जानी चाहिए कि जब उस से कुछ लाभ हो, या उसका कोई औचित्य हो। झूठ से जब सब प्रकार हानि ही हानि है तो आटे में नमक की दलील नहीं आटे में जहर की संगत बैठती है।
झूठ बोलने के व्यापक दोष से हमारा समूचा जीवन प्रभावित होता है और उसका विष सारे व्यक्तित्व को ही विषैला बना देता है। यहाँ तक कि विदेशों से आने वाले पर्यटक भी जब देखते हैं कि हरिश्चन्द्र बुद्ध और गाँधी के वंशज हम कदम कदम पर झूठ बोलते हैं तो वे हमारे बारे में क्या धारणा लेकर जाते हैं। इस दुर्व्यसन को राष्ट्रीय स्वाभिमान पर व्यक्तिगत आत्म गौरव पर धब्बा मान कर तत्काल छोड़ देना ही श्रेयस्कर है।