सहकारिता और आदान-प्रदान एक ब्रह्माण्ड व्यापी सत्य

November 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सृष्टि चक्र में सर्वत्र अन्योन्याश्रय का सिद्धान्त काम कर रहा है। जड़ चेतन तत्वों से मिलकर बना यह समूचा ब्रह्माण्ड एकता के सुदृढ़ बन्धनों में बंधा हुआ है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी तथा दूसरों पर आश्रित होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बन्ध नहीं सृष्टि की शोभा सुन्दरता का, उसकी विभिन्न हलचलों का तथा उत्पादन विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केन्द्र है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति पदार्थ सम्पदा एवं प्राणी सत्ता को शान्तिपूर्वक रहने और विकसित होने का अवसर दे रही है। अंतर्ग्रही आकर्षण शक्ति से खिंचे-बंधे रह कर ही ग्रह नक्षत्र अपनी-अपनी कक्षाओं और धुरियों पर परिभ्रमण करते हैं। यह तो मोटी जानकारी हुई, वास्तविकता यह है कि ग्रहों के बीच आदान-प्रदान का क्रम इतनी तीव्र गति से चल रहा है कि मानो विनिमय बाजार की धूम मची हुई हो।

उत्तरी ध्रुव में होकर अंतर्ग्रही शक्तियाँ धरती पर अवतरित होती हैं। जितनी आवश्यक होती हैं उतनी पृथ्वी द्वारा पचा ली जाती हैं और अनावश्यक को दक्षिणी ध्रुव द्वारा अन्तरिक्ष में फेंक दिया जाता है। उत्तरी ध्रुव को पृथ्वी का मुख कहा जाता है तो दक्षिणी ध्रुव को मल द्वार। यदि पृथ्वी को अन्तर्ग्रही अनुदानों का आहार न मिले तो उसे भूखे ही रहना पड़ेगा। इन ध्रुव क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी कितने ही ऐसे छिद्र हैं जिनके माध्यम से अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान का क्रम सुचारु रूप से चलता रहता है। इन्हें राम कूप अथवा स्वेद छिद्र भी कहा जा सकता है। शरीर इन छिद्रों द्वारा भी साँस लेते और साँस छोड़ते हैं। पृथ्वी पर कितने ही ऐसे छिद्र हैं जिनमें होकर सूक्ष्म ही नहीं स्थूल भी धँसता और निकलता देखा जा सकता है।

पृथ्वी का ऐसा ही एक रोम छिद्र अटलाँटिक महासागर में मियामी के हिस्से में है। यह क्षेत्र त्रिकोण जैसा सैकड़ों वर्ग मील आकार में फैला हुआ है। 5 दिसम्बर 1945 की घटना है। अमरीकी वायु सेना के पाँच टी॰बी॰एफ॰ अमरीकी बमवर्षक वायुयान प्रशिक्षण उड़ान पर रवाना हुए। ये सभी यान दिशासूचक यन्त्रों तथा संचार साधनों से सुसज्जित थे, उड़ाके भी काफी अनुभवी और योग्य थे। इस उड़ान का नेतृत्व कर रहे थे लेफ्टीनेन्ट चार्ल्स टेलर। यान ठीक समय पर उड़े और बमबारी का अभ्यास कर पूर्व निर्धारित मार्ग से वापस लौटने के लिए बढ़ने लगे। इस कार्य में उन्हें लगभग 70 मिनट लगे। 20 मिनट बाद पाँचों विमान फोर्टलाउरबेल के उड़ान केन्द्र पर उतरने थे। वहाँ के नियन्त्रण कक्ष पर आशा की जा रही थी कि दो-पाँच मिनट के भीतर ही उड़ान भर रहे विमानों से कोई संपर्क स्थापित होगा। नियन्त्रण कक्ष में अधिकारी इसी आशा से यन्त्रों के पास बैठे हुए थे तभी एक अप्रत्याशित सन्देश मिला जो लेफ्टीनेन्ट चार्ल्स टेलर ने प्रेषित किया था कि-हम खतरे में हैं............. फिर बीच में ही आवाज आना बन्द हो गयी। नियन्त्रण कक्ष से यह जानकारी चाही गयी कि वे लोग कहाँ और किस स्थिति में हैं लेकिन उसका कोई उत्तर नहीं मिला। उल्टे सन्देश आया-’हमें कुछ पता नहीं कि हम कहाँ हैं-शायद हम खो गये।’ प्रेषित सन्देश में अचरज और घबराहट का स्वर स्पष्ट झलक रहा था। ढाई हजार घण्टों की उड़ान आ अनुभव रखने वाले कुशल यान चालक चार्ल्स टेलर की यह घबराहट भरी आवाज कम चिन्ताजनक नहीं थी।

नियन्त्रण कक्ष से बमुश्किल संपर्क स्थापित हुआ और कुछ निर्देश दिये गये तो और भी निराशाजनक सूचनायें मिलीं कि-”हमारे कुतुबनुमा यन्त्र काम नहीं कर रहे हैं................. विमानों में कुछ ही मिनटों का ईंधन शेष है................... दिशा सूचक यन्त्र बेकार हो गये हैं।” इसके बाद रेडियो संपर्क पूरी तरह टूट गया और कुछ ही मिनटों बाद बमवर्षकों के खो जाने की घोषणा कर दी गयी।

इन खोये हुए बमवर्षकों को खोजने के लिए कई विमानों ने अविलम्ब उड़ानें भरीं। उनमें सबसे बड़ा विमान था। पी॰वी॰एम॰ मार्टिन मैरीनर बमवर्षक विमान। यह विमान नवीनतम आधुनिक यन्त्रों और उपकरणों से सुसज्जित था तथा तेरह अनुभवी एवं दक्ष विमान चालक सवार थे इस बीच उड़ान नम्बर 19 के लेफ्टीनेन्ट चार्ल्स टेलर तथा कैप्टन स्टीवर की आपसी बातचीत रेडियो पर कुछ देर के लिए सुनायी दी। जिससे कुछ अन्दाज लगाया गया कि वे पाँचों विमान किस क्षेत्र में है।

उसी के अनुसार मार्टिन मैरिनर को निर्देश दिये गये। निर्दिष्ट दिशा में उड़ान का रुख करने के कुछ ही मिनट बाद मार्टिन मैरिनर के एक चालक लेफ्टीनेन्ट कोम ने नियन्त्रण कक्ष को सूचित किया कि-छह हजार फुट के ऊपर हवा के प्रबल झोंके हैं। मार्टिन मैरिनर का यह सन्देश ही अन्तिम सन्देश सिद्ध हुआ और इसके बाद उसका कुछ भी पता नहीं चला।

इस प्रकार 5 दिसम्बर 45 को एक साथ छह बमवर्षक विमानों के खो जाने की सनसनीखेज घटना एक साथ दुनिया भर के समाचार पत्रों में छपी। आश्चर्य की बात यह है कि उस समय न तो कोई युद्ध चल रहा था कि शत्रु राष्ट्र उन विमानों का अपहरण कर ले तथा न ही मौसम खराब था कि विमान भटक जायें। छह विमानों के एक साथ खो जाने की यह घटना वायु सेना के इतिहास में अपने ढंग की अनोखी घटना थी। उन खोये हुए विमानों की खोजबीन के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास किये गये, पर न कहीं विमानों का पता चला न ही उनके अवशेषों का कोई चिह्न मिला।

कई सूत्रों से इस बात की पुष्टि हुई कि यह छहों विमान ‘डेविन्स ....’ क्षेत्र में ही खोये हैं। इससे पूर्व उक्त क्षेत्र में प्रायः जलयानों के ही खोने की घटनायें घटी थीं। सर्वप्रथम 1840 में रोत्रेजी नामक फ्राँसीसी जलयान के खोने का विवरण मिलता है। इसके चालीस वर्ष बाद अंग्रेजी जहाज फ्रिगेट अटलाण्टा, 1902 में जर्मनी के बार्कक्रिया, 1918 में अमरीकी जहाज यू॰एस॰एस॰ साइक्लाँफ 1924 में रायफ्रूक नामक जापानी जलयान तथा इसी प्रकार छोटे-बड़े जलयानों के उस क्षेत्र में खो जाने की घटनाओं के विवरण मिले हैं। उनके सम्बन्ध में तो यह भी मान लिया जाता रहा कि ये जहाज किन्हीं समुद्री तूफानों में फँसकर नष्ट हो गये होंगे, पर जबसे विमानों के खो जाने और रहस्यमय ढंग से उनके अवशेषों का भी कोई पता न चलने के विवरण सामने आये तो सहज ही विश्वास करते नहीं बनता और न ही उन्हें अविश्वसनीय कहा जा सकता है।

खासतौर से इसी क्षेत्र में विमान या जलयान क्यों खोते हैं इसका कोई स्पष्ट कारण अभी तक खोजा नहीं जा सका है। इतना जरूर है कि अब तक 100 से अधिक विमानों तथा जलयानों के खो जाने के प्रामाणिक विवरण प्राप्त हुए हैं। किंवदन्तियों के अनुसार तो उनकी संख्या और भी अधिक हो जाती है।

इस समुद्री क्षेत्र में जो भी जलयान, विमान और व्यक्ति पहुँच जाते हैं उनमें से कोई प्रायः वापस नहीं आता। उनके कोई अवशेष चिह्न भी कहीं नहीं मिलते। फिर भी कुछ भाग्यशाली व्यक्ति हैं जो बड़ी मुश्किल से अपने यान को अथवा स्वयं को इस शैतानी पंजे से छुड़ा सके। इन व्यक्तियों द्वारा मिलने वाले विवरण विस्मय-विदग्ध कर देते हैं। सन् 1964 में मियामी की सनलाइन एबिएशन नामक कम्पनी के एक विमान चालक चक बेफली को विमान लेकर नासाऊ तक जाना था। चक बेफली अपने यान सहित इस त्रिकोण में फँस गये और सौभाग्य से बच कर अपनी यात्रा पूर्ण कर सके। चक बेफली ने उन संघर्षपूर्ण क्षणों का विवरण इस प्रकार बताया है-”मौसम बहुत बढ़िया और साफ था। रात्रि को 9:30 बजे के करीब एकाएक मुझे अजीब-सी अनुभूति हुई। मुझे लगा कि विमान के पंख एक अजीब-सी रोशनी के साथ चमकने लगे हैं। कुछ ही क्षणों में यह चमक इतनी तेज हो गयी कि यन्त्रों को पढ़ने में कठिनाई महसूस होने लगी।”

“यकायक यान के कुतुबनुमा की सुई तेजी से गोलाई में घूमने लगी। यान के इंजन में ईंधन की स्थिति बताने वाली सुई कभी तो शून्य पर आ जाती और कभी पूरा ईंधन भरा होने का संकेत देती। उस समय तो मैं अवश किंकर्तव्यविमूढ़ ही रह गया जब स्वचालित चालक (आटो पायलट) यन्त्र ने यान को दाहिनी ओर मोड़ दिया तथा इसके बाद वायुयान के सभी यन्त्र विचित्र सूचनायें देने लगे। किसी प्रकार मैंने स्वयं का इतना सन्तुलन बनाये रखा कि विमान को उड़ाये जा रहा था। चमक इतनी बढ़ गयी थी कि मुझे कुछ भी दिखाई देना बन्द हो गया। फिर भी मैंने अपना सन्तुलन नहीं खोया। थोड़ी देर बार चमक अपने आप कम होने लगी। जैसे-जैसे चमक कम होती गयी वैसे-वैसे यन्त्र ठीक तरह से काम करने लगे।”

“किसी तरह वायुयान को हवाई पट्टी पर उतारने में सफल हो सका तो मैं तुरन्त उसके निरीक्षण में जुट गया। उस समय मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब मैंने पाया कि वायुयान की हर चीज बिलकुल ठीक थी।”

इसी प्रकार जीवित लौटे जिम रिचर्डसन और दूसरे वायुयान चालकों ने भी अपने रोमाँचकारी अनुभव बताये हैं। उनके यानों में भी इसी प्रकार की गड़बड़ियाँ उत्पन्न हुईं-दिशासूचक यन्त्र बिगड़ गया-रास्ता भूल गये-नीचे ऊपर भयंकर धुँध छायी हुई थी और समुद्र में तूफानी लहरें उठ रही थीं। धुँध में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। यह संयोग ही कहा जाना चाहिए कि दिशा ज्ञान न रहने पर भी वापस लौटना और बचना सम्भव हो सका।”

उक्त क्षेत्र में 1840 से जहाजों के लापता होने के विवरण प्राप्त हैं। परन्तु निरन्तर संपर्क और सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें किसी दुर्घटना का शिकार मान लिया जाता रहा। 1945 से जब विमानों ने इस क्षेत्र में उड़ना आरम्भ किया तो उन्हें वास्तविकता का कुछ आभास होने लगा। इसके बाद तथ्य का पता लगाने के लिए सम्बन्धित राष्ट्रों की सरकारों ने व्यापक स्तर पर प्रयास किये लेकिन कुछ भी नहीं पता लगाया जा सका। सन् 1955 में जापान के वैज्ञानिकों का एक दल उस क्षेत्र में गया। यह दल आधुनिकतम यन्त्रों, सुरक्षा उपकरणों तथा आपातकालीन व्यवस्थाओं से सुसज्जित “कातिमार फाइव यार” नामक जहाज पर सवार था। इसके बावजूद भी तथ्यों का पता लग पाना तो दूर रहा उल्टे ‘काँतिमार’ का यह जहाज भी गायब हो गया। वारमूडा क्षेत्र में जहाजों के गुम हो जाने का यह क्रम भी जारी है। कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि वारमूडा त्रिकोण पृथ्वी के उन 12 स्थानों में से एक है जो पूरी पृथ्वी पर निश्चित दूरियोंमान से स्थित है। भौगोलिक कारणों से इन स्थानों पर विशेष चुम्बकीय लहरें पैदा होती रहती हैं और इसी कारण इन यानों के दिशासूचक यन्त्र विद्युत उपकरण गड़बड़ा जाते हैं। परन्तु कुछ ऐसी भी घटनाएँ हुईं जिनसे यह व्याख्या अधूरी ही सिद्ध होती है? सम्भावना बताई जाती है कि उन क्षेत्रों में किसी ग्रह का प्रचण्ड गुरुत्वाकर्षण वायुयानों को खींचकर ले जाता है अथवा किसी अन्य ग्रह से प्रवाहित विद्युत धाराएँ विमानों को किसी अन्य ग्रह की ओर धकेल देती हैं।

वास्तविक कारण चाहे जो भी हो,पर अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान की व्यवस्था से इन्कार नहीं किया जा सकता है। विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में संव्याप्त पारस्परिक निर्भरता या एक-दूसरे से प्रभावित होने के नियम को देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यहाँ अकेला कोई नहीं है। एकाकी कोई अस्तित्व नहीं है, जो कुछ है सब सामूहिक है। प्रकृति की इस व्यवस्था में वारमूडा के गुप्त जलयानों को दुर्घटना ही कहा जायेगा, परन्तु अंतर्ग्रही आदान-प्रदान से होने वाले लाभों की तुलना में वह क्षति एक पैसे बराबर भी नहीं है। सृष्टि के इस रहस्य और निर्देश को समझा जा सके तो प्रगति का वह चक्र अग्रगामी रह सकता है जिसके आधार सुव्यवस्था बनती और स्थायी रहती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118