आवश्यक साधन जुटाने ही होंगे

November 1979

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युग-निर्माण परिवार अब प्रशिक्षण की छोटी-बड़ी कक्षाओं में पढ़ने समझने का प्रयोजन बहुत अंशों में पूरा कर चुका। अब परिजनों को अध्यापकों की भूमिका निभानी पड़ेगी, प्रौढ़ता की, जिन्हें ही अपनी समर्थता एवं प्रतिभा के परिपक्व होने पर, उसकी उपलब्धि को अन्यान्यों के लिए वितरित करना है, बालक एक प्रकार से पराश्रित होते हैं। ज्ञान सम्वर्धन में भी वे दूसरों को सहायता चाहते हैं और अपने निर्वाह के लिए भी, अभिभावकों के अनुदान की अपेक्षा रहती है। परावलंबन बचपन और स्वावलम्बन यौवन। परिपक्वता, प्रौढ़ता और प्रवीणता का लक्षण एक ही है स्वावलम्बन। ऐसा स्वावलम्बन जो मात्र अपना ही नहीं, अपने समय, समाज की देश धर्म की भी आवश्यकता पूरी कर सके।

प्रसन्नता की बात है कि इस प्रगति क्रम का परिचय युग निर्माण परिवार के परिजनों में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। जागृत आत्मायें, युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित हो रही है। उदीयमान सूर्य की किरणें पर्वतों की चोटियों पर अवतरित होती हैं। आलोक इसके बाद धरती पर क्रमशः नीचे उतरता है। जागृत और जीवन्त प्राणवानों की प्रखरता इन दिनों युग सृजन में नियोजित हो रही है। वे सृजन शिल्पी की भूमिका निभाने में आतुर और तत्पर देखे जा सकते हैं।

आवश्यकता पड़ने पर जब सेना में भर्ती बढ़ानी पड़ती है तो देशभक्त राष्ट्र रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए अपना नाम लिखाते हैं, मोर्चा संभालने और देश की इज्जत बचाने में उनकी श्रद्धा और साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। भर्ती और प्रशंसा का उपक्रम थोड़ी देर में ही समाप्त हो जाता है। उसके उपरान्त दूसरी नई जिम्मेदारियाँ-भर्ती के लिए आह्वान, प्रोत्साहन आदि प्रबन्ध करने वालों के कंधों पर आती है। उन जिम्मेदारियों में प्रथम है-उन नई भर्ती के सैनिकों के ठहरने का प्रबन्ध करना। दूसरा है-उन्हें युद्ध कला में प्रशिक्षित करना। यदि यह दोनों जिम्मेदारियाँ न निभाई जायें तो देशभक्तों की बलिदान भावना के रहते हुए भी सीमा-सुरक्षा में असफल रहना पड़ेगा, तब उनकी निन्दा होगी जो सैनिकों की भर्ती करने का पूर्वार्ध पूरा करके ही सन्तुष्ट हो गये और भावनाओं को भड़काने की सस्ती सफलता के उपरान्त वह कार्य न किया जो कठिन होते हुए भी नितान्त आवश्यक था। जन्म कुशल प्रशिक्षकों द्वारा वह कौशल सिखाया जाता है। युग परिवर्तन अभियान के असुरता की सर्वनाशी विभीषिका से जूझने को महाभारत नहीं, विश्व युद्ध कहा जा सकता है। इसके लिए इन दिनों जागृत वर्ग के सृजन शिल्पी अग्रिम मोर्चे पर लड़ने की अपनी भावभरी साहसिकता का परिचय दे रहे हैं। इसे उज्ज्वल भविष्य का चिह्न माना जा सकता है। इतने पर भी यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग है कि इनके लिए छावनी और शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए। यह द्वितीय चरण भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना प्रथम चरण।

महाकाल की पुकार पर सृजन शिल्पियों का भाव भरा समुदाय आगे आ रहा है। थोड़ी नहीं बड़ी संख्या में अब उनकी प्रशिक्षण व्यवस्था बनाने में प्रथम प्रयास इन के लिए स्थान खड़ा करने के रूप में करना होगा। प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व शाँतिकुँज ने संभाला है। इसके लिए सात स्तर के प्रशिक्षण सत्र एक साथ आरम्भ करने के अति महत्वपूर्ण कदम इन्हीं दिनों उठाये गये हैं। (1) शोध संस्थान के अनुसंधान सत्र (2) ब्रह्म वर्चस् के उच्चस्तरीय साधना सत्र (3) जन जागरण का उद्देश्य पूरा कराने में समर्थ बनाने वाले लोक नायकों के परिव्राजक सत्र (4) नारी जागरण एवं परिवार निर्माण की मुहीम संभालने वाली प्रतिभाओं को खरीदने वाले महिला सत्र (5) व्यक्तित्व में प्रखरता उत्पन्न करने वाले साधना सत्र (6) परिवार निर्माण सत्र (7) संगीत सत्र किस प्रकार चलेंगे और उनकी रूपरेखा क्या होगी, इसका विस्तृत विवरण छापा जा चुका है। उनमें शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या, अब तक के सभी सत्रों की तुलना में कई गुनी अधिक होगी। यह स्वाभाविक भी है, पिछले दो वर्षों में परिवार की सदस्य संख्या दूनी ढाई गुनी हो गई। पुरानों का उत्साह तो कुछ ठण्डा भी पड़ा है, पर नये रक्त का उभार तो तूफानी गति उभरता और मचलता है। इस प्रवेश पर हर्ष मनाने और संतोष व्यक्त करने के साथ ही यह पहाड़ जैसा उत्तरदायित्व सामने आ खड़ा होता है, कि इन भावनाशीलों को प्रवीण पारंगत बनाने के लिए तत्काल आवश्यक व्यवस्था बनाई जाय और साधन जुटाये जायें। गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण का कार्य तेजी से चल पड़ा है। इन सभी को इमारत बनाने की तरह ही अपने-अपने कार्य क्षेत्र को संभालने के लिए कुशल शिल्पियों की आवश्यकता पड़ेगी। उसकी पूर्ति इन्हीं दिनों अविलम्ब करनी आवश्यक हो गई है। सूत्र संचालकों के सामने इन दिनों प्रमुख कार्य यह है-युग शिल्पियों के प्रशिक्षण के लिए अध्यापकों का नहीं, खड़े होने के लिए छाया का प्रबन्ध करना है। कुशल अध्यापक अपने पास हैं। पर साधनों के लिए अन्यान्यों की ओर ही निहारना पड़ता है। इतना बड़ा पर्वत उठाना, एक का काम नहीं, इस गोवर्धन के उठाने में, समुद्र सेतु बाँधने में अनेकों का सहयोग चाहिए। आवश्यक नहीं, यह सहयोगी समर्थ ही हों। ग्वाल-बाल, रीछ बानर और गीध-गिलहरी तथा निषाद, केवट सरीखे व्यक्ति भी इस संदर्भ में अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपनी-अपनी भूमिका निभा सकते हैं। इन दिनों कुछ ऐसा ही धर्म संकट सामने आ खड़ा हुआ है। युग शिल्पियों की प्रशिक्षण व्यवस्था के लिए आच्छादन खड़ा करना, ऐसा कार्य है; जिसे न तो टाला जा सकता है और न उसकी उपेक्षा हो सकती है। उसे इन्हीं दिनों पूरा करना है।

मत्स्यावतार की कथा प्रसिद्ध है। ब्रह्माजी के कमण्डलु में प्रकट हुए, मत्स्य शावक ने क्रमशः अपना रूप बढ़ाया, और उसे क्रमशः घड़े में, गड्ढे में, सरोवर में और अन्ततः समुद्र में पहुँचाया गया था। लगभग वैसा ही युग सृजन के संचालक सूत्रों की आवश्यकताओं का विस्तार हो रहा है, एक आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती कि दूसरी नई उससे भी बड़ी और उससे भी आवश्यक लगने वाली, सामने आ खड़ी होती है।

ब्रह्मवर्चस् आरण्यक बन कर पूर्ण हो भी नहीं पाया कि गायत्री नगर का निर्माण एक अनिवार्य आवश्यकता की तरह सामने आ खड़ा हुआ। आरम्भ में उसे मिशन के कार्यकर्त्ताओं के निवास के लिए बनाने की बात सोची गई थी, पर अब नई आवश्यकता एक ऐसा विश्वविद्यालय बनाने के रूप में सामने आ गई जिसमें प्रायः एक हजार प्रशिक्षणार्थी एक साथ प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। प्रशिक्षण की सातों धारायें विश्वविद्यालयों में चलने वाली फैकल्टी कही जा सकती है। नालन्दा, तक्षशिला आदि के बौद्ध-विहारों और संधारामों का स्मरण इस अवसर पर अनायास ही आ जाता है। विस्तार वैभव भले ही उतना न हो पर उद्देश्य और स्वरूप सर्वथा उसी स्तर का है। निर्माणों की आवश्यकता उन दिनों, उन लोगों को भी पड़ी थी, इन दिनों अपने सामने भी बड़ी समस्या है, उन दिनों बड़े लोगों ने बड़े रूप में अपनी उदार साहसिकता का परिचय दिया था। अपने समय में अपनी आवश्यकतायें पूरी करने के लिए हमें अपने स्तर पर कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। विमुख रहने और कृपण कहलाने का दोष न उन दिनों के भावनाशीलों ने स्वीकार किया था और न अपने परिजन ही उसे ओढ़ने को तैयार हो सकते हैं।

गायत्री नगर का निर्माण पहले छोटे रूप में सोचा गया था, अब उसकी योजना कहीं अधिक बढ़ गई है। बढ़ी ही नहीं स्थिति ऐसी बन गई है कि उसे अविलम्ब पूरा करना पड़ेगा। युगशिल्पियों की भर्ती के बाद उनकी प्रशिक्षण व्यवस्था एक दिन के लिए टल नहीं सकती, इसलिए इस निर्माण कार्य को प्राथमिकता देनी पड़ रही है और उसे तेजी से सम्पन्न करने का उपक्रम चल पड़ा है।

अर्थ साधनों की आवश्यकता अत्यधिक बढ़ गई है। उसकी पूर्ति के लिए “स्मृति अनुदान” का एक आकर्षक तरीका ढूंढ़ निकाला गया है, प्रस्ताव रखा गया है कि अपनी एवं अपने पूर्व पुरुषों, प्रिय जनों की स्मृति के लिए जो हाथ बंटायेंगे, उनके स्मृति पत्थर लगा दिये जायेंगे। इन दिनों जो निर्माण गायत्री नगर में चल रहा है उसमें प्रायः दो-दो कमरों के फ्लैट हैं। इनमें दो कमरे, दो बरामदे, फ्लैस, बाथरूम, रसोई, स्टोर, आँगन, इतनी व्यवस्था है। इस पूरे को बनाने में गत वर्ष लागत ग्यारह हजार आँकी गई थी, इन दिनों प्रायः ड्यौढ़ी महंगाई बढ़ गई और लागत में असाधारण अन्तर आया है तो भी उदारमना लोगों पर अधिक भार न पड़ने देने की बात को ध्यान में रखते हुए प्रस्ताव यही है कि जो ग्यारह हजार देंगे; उनकी स्मृति पट्टिका पूरे फ्लैट पर लगा दी जायेगी। दूसरा प्रस्ताव इससे हल्का है। एक कमरा, एक बरामदा, एक रसोई इतना पूर्ण और टट्टी, स्नान घर, आँगन सम्मिलित रखने को आधे से कुछ अधिक कहा जा सकता है। इतने भाग के लिए सात हजार रखा गया है। यों असली लागत इन दिनों इससे भी अधिक बढ़ गई है। अपने मध्यवर्ती परिवार को अधिक बड़ी राशि देने में असुविधा पड़ेगी। इस दृष्टि से पत्थर लगाने की शर्त में जहाँ तक सम्भव हो सका है, यथासंभव कमी करने की बात ही ध्यान में रखी गई है।

स्मृति के लिए निर्माण कराने की परम्परा प्रचलित है। इस संदर्भ में यह भी देखा जाता है कि उस स्मृति से किस स्तर के और कितने लोग अवगत एवं प्रभावित होंगे। कहना न होगा कि इस दृष्टि से गायत्री नगर के कक्षों पर लगे ‘पटल’ हर दृष्टि से प्रथम श्रेणी के सिद्ध होंगे। किस स्तर के और कितने लोग इन गायत्री तीर्थ में आने वाले हैं, इसकी कल्पना भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह यश कितना उच्चस्तरीय, कितना स्थायी और कितना पुण्य प्रदायक होगा। पुण्य सदा उपयोगिता पर निर्भर रहता है न कि राशि पर। जिस कार्य में जितना बड़ा लोक हित होगा, उसी अनुपात में उसके संयोजक पुण्यफल के भागी होंगे। युगशिक्षण के लिए बनने वाले विश्वविद्यालय जैसे महान कार्य की उपयोगिता और गरिमा को हर विचारशील और दूरदर्शी व्यक्ति अनुभव कर सकता है। अतएव इस निर्माण में लगी राशि को श्रेष्ठतम सदुपयोग ही कहा जा सकता है। उसका पुण्य फल भी तद्नुरूप ही होगा।

परिजनों की इन दिनों की सर्वाधिक आवश्यकता को पूरा करने में अपनी समर्थता को टटोलना चाहिए। यदि वह न बन पड़े तो अपने प्रभाव क्षेत्र के उन लोगों को वस्तुस्थिति समझानी चाहिए, जो इस प्रकार का सहयोग दे सकते हैं। देना या दिलाना लगभग एक ही प्रकार का परिणाम उत्पन्न करता है। हर प्रतिभाशाली व्यक्ति के संपर्क में कुछ न कुछ लोग अवश्य ऐसे होते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो, साथ ही उदारता के, यश आकाँक्षा के तत्व भी मौजूद हों। उन्हें यदि गायत्री नगर के निर्माण कार्य की उपयोगिता और सहायता से असाधारण यश और पुण्य मिलने की बात समझाई जा सके तो निश्चय ही कइयों के संपर्क में कुछ को तो सहमत किया ही जा सकता है। हम इधर ध्यान देने लगें तो रुकती प्रतीत होने वाली गाड़ी, आगे बढ़ सकती है और देखते देखते समय की माँग को पूरा करना सम्भव हो सकता है।

एक कार्य तो हर कोई कर सकता है कि महीने में एक दिन की आमदनी एक वर्ष तक देते रहने जैसा निश्चय किया जा सकता है और उसे आसानी से निभाया भी जा सकता है। खर्चों में कई ऐसे होते हैं, जिनमें कुछ समय के लिए कमी-कटौती करने से भी गुजारा चलता रह सकता है, यदि प्रस्तुत निर्माण कार्य की उपयोगिता और उसके सहयोग करने की आवश्यकता समझी जा सके तो छोटे-बड़े अनुदान एक वर्ष तक नियमित रूप से देते रह सकना छोटे से लेकर बड़े तक के लिए सम्भव हो सकता है। इसके लिए सार्वजनिक चन्दा करने की कहीं भी आवश्यकता नहीं है। प्रस्तुत प्रयोजन की पूर्ति के लिए मात्र ऐसे स्वेच्छा-सहयोग स्वीकार किये जायेंगे जिनमें किसी का अनावश्यक एवं अनपेक्षित दबाव न पड़ा हो।

युग सृजन बड़ा काम है। उसमें अभिरुचि रखने एवं सहयोग देने की भावना का विकास ही इस बड़े काम के पूरे होने में आशा का केन्द्र है। इस केन्द्र को समर्थ बनाने में परिजनों का सामयिक सहकार मिलना ही चाहिए।


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