कितने समझदार हैं यह नासमझ प्राणी

November 1979

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मनुष्य और पशुओं में तुलना करते समय सबसे स्पष्ट और प्रथम अन्तर समझ का ही सामने आता है। लगता है मनुष्य सबसे समझदार बुद्धिमान सामाजिक और नैतिक दायित्वों को अनुभव करने वाला प्राणी है। लेकिन नहीं, कई बातों में जानवर मनुष्यों से भी आगे हैं और वे अपना दायित्व कुशलतापूर्वक निभाते हैं, एक दूसरे का सहयोग करते हैं, आपस में काम आते हैं, वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार अपनी आदतें बदल लेते हैं, दोस्त बनाते हैं, पत्नी व्रत धर्म का पालन करते हैं तथा अपनी मर्यादाओं और सीमाओं में रहते हुए संतुलित जीवन जीते हैं।

कई स्तनपायी जीवों में पैतृक दायित्व का पर्याप्त विकास हो जाता है। यह भावना बन्दरों में बहुत अधिक पायी जाती है। माँ अपने बच्चों को तब तक छाती से चिपटाये रहती है जब तक कि वह स्वयं डालियों पर उछलने-कूदने नहीं लगता और अपनी आहार सामग्री जुटा नहीं लेता। यही नहीं वयस्क बन्दर अपने बच्चों को सम्भावित खतरों को दूर करने के लिए दुस्साहसिक कार्य भी कर बैठते हैं शेर पुच्छ जर्मत (लाइन टैल्डमैकाक) के बन्दरों का एक परिवार दिल्ली के चिड़िया घर में रखा गया है। उनके रहने के लिए एक छोटा सा टापू चुना गया जहाँ वे स्वतंत्रतापूर्वक रह सकें। एक बार एक साँप उस टापू पर पहुँच गया। साँप को देखते ही सब बड़े बन्दर पेड़ों पर चढ़ गये लेकिन दो तीन छोटे बच्चे साँप के पास चले गये और उसे चिढ़ाने के अन्दाज में चिल्लाने लगे।

उन बच्चों के माँ बाप पेड़ पर चढ़ गये थे। उनने देखा कि बच्चों को इस प्रकार का खतरा हो सकता है तो एक बन्दर पेड़ से उतरकर नीचे आया। संभवतः वह उन बच्चों का पिता रहा होगा। वह बन्दर बच्चों के पास पहुँचा ओर उन्हें धमका कर वहाँ से दूर ले गया। इतना ही नहीं उसने बड़ी सावधानी से साँप की पूँछ पकड़ कर उसे पानी में फेंक दिया। कहाँ तो वह साँप से डर कर पेड़ पर चढ़ गया था और कहाँ अपने बच्चों की जान खतरे में देख कर उन्हें धमकाने तथा खतरा दूर करने के लिए साँप के पास पहुँच गया।

परिवार बसाने और अबोध असमर्थ बच्चों का लालन पालन करने में ऊदबिलाव भी कमाल की तत्परता बरतता है। ऊदबिलाव के लिए पानी और जमीन में कोई अन्तर नहीं है। वह जितनी तेजी से जमीन पर दौड़ सकता है। उसके पंजों की अंगुलियाँ पतली चमड़ी से आपस में जुड़ी रहती है, इससे ऊदबिलाव को तैरने में आसानी रहती है परिवार बसाने से पहले वह नदी के किनारे जमीन खोद कर बिल बना लेता है। मादा ऊदबिलाव उस बिल में दो या तीन बच्चों को जन्म देती है। बिल खोदने का काम नर ऊदबिलाव ही करते हैं क्योंकि मादा तो बेचारी गर्भवती होने के कारण उस गहरे और लम्बे बिल को तैयार कैसे करें। प्रसव के बाद मादा ऊदबिलाव तीन महीने तक बिल में ही रहती है। उसके तथा बच्चों के लिए तब तक भोजन सामग्री लाने का काम नर ऊदबिलाव ही करता है। दस दिन में बच्चों की आँख खुलती हैं और तीन महीने बाद माता पिता उन्हें लेकर बिल से बाहर आते हैं। तब तक पूरे परिवार की निर्वाह व्यवस्था नर ऊदबिलाव ही जुटाता है। देखा गया है कि नर ऊदबिलाव नर ऊदबिलाव अपनी पत्नी और बच्चों को भरपेट भोजन करा चुकने के बाद ही स्वयं भोजन करता है।

दाम्पत्य जीवन में एक दूसरे के प्रति निष्ठा, सहयोग सद्भाव में सारस पक्षी की कोई तुलना ही नहीं है। वर्षा के मौसम में सारस पक्षी पानी के समीप जमीन पर घोंसला बना कर एक या दो अण्डे देते हैं। इन अण्डों से बच्चे निकलने में काफी समय लगता है, इसलिए नर और मादा दोनों युगल बारी-बारी से अण्डे सेते हैं। जब मादा काफी समय तक अण्डे पर बैठे रहने के कारण थक जाती है तो नर आकर बैठ जाता है और जब नर काफी देर तक बैठने के कारण थक जाता है तो मादा सारस आकर अण्डे सेने लगती है। यह जिम्मेदारी पारस्परिक रूप से निभाने के पहले दोनों पक्षी नर और मादा सारस आनन्दित होकर जोर-जोर से चिल्लाते हैं तथा एक विशेष प्रकार का नृत्य करते हैं।

मनुष्य अपने बच्चों को क्या करना है और क्या नहीं करना है यह शब्दों द्वारा सिखाता है। बहुधा ऐसे काम जो माता पिता स्वयं करते हैं अपने बच्चों को उन कामों से बचाने की सलाह देते हैं। बच्चों की असमर्थता और अभिभावों की अपेक्षा सीमित योग्यता के कारण यह एक सीमा तक उचित भी है परन्तु प्रायः माता-पिता अपने बच्चों में ऐसी आदतें डालना चाहते हैं जो उनमें नहीं होतीं। जैसे सुबह जल्दी उठने की बात को ही लिया जाय पिता देर तक सोने का आदी रहने के बाद भी बच्चों को जल्दी उठने के लिए कड़ाई करता है। स्वयं झूठ बोलते हुए भी बच्चों को सत्य भाषण करना सिखाता है। शिक्षण और आचरण की यह खाई बच्चों में कुण्ठा और विद्रोह की भावना को जन्म देती है।

बच्चों को किस प्रकार सिखाया जाय यह सीखना हो तो इन नासमझ कहे जाने वाले प्राणियों को ही अपना आदर्श बनाना पड़ेगा। लगभग सभी जानवर अपने बच्चों को निर्देश या आज्ञा द्वारा नहीं स्वयं आचरण करके सिखाते हैं कि किस समय कैसा व्यवहार करना है। आचरण में आगे रहने के कारण बच्चे भी अपने से बड़ों के आज्ञानुवर्ती करते हैं। किसी चूहे परिवार के मुखिया को बिल के आसपास रखे किसी खाद्य पदार्थ पर संदेह हो जाता है तो वह उसका स्पर्श तक नहीं करता है। परिवार के दूसरे सदस्य भी अपने संरक्षक को ऐसा करते देखकर उस पदार्थ की ओर मुँह तक नहीं उठाते।

हरिणों का झुण्ड-जिसके प्रायः सभी हरिण एक ही वंश परम्परा के सदस्य होते हैं अपने से बड़े कहना चाहिए वयोवृद्ध हरिण के पीछे-पीछे चलते हैं। जिस दिशा में वह चलता है, उसी दिशा में अन्य हरिण भी आगे बढ़ते हैं। रास्ते में कहीं भी कितनी ही बढ़िया घास या खाद्य पदार्थ दिखाई दे परन्तु कोई हरिण उसे छूना तो दूर रहा देखता तक नहीं। इस प्रकार के अनुशासित पारिवारिक जीवन में हरिण प्रायः खतरों से बचे रहते हैं।

यह तो हुआ कुछ वन्य प्राणियों का पारिवारिक जीवन वन जीवन का अपना एक अलग संसार है जहाँ विभिन्न जातियों के जीव जंतु रहते हैं। आपस में व्यवहार करते समय ये कितनी समझदारी का परिचय देते हैं, उतनी समझदारी यदि मनुष्य भी बरतने लगे तो दुनिया के सभी संघर्ष, लड़ाई और युद्ध दो तिहाई बन्द हो जायें। अक्सर यह पूछा जाता है कि अगर जंगल में शेर और हाथी की लड़ाई होती है तो कौन जीतता है! वर्षों तक वन्य पशुओं की आदतों और व्यवहारों का अध्ययन करने के बाद एक प्रसिद्ध जीव शास्त्री ने लिखा है-वास्तव में ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं जब कि शेर और हाथी की भिड़न्त होती हो। प्रथम तो शेर और हाथी दोनों एक दूसरे के सामने आते ही नहीं, कभी संयोग वश दोनों का सामना हो भी जाय तो दोनों एक दूसरे की ताकत को समझते हुए अलग अलग रास्तों पर चले जाते हैं। न तो शेर हाथी से ही लड़ना पसन्द करता है, न हाथी शेर से ही लड़ता है। दोनों का द्वन्द्व अपवाद स्वरूप ही होता है और अपवाद कहाँ नहीं होते।

हाथी सम्भवतः जंगल का सर्वाधिक शाँति प्रिय ऐसा प्राणी है जो शक्तिशाली भी है। परन्तु वह अपनी शक्ति का उपयोग दूसरों को दबाने डराने के लिए नहीं करता। हाथी आपस में स्वयं भी बहुत कम उलझते हैं। खासतौर पर उन्हीं अवसरों पर हाथियों में आपसी लड़ाई होती है जब कोई हाथी उद्दण्ड हो जाता है और छोटे बड़े सभी के कान में तिनका करने लगता है। कानवर्ग प्राणी-संग्रहालय के डा॰ वुल्फ डार्टिच ने आठ वर्षों तक हाथी की आदतों प्रकृति और तौर तरीका का अध्ययन किया। एक पुस्तक में लिखा-”जब हाथी किसी के व्यवहार से परेशान हो जाता है तो पहले वह सूँड के अग्रभाग को मस्तक तक ले जाता है और फिर गंडास्थल का स्पर्श करता है। यही उसकी ज्ञानेंद्रिय है। इस प्रकार करने से क्या होता है यह कहना कठिन है परन्तु ऐसा लगता है कि ऐसा करने पर हाथी को मदसुख की गंध का अनुभव होता है तथा उसमें एक प्रकार का आत्म विश्वास जागृत होता है।

“जब उसे कोई दूसरा हाथी त्रास देना शुरू करता है तो वह सूँड से गंडास्थल का स्पर्श कर मस्तक से टक्कर मारकर बाहर निकाल देता है। एक दूसरी बात और ध्यान देने योग्य दिखाई दी। वह यह कि जब जब अधिक ताकत वाले हाथी की कम ताकत वाले हाथी से टक्कर होती देखी गयी तब-तब कमजोर हाथी की मदस्रावी ग्रन्थि तक बलवान हाथी अपनी सूँड से स्पर्श करता। इसके बाद कम ताकत वाला हाथी अधिक ताकत वाले हाथी के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर लेता। लेकिन यदि उसे भरोसा हो जाता कि वह सामना कर सकेगा तो बलवान हाथी के मुँह में अपनी सूँड डालकर कायदे से उत्तर देता।”

यह ठीक उसी प्रकार है जैसे लड़ने से पहले दो पहलवान हाथ मिलाते हैं। हाथ मिलाते समय की गर्म जोशी को देखकर ही एक पहलवान दूसरे पहलवान की ताकत का अन्दाज लगाता है। इस यों भी समझा जा सकता है कि जब दो व्यक्ति लड़ते हैं तो कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का गला पकड़ता है। गले पर पड़ने वाले दबाव को अनुभव कर प्रतिपक्षी यह जाँचने की कोशिश करता है कि वह सामना कर सकेगा अथवा नहीं। सामना करने में अपने को समर्थ अनुभव करने पर ही वह प्रतिकार करता है अन्यथा गला छुड़ा कर चुप रह जाने में ही अपना भला समझता है। इस तरह की समझदारी मनुष्यों में तो कहीं कहीं ही दिखाई पड़ती है परन्तु बराबरी की टक्कर के सिद्धान्त का पालन हाथी पूरी निष्ठा से करते हैं। वह भी तभी जबकि लड़ाई अनिवार्य ही हो जाय।

आपसी समझ और सहचरत्व के आदर्श का पालन न केवल सजातीय प्राणियों में होता है वरन् वन्य पशु अपने से भिन्न वर्ग जाति के पशुओं से भी उसी प्रकार व्यवहार करते हैं। दो अलग अलग प्रकार के प्राणी एक दूसरे से सहयोग करके एक दूसरे को लाभ पहुँचाते हैं और स्वयं भी लाभ उठाते हैं। सर्व विदित है कि पक्षी भैंस या बैल की पीठ पर आ बैठते हैं। बैल भैंस उन्हें न हटाते हैं न फटकारते। ये पक्षी भैंस, बैल, गेंडे और दूसरे प्राणियों की पीठ पर बैठकर उनके शरीर से चिपके हुए कीड़े खा लेते हैं। इन पक्षियों का पेट भरता है और जिनकी पीठ पर ये बैठते हैं उन्हें कीड़ों से छुटकारा मिलता है।

इसी प्रकार मगरमच्छ और दूसरे पक्षी भी एक दूसरे से लाभ उठाते हैं। मगरमच्छ माँसाहारी जीव है। खाने के बाद उसके दाँतों में थोड़ा बहुत माँस फंसा रहता है, सड़ने के बाद यह माँस पीड़ा कर सकता है, रोग उत्पन्न कर सकता है। इस तरह की परेशानी से बचने के लिए मगरमच्छ नदी के किनारे जाकर मुँह खोले बैठ जाता है नदी के आस पास पाये जाने वाले छोटे छोटे पक्षी मगरमच्छ के मुँह में घुसकर उसके दाँतों में फंसा हुआ माँस खा जाते हैं। मगरमच्छ उस समय तो क्या बाद में भी उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाता है।

वन्य प्राणियों की जीवनचर्या का अध्ययन करने से इस प्रकार के कई रोचक और रोमाँचक तथ्य सामने आते हैं। इनके व्यवहार को देखकर कहीं भी यह नहीं लगता कि ना समझ कहे जाने वाले प्राणी एक दम ना समझ या मूढ़ हैं। इनकी आदतों स्वभाव और प्रकृति का अध्ययन करने के बाद तो यही लगता है कि प्रकृति ने इन्हें केवल वाणी नहीं दी और मात्र गतिशील बौद्धिक क्षमता से ही वंचित रखा है। जिससे वे अपने उद्भव काल से एक ही ढर्रे का जीवन जी रहे हैं। अन्यथा अपनी सीमा मर्यादा में रह कर, एक दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए जीवनयापन की भरपूर प्रेरणा और सामर्थ्य इन्हें प्रकृति से मिली है। इन मर्यादाओं को ये मनुष्य से भी अधिक अच्छी तरह निभाते हैं।

फिर मनुष्य किस कारण से सृष्टि का उन्नत और सर्वश्रेष्ठ प्राणी है? केवल एक ही कारण है कि उसमें उन्नति और विकास की वे समस्त सम्भावनायें विद्यमान हैं जिनके आधार पर वह नर से नारायण और मनुष्य से देवता हो सकता है। इन्हीं सम्भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रकृति ने संभवतः उसे कुछ भी बनने और कुछ भी करने की स्वतंत्रता प्रदान की। उस स्वतंत्रता सदुपयोग किया जाय सौभाग्य तो इसी में है।


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