यह अविच्छिन्न जीवन प्रवाह

April 1979

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मरणोत्तर जीवन याकि इस देह के अंत के बाद जीवन के बारे में चर्चा एवं विचार पश्चिमी जगत में कुछ वर्षों पूर्व तक माइथालोंजी मजहब, मैटाफिजिक्स और फिलॉसफी का ही विषय था। किन्तु पिछले कई वर्षों से वहाँ परामनोविज्ञान के अधुनातन अनुसंधानों के, इस दिशा में गम्भीर प्रयासों से कई महत्वपूर्ण परिणाम सामने आये हैं। इसीलिये अधिकांश लोगों में योग-दर्शन के प्रति जिज्ञासा-भाव जागृत-विकसित हुआ है।

अमेरिकी वैज्ञानिक डा. रेमंड ए. मूडी जूनियर ने 5 वर्षों तक इस दिशा में शोध-प्रयास किये और अपने अध्ययन-निष्कर्षों को “लाइफ आफ्टर लाइफ” नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया।

डा. मूडी ने ऐसे लोगों के अनुभव एकत्र किये, जिन्हें मृत्यु का किसी न किसी रूप में साक्षात्कार हुआ हो। इनमें से कुछ लोग वे थे, जिन्होंने मृत्यु के तत्काल पूर्व अपनी समीपी लोगों को बताया कि मुझे इस-इस ढंग के अनुभव हो रहे हैं। मूडी ने उन समीपी लोगों के द्वारा बताये गये, वे सुने हुए अनुभव नोट किये। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे अनुभव बड़ी मात्रा में सन्दिग्ध माने जायेंगे। क्योंकि मनुष्य सामान्यतः अपनी स्मृति में कल्पना और पूर्वाग्रह का मिश्रण कर दिया करते है। तो भी इनसे आँशिक सत्य तो प्राप्त किया ही जा सकता है।

दूसरी कोटि के उन लोगों से मूडी द्वारा संपर्क किया गया, जो गम्भीर रोग या भयंकर दुर्घटना से मानो मौत के मुँह में जाकर लौटे थे। कुछ समय के लिये जिन्हें अपनी मृत्यु का निश्चय हो गया था। और उन्होंने मृत्यु मुख में स्वयं को समाते हुए अनुभव किया था। इनमें कुछ ऐसे लोग भी सम्मिलित थे, जिन्हें चिकित्सक मृत-प्राय घोषित कर चुके थे और कृत्रिम उपायों से श्वास दिलाने के प्रयास किये जा रहे थे, किन्तु जो बाद में बच ही गये।

परामनोवैज्ञानिक सर विलियम थैरेन्ट ने भी ऐसे ही अनुभवों का संकलन अपनी किताब “डेथबेड विजन्स” में किया है। कुछ भारतीय परामनोविज्ञान प्रेमियों ने भी ऐसे तथ्यों का संकलन किया है।

इन सबके कुछ संक्षिप्त निष्कर्ष ये हैं- कार दुर्घटना में गम्भीर रूप से घायल एक व्यक्ति ने बताया कि पहले तो चोट की असह्य पीड़ा से उसका पूरा शरीर ऐंठ रहा था। कुछ देर बाद उस पीड़ा का एहसास खत्म हो गया। उसे लगा कि चारों और धूप अंधेरा है और वह अंधकार के उस अंतहीन विस्तार में तैर रहा है। इस प्रक्रिया में उसे बहुत ही सुखद विश्राम की अनुभूति हुई।

एक अन्य रोगी ने, जो शल्य क्रिया के दौरान मृत्यु के करीब जा पहुंचा था, कहा कि मुझे बहुत तेज आवाजें परेशान कर रही थी। यह शोर का अनुभव अनेक लोगों को हुआ। बाद में इन सभी ने यह अनुभव किया कि इस शोर और गहरे अंधेरे से उन्हें कोई खींचकर बाहर निकाल रहा है। इस खींचने के दौरान किसी को लगा वे अंधकूप से ऊपर आ रहे हैं किसी को तलघट से, किसी को अंधेरी घाटी से कुछ अन्य को अंधगुफा से, किसी को बीहड़ संकरे रास्ते से, किसी को अंधकारमय सिलेंडर से आदि।

इस प्रकार तीन बातें सभी अनुभव- कर्ताओं ने समान रूप से बताई- (1) दर्द, पीड़ा सब मौत के पास जाने के पहले की ही छटपटाहट होते हे। गम्भीर से गम्भीर चोट और कष्ट भी, मृत्यु के अत्यंत समीप जाने पर अप्रभावी हो जाते है और मीठी थपकी से जैसे उन्हें मृत्यु-माँ दुलारने लगती है।

(2) हवा में तैरने जैसा अनुभव होता है। (3) अंधेरे से ऊपर उठने का अनुभव होता है।

यह तो हुआ मृत्यु के तत्काल बाद का अनुभव। इस के थोड़े समय बाद लोगों को भिन्न-भिन्न अनुभव हुए। किसी को लगा कि उन्हें दूसरा शरीर तत्काल मिल गया है। किसी को लगा कि उनका शरीर हल्का और प्रकाश-पूर्ण है। कुछ अन्य ने अनुभव किया कि वे शुद्ध प्रकाश एवं चेतन-तत्व मात्र है। न कोई रूप, न आकृति। भारहीनता की स्थिति सबने समान रूप से अनुभव की। इसके बाद के अनुभव भी बड़े अंशों में एक-से हैं, पर साथ ही कुछ भिन्नताएँ भी हर एक में रही। समानता यह कि हर एक ने बाहरी सहयोग का प्रत्यक्ष अनुभव किया। भिन्नता यह कि किसी ने सहयोगी के रूप में अपने पूर्वमृत एक मित्र परिजन या अनेक मित्रों परिजनों को देखा तो किसी ने प्रकाश पुँज देवदूतों को। ये सभी एक तरह की ज्योति लिपटे थे, वे देवदूत हों या परिजन मित्र। उनके प्रकट होने पर किसी की आँखें चौंधिया गईं, किसी ने श्वेत, पवि« प्रकाश स्त्रोत देखा; उस प्रकाशपुँज के प्रति सभी ने प्रबल आकर्षण का अनुभव किया।

कुछ निष्ठावान ईसाइयों को ईसामसीह प्रकाश के रूप में दिखे, तो यहूदी लोगों ने देवदूत को देखा। दिल्ली की एक हिन्दू महिला ने देखा कि चार प्रकाशवान व्यक्ति आये है। उनमें से एक के हाथ में कागज-कलम है और वह कुछ लिख रहा है। एक अन्य हिन्दू ने वैतरणी पार की, धुँए और बादलों के बीच अंधेरे में दम घुटता महसूस किया फिर सहसा उसे हनुमान जी दिखे और चारों और प्रकाश भर गया।

पाश्चात्य देखो के ऐसे लोग, जिन्हें व्यक्तिगत रूप से किसी धर्म, मत विशेष के प्रति खिंचाव नहीं था, ऐसे अनुभवों से गुजरे मानो एक दिव्य ज्योतिर्मय आकृति उनके समक्ष प्रकट हुई।

सभी ने जो अनुभव बतायें, उनमें एक समानता यह थी कि प्रकट ज्योतिर्मय आकृतियों ने उनसे कुछ प्रश्न किये। पर ये प्रश्न भिन्न-भिन्न थे। प्रश्न प्यार भरे स्वर में थे, धमकी, चेतावनी या क्रोध के प्रभाव से भरे स्वर में नहीं।

डा. मूडी और सर विलियम बेरेंट, दानों के अध्ययन में एक समानता यह भी है कि जिन लोगों ने भी मृत्यु का यह अल्पकालिक अनुभव किया, वे सभी इस अनुभव के बाद अधिक करुणापूरित एवं आदर्शवादी हो गये। डा. मूडी एक ऐसे व्यक्ति से मिले, जो जीवन भर लोगों से तीव्र घृणा करता रहा और तिरस्कार पाता रहा। मृत्यु के उक्त अनुभव के बाद उसे प्रकाशमय व्यक्ति से इतना प्यार एवं दुलार मिला कि वह कहने लगा-”मैं जब तक जीवित हूँ, लोगों को अधिकतम प्यार करूंगा।” एक अन्य समानता यह रही कि ये सभी लोग अब शारीरिक मृत्यु के प्रति भय से मुक्ति अनुभव करते हैं।

जो लोग इस अनुभव से गुजरे हैं, उनका विश्लेषण किया जाये, तो यह स्पष्ट दिखेगा कि इस जीवन के संस्कारों और अपने प्रति पाली गई मान्यताओं का मरणोत्तर अनुभूतियों पर पर्याप्त प्रभाव रहा है। गीता में कहा गया है-” यं यं वापि स्मरन्भावँ, त्यजत्यन्ते कले-वरम्! तं तेवैति कौंतेयसदा तद्भावभावितः” अर्थात् मृत्यु के पूर्व जीवात्मा जिस भाव-जगत से संबद्ध होता हैं, वही भावनाएँ मरणोत्तर जीवन में सक्रिय रहती हैं।

ये भावनाएँ आकस्मिक नहीं होती। प्रायः मृत्यु के पूर्व व्यक्ति के मनश्पटल पर पिछला सम्पूर्ण जीवन घूमने कौंधने लगता है। सन्निपात की सी स्थिति में लोग उस समय बड़बड़ाहट में मन कर प्रमुख रूप से हावी घटनाएं और भावनाएँ ही होती हैं। जीवन भर के जागृत-सक्रिय संस्कार ही उस क्षण में, जब चेतन मस्तिष्क का नियंत्रण हट जाता है और अचेतन खुलकर खेलता हैं उभर आते हैं। इसीलिये मृत्यु के पूर्व सहसा कोई सद्भावना मन में लाकर सद्गति साधने की बाल-कल्पना किसी को नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उस समय ऐसी चालाकी भरी सजगता का अवसर नहीं मिल पाता। जो घनीभूत मनोभाव होता है, प्रतिफल पोषित-विकसित भावनाएँ होती हैं, वे ही प्रबल होकर उस समय छा जाती हैं। इसी से रामचरित-मानस में कहा गया हैं-

“जनम-जनम मुनि जतन कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥”

काव्योचित अतिशयोक्ति पूर्ण शैली में यहाँ तुलसी ने इसी तथ्य को उभारा हैं कि जब तक सर्वथा सहज भावभूमि ही प्रभुमय न हो जाय, अन्तकाल में ईश्वर-स्मरण की मनोदशा स्थिर नहीं रह पाती। इससे जन्म-जन्मोतर के प्रयासों की निष्फलता नहीं, अपितु उस उच्च चेतना-स्तर की दुस्साध्यता वर्णित समझनी चाहिए।

यही बात वृहदाण्यकोपनिषद में भिन्न ढंग से कही गई हैं- “तस्य हैतस्य हृदय स्प्राग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्राभति चक्षुष्टो वा मुध्नों वा अन्येम्यों वा शरीर देशेम्यस्तुत्कामन्तं प्रणोऽनूत्क्रामति।” (अ04 ना0 4/2)

अर्थात् मृत्यु के समय हृदय के अग्रभाग में प्रकाश होता है। उस प्रकाश के द्वारा यह जीवात्मा शरीर के चक्षु से, मूर्धा से अथवा अन्य किसी शरीर-छिद्र से निकलता है।

आगे यह बताया गया है कि मल-मूत्र द्वारों से निकलने पर नरक की, नाभि-छिद्रों से निकलने पर प्रेत-योनि की, आँखों आदि से निकलने पर उत्तम लोकों की तथा मूर्धा भेदनकर प्राण निकलने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

किस द्वारा से आत्मा निकलेगा, यह आकस्मिक नहीं होता। किस भाव-समूह के प्रति आकर्षण है, मन किस भावभूमि में अवस्थित हैं, उससे इस निष्क्रमण का संबंध है। मलमूत्र द्वार, कामापभोग, नाभिकेन्द्र, अर्थ-लोभ नेत्रादि का चिन्तनपरक मनःस्थिति से सम्बन्ध है। मूर्धा या सहस्रार में, आनन्दमय कोश में अवस्थिति से ब्रह्मलोक की प्राप्ति स्वाभाविक है, क्योंकि उस स्तर के व्यक्ति इस जीवन में भी ब्रह्म-चेतना से ही निरन्तर जुड़े रहते है।

जीवन की गहरी मान्यताएँ, आस्थाएँ और तदनुसार अपनाया गया सतत जीवनक्रम ही प्रधान भूमिका निभाते है। वैतरणी, चित्रगुप्त आदि मान्यता हिन्दुओं में है, तो उन्हें वे दिखते हैं। ईसाइयों को ईसा और यहूदियों को देवदूत दिखें। जो किसी धार्मिक मान्यता से नहीं बँधे हैं, उन्हें उत्कृष्ट जीवन क्रम होने पर प्रकाश और छल प्रपंचमय जीवन होने पर धुँआ, कोहरा दमघोट वातावरण दिख सकता है। मृत्यु के बाद भी वासना-समूह और संस्कार-समूह साथ लगे रहते हे। इन्हें ही भारतीय दर्शन में सूक्ष्म-शरीर व कारण-शरीर कहा गया है।

बाइबिल में “वेली ऑफ शेडों ऑफ डेथ” का उल्लेख है। अर्थात्-मृत्यु की छाया या प्रभाव-क्षेत्र की घाटी। अंधकार भरी घाटी, कुँए, गुफा आदि की अनुभूति से उसका मेल है।

नयी जिन्दगी पाने वाले लोगों की मृत्यु-मध्यान्तर की अनुभूति की ये विविधताएँ एक ही बात पर प्रकाश डालती हैं, कि जीवात्मा से जुड़ा संस्कार-जगत मृत्यु के बाद भी सक्रिय रहता है और वह अपनी मनःस्थितियों का वहाँ भी प्रक्षेपण करता है। यही बात इस जीवन में भी दृश्य जगत के प्रति हमारी अनुभूति के बाद में भी सत्य है।

व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति हमारी दृष्टि हमारी मनःस्थिति से प्रेरित-प्रभावित रहती है। एक व्यक्ति को एक संत अपनी उदात्त और अंतर्भेदी दृष्टि से देखते है। एक लोक सेवी संगठन उसे ही सामाजिक प्रवृत्तियों और सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से देखता है। कुछ लोग उसके प्रति एक भिन्न ही दृष्टि रखते हैं, जो रूप सौंदर्य की उनकी अपनी धारणा से बँधी होती है। सौंदर्य-शास्त्री उसके रूप-सौंदर्य को शास्त्रीय मानदंडों से देखता है। प्रेमिका-पत्नी अपनी विमुग्ध दृष्टि से देखती है। सहकर्मी प्रतिस्पर्धा और विनिमय की उपयोगिता की दृष्टि से देखते है और शत्रु विरोध की दृष्टि से। व्यक्ति एक ही है और देखने वाली आँखें मनुष्य की ही हैं, पर उसका विवरण इनमें से हर एक को लिखने को कहा जाय, तो उन विवरणों में परस्पर अत्यधिक भिन्नता होगी।

फिर, मनुष्य की अनुभूति-सामर्थ्य भी सीमित हैं। शरीर-वैज्ञानिकों के अनुसार जिन लोगों को देखने के अवसर मनुष्य को नित्य मिलते हैं, उनमें परस्पर अंतर उन्हें जल्दी दिख जाता है। किन्तु अजनबी लोग व्यक्ति को लगभग एक जैसे लगा करते है। उदाहरणार्थ सामान्य भारतीयों को कई चीनी या अनेक नीग्रो लगभग एक-से दिखेंगे। चीनियों या नीग्रो लोगों को हजारों भारतीय पुरुष एक जगह खड़े होते वे एक जैसे ही लगेंगे। सैकड़ों भारतीय स्त्रियाँ एक जैसी दिखेगी। अतः मृत्यु के बाद होने वाले ये अनुभव दृश्य का बारीकियों के हिसाब से भिन्न-भिन्न हैं, तो यह स्वाभाविक ही हैं, क्योंकि व्यक्ति-मन तो वहाँ भी रहता ही हैं, और उनकी मनःस्थिति दृश्य-जगत को अपने चश्मे से देखती हे। परन्तु अनुभूतियों में जो समान तत्व हैं वह विचार की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है।

इन अनुभूतियों से यही स्पष्ट होता है कि जीवन देह-नाश से समाप्त नहीं हो जाता। वह तो निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। जैसा कि गीता में कहा गया है- “मरण माना जीर्ण वस्त्र उतार कर फेंकना हैं।” जीवन का अविच्छिन्न प्रवाह आरोह-अवरोह के विभिन्न क्रम-संघातों के साथ निरन्तर गतिशील रहता है। दूसरा यह कि मृत्यु के बाद के जीवन की अनुभूतिक्रम में वर्तमान अनुभूतियों से एक तरह का सातत्य रहता है। अतः मरणोत्तर जीवन को श्रेष्ठ, सुखी बनाने के लिये इस जीवन में भी परिष्कृत दृष्टिकोण एवं समुन्नत जीवन कम अपनाना आवश्यक है।


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