शान्त एकान्त की शक्ति और उपयोगिता

April 1979

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प्रकृतिः शान्त वातावरण में निवास करने से उत्तेजना में नष्ट होने वाली शक्ति की बर्बादी रुकती हैं। और उस बचत को उपयोगी प्रयोजनों में लगाकर प्रगति का पथ-प्रशस्त किया जा सकता है। इसी प्रकार रात्रि के प्रकृति प्रदत्त अनुदान अन्धकार का लाभ उठाकर थकान मिटाने का ऐसा लाभ प्राप्त किया जा सकता है जिसके सहारे अधिक काम करने की क्षमता अर्जित की जा सकें।

योगाभ्यासी अपने व्यक्तित्व को अधिक विकसित करने की साधना करते हैं। भीतर की प्रमुख शक्तियों को जगाने के लिए भी उनका प्रयोग प्रयास चलता है। इस प्रयोजन के लिए उन्हें ऐसे स्थान में अपना निवास निर्धारित करना पड़ता है जहाँ अनावश्यक कोलाहल की पहुँच न हो और जहाँ रात्रि के समय कृत्रिम प्रकाश उत्पन्न न करना पड़े। दिन में सूर्य का और रात्रि में चाँद-तारों का प्रकाश ही सामान्य और स्वाभाविक निर्वाह के लिए पर्याप्त होना चाहिए।

स्तब्धता और अन्धियारी थी विनोद, मनोरंजन में भारी बाधक लगती है और ऐसी ऊब उत्पन्न करती है जिससे बचने के लिए हर किसी का जी करता है। फिर भी वैज्ञानिक दृष्टि से इनकी उपयोगिता दिन-दिन अधिक स्पष्ट होती जा रही है। विज्ञान के अनुसंधान हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं कि यदि शान्त, एकान्त स्थान में रह सकता रुचिकर हो सके तो उससे कोलाहल भरे स्थानों की अपेक्षा हर दृष्टि से लाभदायक उपलब्धियाँ ही करतलगत होगी। इसी प्रकार रात्रि को जितने समय जितने कृत्रिम प्रकाश से बचाया जा सके उतना ही उत्तम है।

निस्तब्धता एक बात है और तमिस्रा दूसरी। दोनों के सम्मिश्रण ने तीसरी स्थिति बनती है। जो सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों ही दृष्टि से अपने अद्भुत परिणाम प्रस्तुत करती है। भूमि खोद कर समाधि में बैठाने की साधना योगाभ्यासियों के लिए पुरानी है। मोटे तौर से वह कोई कौतुक-कौतूहल जैसी जादुई क्रिया-प्रक्रिया मालूम पड़ती है, पर तथ्यतः उसमें शरीर को उस स्थिति में रखने का अभ्यास है जिसे अन्तरिक्ष संव्याप्त भार-हीनता के समतुल्य माना जा सकता हैं आयुर्वेद शास्त्र में काया-कल्प चिकित्सा का विधान है। उसमें शरीर के पुनर्गठन नवीनीकरण की विधा सम्पन्न की जाती है। कहा जाता है कि इससे वृद्धता दूर होती है और यौवन लौट आता है। इस विधान में भी लम्बे समय तक एकान्त और अँधेरे में रहना पड़ता है। औषधि उपचार के अतिरिक्त इस विशेष स्थिति का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है उस का महत्व अधिक माना गया है। तपस्वियों के एकान्त-सेवा-गुफा निवास की बात तो सर्वविदित ही है। उसका कोई अतिरिक्त लाभ न हो तो व्यावहारिक दृष्टि स अनेकों असुविधाओं से भरी हुई इस स्थिति में रहने के लिए कोई क्यों तैयार होगा? अकारण अपने का इस विपन्नता में धकेलना किसी को क्यों सुहाना?

वैज्ञानिक साहित्यकार, शोधकर्ता, योगाभ्यासी प्रायः वैसी ही स्थिति तलाश करते है। भीड़-भाड़ के बीच उनका काम ठीक तरह हो ही नहीं पाता। चिन्तन और मनन के लिए तो विशेष रूप से एकान्त की ही आवश्यकता पड़ती है। आत्मानुसंधान में निरत योगाभ्यासी प्रायः एकान्त वन, पर्वतों की कन्दराओं में रहकर अपने प्रयोग सफलतापूर्वक सम्पन्न करते थे। अभी भी वैज्ञानिक अन्वेषणों के लिए प्रयोगशालाएँ ऐसे ही स्थान और वातावरण में बनी होती है जहाँ बाह्य विक्षेपों का प्रभाव कम से कम पहुँचे।

निस्तब्धता की क्षमता दोनों ही प्रकार की है। शोर के अभ्यस्त लोगों के लिए वह बहुत ही कष्ट कर होती है; किन्तु जिनके अभ्यास में आ जाती है-सहन होने एवं रुचिकर लगने लगती है। उनके लिए वह एक वरदान का काम करती है। रात्रि के समय मरघटों में, खण्डहरों या सुनसान स्थानों पर अकेले होने से डर लगता है। इस डर का कारण पूछने पर भूत, चोर, साँप आदि की बात कही जा सकती है, पर वस्तुतः वे शब्द कुछ ठोस उत्तर न होने के कारण ही कह दिये जाते है। जो लोग भूत प्रेत पर विश्वास नहीं करते या चोर, साँप आदि का सामना करने की हिम्मत रखते है वे भी अन्धेरे एकान्त से डर अनुभव करते है यह और कुछ नहीं स्तब्धता का अभ्यास न होने के कारण उत्पन्न रिक्तता की प्रतिक्रिया मात्र है।

रात्रि के सुनसान अन्धेरे में हवा से पत्ते खड़कने, पक्षियों के बोलने या कीड़ों के रेंगने स उत्पन्न हल्की ही आवाजें भी बहुत भयंकर लगती है और प्रतीत होता है मानों कोई भयंकर संकट ही सामने आ रहा हो। इसे अपने आप से अपरिचित होने के कारण असहाय और दीन-दुर्बल होने की अनुभूति ही कहा जा सकता है। वस्तुतः मनुष्य अपने आप से डरता है। जब तक औरों के अंचल में छिपा रहता है-भीड़ में खोया रहता है- तब तक अपने को सुरक्षित मानता है किन्तु जब उसे अपना दुर्बल स्वरूप देखने का अवसर एकान्त के समय मिलता है तो उसे बुरी तरह डर लगता है और इस स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए फिर भीड़ में घूमने की कल्पना या चेष्टा करता है। साधना के समय प्रायः एकाकीपन रहता है। अंतर्मुखी होने की चेष्टा चलती है। अपने आपे से अपरिचित मन इस स्थिति में रहने से डरता है। और भीड़ की तरफ दौड़ पड़ता है। उपासना में मन न लगने की, तरह-तरह के विचार उठने की,अजनबी कल्पनाएँ आने की, स्थिरता न होने की-शिकायत इसी आत्म-विस्मृति का चिन्ह है। ऐसे दुर्बल मन वालों को एकान्त की ध्यान साधना अनुकूल नहीं पड़ती। उन्हें कथा, कीर्तन, यज्ञ, तीर्थयात्रा, आरती, प्रार्थना जैसे सामूहिक धर्मानुष्ठान ठीक पड़ते है। बहिर्मुखी गतिविधियों का समावेश रहने से इस स्तर के लोगों का मन लग जाता है। ऐसे लोग दैनिक जीवन में भी भीड़ के साथ ही काम कर सकते है। यहाँ तक कि सोने के समय भी अन्य लोगों को साथ रखे बिना काम नहीं चलता। सो जाने के बाद भी उन्हें बत्ती जलाये रखने की आवश्यकता पड़ती है। ताकि अन्धेरे का संकट उनके ऊपर टूट न पड़े। जेल के नियम तोड़ने वाले कैदियों को वहाँ के अफसर कई तरह की स्थानीय सजा देते है। उनमें से एक है-एकान्त वास जिसे काल कोठरी कहते है; फिर भी अकेले दिन गुजारना इतना कठिन पड़ता है कि समय काटे नहीं कटना और कैदी बुरी तरह संत्रस्त रहने लगता है।

आमतौर से सामान्य मनुष्यों के लिए अन्तर्मुखी होना बहुत कठिन पड़ता है। वे दुनिया की बातें बहुत सोच सकते हैं और साँसारिक समस्याओं पर काफी ऊहापोह कर सकते हैं किन्तु आत्म-निरीक्षण और आन्तरिक समाधान की बात सोचना और उस दिशा में कुछ आगे तक बढ़ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं हो पाता, इसी प्रकार वे भीड़ के साथ रहने और गप बाजी करने में घन्टों गुजार सकते हैं, पर अकेले थोड़ी देर भी नहीं बैठ सकते। आत्म-संपर्क उनसे सधता ही नहीं, एकान्त में मन लगता ही नहीं। इसका कारण तलाश करने पर मनोविज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ऐसे व्यक्ति वे होते है जिनका मन अपने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अच्छा नहीं होता। वे उसे बुरा, पिछड़ा और घिनौना समझते है फलतः अपने साथ बैठने में उन्हें घृणा उपजती और नाराजी होती है। जिस प्रकार गन्दे और अविश्वासी लोगों के पास बैठने को जी नहीं करता। आत्म-चिन्तन से ऐसे ही लोगों का जी उचटता है और एकान्त उन्हें ही डर लगता है।

इसके विपरीत ऐसा भी देखा गया है कि उस एकान्त अन्धता की स्थिति में कई व्यक्ति आत्म-चिन्तन से ही तन्मय रहने लगे और अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को हटाने तथा विशेषताओं को बढ़ाने के लिए सुनिश्चित मार्ग ढूंढ़ निकालने में भी सफल हो गये। इस प्रकार यह स्तब्धता जहाँ अनभ्यस्त होने के कारण अखरी तो किन्तु थोड़े समय में वह न केवल सहन ही हो गई वरन् उपयोगी तथा रुचिकर भी लगने लगी।

जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों को उखाड़कर उनके स्थान पर मानवी गरिमा के अनुकूल दुष्प्रवृत्तियों को उलटने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियां जमाने के लिए ही आध्यात्मिकता, आस्तिकता और धार्मिकता का दर्शन बनाया और विधान खड़ा किया गय है। धर्म कृत्य का सारा सरंजाम इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। अन्तःचेतना को परिष्कृत करने के लिए ही स्वाध्याय सत्संग से लेकर पुण्य परमार्थ से लेकर तप साधना के विधि-विधानों तक अनेक धर्म-कृत्य किये जाते है। भजन, कीर्तन, जप, ध्यान, पूजा-पाठ का उद्देश्य इतना ही है कि ब्राह्मी चेतना का अन्तःकरण में उदय उद्भव हो सकें, संक्षेप में इस सारी विधा को आत्म परिवर्तन या आत्म-परिष्कार कह सकते हैं। इसी के लिए धर्म कलेवर का विभिन्न उपचारों के साथ प्रयोग होता रहता है।

देखा गया है कि जितना आवश्यक है उतना लाभ इन प्रयोजनों से हो नहीं पाता। कारण कि उनका प्रभाव कान, आँख, मस्तिष्क तक ही पहुँच पाता है। इन यन्त्रों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि किसी प्रभाव से देर तक प्रभावित नहीं रहते। अगले ग्रहण करने के लिए उन्हें पिछला भुलाना पड़ता है। पिछला पैर उठाने पर ही अगला पैर उठता है। प्रगति का क्रम यही है। इस लिए धर्मोपदेशों को भुला देने का दोष भी इन्द्रियों पर मस्तिष्क पर लादना व्यर्थ है। उनकी संरचना ही इस प्रकार की है कि वे भले या बुरे किसी भी प्रभाव को देर तक पकड़े नहीं रह सकती। अन्तःपरिष्कार के लिए आवश्यक है कि अन्तःचेतना की गहरी परतों का स्पर्श और परिवर्तन कर सकने योग्य उपाय ढूंढ़ा जाय। इसके लिए एकान्त सेवन की योग साधना में बहुत प्रशंसा है। जब वह सहन हो जाय तो गुफा गमन जैसे अन्धकार, अभ्यास को भी उसी में सम्मिलित कर लिया जाता है। योगी प्रायः इसी प्रक्रिया को अपनाते देखे गये हैं।

जर्मनी चीन और रूस के अधिनायक, राजनैतिक विरोधियों को, अपने मत बदलने और सहमत होने के लिए ‘ब्रेनवाशिंग’ पद्धति का उपयोग करते रहे हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। ब्रेनवाशिंग का तात्पर्य है-मस्तिष्क की धुलाई। अर्थात् पूर्व मान्यताओं का बदलाव। इसके लिए समझाने-बुझाने, लाभ-हानि सुझाने और लालच दिखाने का पुराना तरीका कमजोर मनःस्थिति के लोगों पर ही सफल होता है। कड़े विचारों वाले, सिद्धान्तवादी लोग प्रायः अपनी बात पर अड़े रहते हैं और परिवर्तन की अपेक्षा मरने या मारने की बात सोचते रहते हैं। ऐसे लोगों को मार देना तो सरल है पर उन्हें बदल कर जा लाभ उनके कुशल व्यक्तित्व से उठाया जा सकता है वह भी हाथ से चला जाता है। ऐसी दशा में बदलाव ही अधिक उपयुक्त सोचा गया और उसके लिए तरह-तरह के उपाय निकाले गये। शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न तथा भविष्य में इसी प्रकार तिलतिल मरने की विभीषिका एक और अनुभव कराई जाती है। दूसरी और बीच-बीच में उन सुखद परिस्थितियों का आस्वादन भी करा दिया जाता है। जो परिवर्तन कर लेने के उपरान्त सहज ही मिल सकती है। समझाने-बुझाने से लेकर डराने तक के विभिन्न परामर्श भी इसी के साथ-साथ चलते रहते हैं। इस प्रयास से अधिकाँश कट्टर भी नरम हो जाते हैं और सिद्ध करते हैं कि ‘ब्रेन वाशिंग कठिन नहीं सरल है। इन उपचारों के फलस्वरूप सामयिक ही नहीं स्थायी परिवर्तन भी होते देखा गया है। बन्धन मुक्त होने पर ऐसे विपक्षी सच्चे मन से पक्ष घर बन जाते है। अवसर मिलने पर दुबारा उलटते बहुत कम ही देखे गये है। अन्यथा उसी धारा में उनका मन एवं स्वभाव बहने लगता है जिसमें कि उन्हें प्रयत्नपूर्वक बताया गया था।

ब्रेन वाशिंग के लिए किये गये उत्पीड़नों से अँधेरी एकान्त कोठरी में रखना, बिना चोट या घाव का निशान लगाये सबसे अधिक दबाव डालने वाला तरीका सिद्ध हुआ है। इन कमरों की बनावट ऐसी होती है जिसमें बाहर की आवाज का एक शब्द भी नहीं जाने पाता और न रोशनी की कोई किरण पहुंचनी है। कैदी को अकेला बन्द किया जाता है। उस कोठरी में घंटी बजाने का एक बटन रहता है। जिसे तभी बजाने के लिए हिदायत की जाती है जब कि विचार बदलने के लिए तैयार हो। इस कमरे में रोटी, पानी, मलमूत्र विसर्जन, शैया, वस्त्र जैसे निर्वाह वस्त्र, जैसे निर्वाह आवश्यक साधना बदले और पहुँचाये जाते रहते है। इतने पर भी वह निस्तब्धता और तमिस्रा इतनी खलती है कि प्रायः एक दिन में ही बन्दी घबरा जाता है और आत्म-समर्पण की घंटी बजा देता है। दस दिन से अधिक तो कोई भी उस स्थिति को सहन नहीं कर सका हैं।

आस्थाओं के उलटने में तमिस्रा युक्त एकान्त सेवन का क्या प्रभाव हो सकता है इसकी झांकी ‘ब्रेन वाशिंग’ के नाम पर चलने वाले उत्पीड़न और उसके परिणाम को देखकर हो सकती है। इसका दूसरा पक्ष भी है कि उस स्थिति में मनःसंस्थान का स्तर प्रायः वैसा हो जाता है जैसा कि अन्तरिक्ष में पहुँचने पर भार विहीन स्थिति में शरीर को अनुभव होता है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को लाँघकर ऊपर पहुँचने के बाद इच्छा-शक्ति के सहारे शरीर की तनिक-सी गति देने पर किसी भी दिशा में चल पड़ना और बढ़ते जाना सहज सम्भव हो जाता है। इसी प्रकार अंध एकान्त में मस्तिष्क अन्य दबावों से मुक्त होकर अभीष्ट चिन्तन अपना कर मनचाही प्रगति कर सकता है। इस प्रकार यह स्थिति रचनात्मक प्रगति के लिए भी बहुत उपयुक्त बैठती है।

कनाडा के मनोवैज्ञानिकों ने इस अन्ध निस्तब्धता के समय कैसा अनुभव होता है, इसके परीक्षण किये हैं। इसके लिए ठीक ब्रेन वाशिंग में काम आने वाले कमरों की तरह ही कक्ष बनाये गये। उनमें बन्द किये जाने वाले लोगों ने बाहर निकल कर बताया कि वहाँ भी उन्होंने जोर-जोर की विचित्र आवाजें सुनी। सीटी,सरसराहट, धड़धड़ाहट, गरजन, खटपट, भगदड़ जैसे शब्द उनके कानों में आते रहते थे। यह आवाजें क्या हो सकती हैं इसका पता लगाने पर यही जाना गया है कि शरीर में होने वाला रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास जैसी हलचलों की ही प्रतिक्रिया थी। यही ध्वनि तरंगें उस कमरे में प्रतिध्वनित होती हैं और बन्दी उन्हें कहीं बाहर से आने वाली आवाजें समझता है।

इन कमरों में पहुँचने वालों ने और भी कई तरह के अनुभव सुनायें, कई उस कमरे में पहुँचते ही गहरी नींद सो गये और तीस चालीस घन्टे तक सो लेने के बाद उनकी आँख खुली। जब जागे तो उन्हें लगा कि पहले की तुलना में कहीं अधिक चेतनता और ताजगी उनमें आई। कई को बन्द होने से पहले खुजली, खाँसी, जुकाम, सिर दर्द आदि की जो शिकायतें थी वे अपने आप ही अच्छी हो गई। कइयों ने अन्तःप्रेरणा से ही अपनी नशेबाजी जैसी पुरानी आदतें छोड़ दी। तंबाकू जैसे अभ्यस्त नशे उनके पास मौजूद रहे, पर सहज अरुचि के कारण उनमें उन्हें छुआ भी नहीं अथवा एकाध कश लेकर ही फेंक दिया। कइयों की पुरानी स्मृतियां जागी और बीती घटनाओं को इस तरह अनुभव करने लगे मानों वे अभी कल परसों की ही हों। कई अपने प्रिय विषयों पर अधिक गम्भीरता और तन्मयता के साथ सोचने लग गये और महत्वपूर्ण नतीजों तक पहुँच सकने में सफल हो गये।

एकान्त सहन करने का प्राथमिक अभ्यास काफी कठिन होता है। उसमें मनोबल की आवश्यकता पड़ती है। आत्म-दमन करना पड़ता हैं और पुरानी भीड़-पसन्द आदत को समझा-बुझाकर कठिनाई से इस स्थिति में थोड़ा समय गुजारने के लिए सहमत करना पड़ता है। स्पष्ट है इतने भर अभ्यास से मनोबल बढ़ता है और प्रतिपक्षी अभ्यासों से जूझने और उन्हें निरस्त कर सकने की क्षमता का आत्म-विश्वास होता है। यह आत्मिक प्रगति की दृष्टि से अच्छी सफलता है। इसके सहारे भविष्य में आत्म परिष्कार के अन्य बढ़े-बढ़े उपाय अपनाये जा सकते हैं और विशिष्ट आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। थोड़े-थोड़े समय के लिए-मात्र एकान्त को-मात्र अन्धकार को सहन करने की-साधना के सहारे अभ्यास आरम्भ होना है तो आगे चलकर अन्धता युक्त एकान्त भी कठिन नहीं रहता।

पूर्ण एकान्त, पूर्ण अन्धकार का लाभ अधिक समय तक न मिल सके तो भी यह प्रयत्न करना चाहिए कि जब भी सुविधा हो-जितने समय भी सम्भव हो उसका लाभ उठाया जाना चाहिए। इसी प्रकार मन को भीड़-भाड़ के विचारों से हटाकर किसी एक प्रसंग पर नियोजित करने की ध्याना-धारणा को किसी न किसी रूप में क्रियान्वित करते रहना चाहिए।


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