जीवन का अर्थ है चेतना

April 1979

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जीवित कौन है और मृत कोन? इसके अलग-अलग दृष्टिकोण से अलग-अलग उत्तर दिये जाते रहे हैं। परन्तु सबका साराँश यही है कि जिसमें चेतना और क्रिया-शीलता हैं, वही जीवित है।

गीता में अर्जुन से श्रीकृष्ण ने कहा कि”सम्भावितस्य चाऽकीतिर्मरणादितिरिच्यते” अर्थात् सम्भ्रान्त व्यक्ति के लिये अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है।

अन्यत्र श्री वेदव्यास ने लिखा है- “ये पराधीन जन्मानस्ते चेज्जीवन्ति के मृताः” अर्थात् जो पराधीन है; वे यदि जीवित हैं, तो फिर मृत कोन हैं? यानी पराधीन होना मृत्यु है।

एक अन्य संस्कृत-कवि ने लिखा है-कि जो अपना ओर अपने परिवार का भली-भाँति भरण-पोषण नहीं कर पाता, ज्ञानार्जन में जिसकी रुचि नहीं है, श्रेष्ठ विचार जिसे व्यर्थ लगते हैं, जिसकी कीर्ति का प्रसार नहीं हुआ है और दूसरों के लिये जिसने कभी कुछ उत्सर्ग नहीं किया, वह स्वकेन्द्रित जड़ लाश की तरह है।

सामान्य-रीति से भी, जब कोई आन्दोलन या संस्था प्राणवान और गतिशील लोगों से रहित हो जाती हैं, तो लोग कहते है-अमुक आन्दोलन मर गया’। यद्यपि तब भी उसके हजारों लाखों सदस्य होते हैं। जब कोई व्यक्ति उत्साहहीन, शिथिल रहा आता है तो कहा जाता है- “क्या मुर्दा हो गये हो? “अब इसमें जान नहीं है।” किसी सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध व्यक्ति का सौंदर्य जब धूमिल पड़ जाता हैं, तो भी कहते हैं- “अब तो जान रही नहीं इसमें। “ किसी मूर्ति चित्र या साहित्यिक-कृति में यदि रस-संचार करने की सामर्थ्य न हो तो उसे निष्प्राण कहा जाता है।

आत्मिक-दृष्टि से, जिसमें आन्तरिक-जागरूकता और गतिशीलता नहीं है, उसे मृत कहा जाता है। शारीरिक-दृष्टि में भी जिसमें चेतना नहीं हैं, उसे ही मृत कहा जाता है। जब तक चेतन विद्यमान है, जीवन की सम्भावना विद्यमान है। उसे स्थिति में, भले ही कुछ समय के लिये व्यक्ति निष्क्रिय, निढाल हो गया हो, उसे मृत नहीं कहा जाता। चेतना का अभाव ही मृत्यु कहलाता है।

श्वसन-क्रिया और हृदय-गति का अवरोध, नाड़ी की गति रुकना, रक्त-संचार समाप्त दिखना, ये सब जीवाणुओं के आन्तरिक-क्षय के लक्षण हैं, मृत्यु की सम्भावना के द्योतक हैं। किन्तु जब तक मस्तिष्क में चेतना विद्यमान हैं, इस क्षय को रोकने की सम्भावनाएँ भी पूरी-पूरी हैं। उसी प्रकार जैसे देह-व्यापार में, पेट और प्रजनन के प्रयोजनों में लिप्त रहना ही आध्यात्मिक-दृष्टि से निष्क्रियता और क्षरण का द्योतक तो है, किन्तु तो भी मानवीय-चेतना के जाग उठने और ऊर्ध्वगामी बन सकने की सम्भावनाएँ उस स्थिति में भी बनी रहती हैं।

इसीलिये अब शरीर-शास्त्री किसी व्यक्ति की “सेण्ट्रल नर्वस-सिस्टम” से संचालित समस्त जीवन-क्रियाएँ बन्द होने पर भी उसे तब तक मृत नहीं मानते, जब तक मस्तिष्क में चेतना की विद्युत-तरंगें ही नहीं समाप्त हो जाती। ऐसे अनेक प्रमाण भी अब तक सामने आ चुके हैं कि “सेरिब्रल डेथ” यानी शारीरिक गतिविधियों की समाप्ति के बाद भी, व्यक्ति पुनः जीवित हो उठे, क्योंकि उनके मस्तिष्क में चेतन-विद्युत अवशिष्ट थी।

सन 1936 का 14 नवम्बर। पुलिस, न्यूयार्क के सेट-विन्सेण्ट चिकित्सालय में हैरिस दायले नामक व्यक्ति को पोस्टमार्टम के लिये ले गयी। क्योंकि उसकी मृत्यु का कारण अज्ञात था।

डाक्टर ग्लैडिम पोस्टमार्टम-कक्ष में पहुँचे। वहाँ नर्सों व सहायकों ने सारी तैयारी कर रखी थी। ग्लैडिस ने पोस्टमार्टम शुरू किया। पहला चीरा लगते ही हैरिस हड़बड़ा कर उठ बैठा और डाक्टर की गर्दन धर दबोची। चपरासी और भृत्य उस प्रत्यक्ष भूत को देखते ही सर पर पैर रखकर भागे। डाक्टर की घिग्घी बँध गई। उसकी जीभ तालू से चिपक गई। हृदय का धड़कना बन्द हो गया और आंखें भाव-शून्य हो गई। वह भय की अधिकता से मर गया था। हैरिस पोस्टमार्टम-कक्ष के बाहर आया। बाद में, उसके चीरे के घाव की मरहमपट्टी की गई और एक सप्ताह में वह शहर पूर्ववत् जीवन बिताने लगा।

ऐसी ही एक घटना एडिनबरा में घटी वहाँ एक महिला-कर्मचारियों के सामूहिक-आवास में रहती थी जोजियाना। वह बीमार पड़ीं। फिर मर गई। लोग दफनाने की तैयारी करने लगें। पर वहाँ की संरक्षिका श्रीमती रेमण्ड एक जागरूक और नई-नई जानकारियों से सम्पन्न महिला थी। उन्होंने “क्लीनिकल डेथ” और “सेल्यूलर डेथ” का अन्त्र पढ़ रखा था। वे बोली-”लाश अभी यही रहेगी। जब तक सड़ नहीं जाती। “

जोजियाना का शरीर दस दिन तक यो ही पड़ा रहा। इसके बाद उसमें हलचल हुई। वह उठ बैठी। उसकी मालिश वगैरह की गई। भोजन दिया गया। वह सामान्य जीवन जीने लगी।

भारत में भी गोवा में एक पादरी की मृत्यु के बाद इसी प्रकार जी उठा। उसे दफनाने की तैयारी पूरी हो गई थी। उसका प्रिय भजन गाया जा रहा था। तभी उस मृतक के भी होंठ हिलने लगे। भक्तों ने इसे ईश्वरीय-कृपा से मिला नव-जीवन समझा और चमत्कृत हो उठे।

ये तो हुए ये सौभाग्यशाली मुर्दे, जो जिन्दा-भूत बनने का सुअवसर पा सकें। पर सभी को यह स्वर्णिम सुयोग नहीं मिलता और तब उन्हें कब्र या ताबूत में ही तड़प-तड़प कर मर जाना पड़ता हैं।

20 अप्रैल 1896 के कलकत्ता में अँग्रेज डाक्टर अर्नेस्ट घर में एक प्रीति-भोज का आयोजन किया गया। एक युवक-अफसर फैंक लेजली भी उसमें सम्मिलित हुआ। सहसा, अपनी कुर्सी पर भोजन करते-करते ही उसकी गर्दन एक और झुक गई। उसने दम तोड़ दिया था। उसे कब्रिस्तान में दफना दिया गया। परन्तु उसके सम्बन्धियों का आग्रह था कि उसे ऊटकमण्ड में उस गिरजा-घर के अहाते में दफनाया जाय, जहाँ फ्रैंक के माँ-बाप की कब्र है। लिखा-पढ़ी में समय लग गया। अन्ततः अनुमति मिल गई।

ठीक 1 माह बाद, 20 मई 1896 के दिन उसका ताबूत खोदकर बाहर निकाला गया। शव वही है, इसकी पुष्टि करने के लिये ताबूत खोला गया तो लोग चौंक पड़ें। था तो शव फ्रैंक का ही, पर उसे लिटाया गया था चित्त-वह लेटा था औंधा। कपड़े पहनाये गये थे-नये। अब उसके कपड़े कई स्थानों से फटे थे। हाथ छाती पर क्रास बनाकर रखे गये थे, पर एक हाथ की अँगुलियाँ चबाई हुई थी, दूसरा हाथ यो ही टेड़ा पड़ा था।

स्थिति स्पष्ट थी। ताबूत में बन्द वह युवक दफनाने के बाद जिन्दा हो गया था। वहाँ उसने जाने कब तक हाथ-पैर मारे होंगे। असह्य छटपटाहट और क्रोध से अपना ही हाथ चबा डाला। अन्ततः वही तड़पकर मर गया।

यही स्थिति कुस्तुन्तुनिया की एक कब्र में गढ़े मुर्दे के साथ देखी गई। कब्र में दरारें पड़ गई थी। आशंकित हो उसे खोदा गया। तब पता चला कि बेचारा मृतक जीवित हो उठा था। उसने हाथ-पैर मारे, जिससे चोटें आ गई खून बहने लगा। कब्र तोड़ने की भी उसने पूरी कोशिश की। अन्ततः तड़पकर मर गया।

एक अन्य व्यक्ति अपने वफादार कुत्ते के कारण जिन्दा दफनाये जाने से बच गया। बात मैक्सिको की है। सम्बन्धी तो व्यक्ति को मृत समझ दफनाने की तैयारी करने लगे, पर कुत्ते को बाँध दिया गया। वह रस्सी तुड़ाने की जी-तोड़ कोशिश करता रहा। इधर लोग ताबूत लेकर चले, उधर कुत्ता रस्सी तोड़ने में सफल हो गया। क्रोध से वह स्वामी को यों ही लजा रहे लोगों पर टूट पड़ा। आकस्मिक आक्रमण से ताबूत लोगों के हाथ से गिर पड़ा और टूट गया। उसे पूरी तरह अलग किया गया, ताकि नये ताबूत में बन्द किया जा सके। पर, तब तक मृतक जीवित हो चुका था और कुत्ता खुशी से उछल रहा था।

इन्हीं सब अनुभवों के आधार पर अब चिकित्सकों-वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि जब तक मानव-मस्तिष्क पूर्ण निस्तब्धता न आ जायें; उसे पूरी तरह मृत नहीं कहा जा सकता। भले ही उसके हृदय की धड़कन बन्द हो गई हो, किन्तु-यदि मस्तिष्क से विद्युत-तरंगें उठ रही हैं, तो मृत्यु नहीं मानी जा सकती।

मूर्च्छा से मृत व्यक्तियों में जीवन की सम्भावना प्रायः बनी रहती हैं। चिकित्सक मृतकों का ई.ई.जी. (इलेक्ट्रो एन्सफालो ग्राम) लेते हैं, यानी मस्तिष्क की विद्युत-तरंगों का परीक्षण करते हैं। यदि ई.ई.जी. की रीडिंग फ्लैट यानी ‘सीधी रेखा’ में आये तो इसका अर्थ है कि मस्तिष्क में विद्युत-तरंगें उठ रही हैं और वह व्यक्ति जीवित है। जब तक मस्तिष्क में विद्युत-तरंगें विद्यमान हैं, शरीर में सड़न नहीं पैदा होती। भले ही साँस या हृदय की धड़कने बन्द दिख रहीं हों। कोशाओं को प्राणवायु न मिलने से उनमें मूर्च्छा तो आ जाती है, परन्तु सजीवता विद्यमान रहती है।

इस प्रकार मृत्यु की परम्परागत मान्यताएँ अब रद्द हो चली हैं। जीवन का मूल सम्बन्ध नाड़ी, साँस, हृदय की गति से नहीं, मस्तिष्क में चेतना की उपस्थिति से है। मस्तिष्क ही मनुष्य के समस्त सम्वेदनों का भी केन्द्र है, और हलचलों का भी। जब तक मस्तिष्क सक्रिय है, तब तक मनुष्य जीवित है।

तो क्या मस्तिष्क ही जीवन का केन्द्र है? उत्तर स्पष्ट है। मस्तिष्क नहीं, उसमें क्रियाशील चेतना ही जीवन का स्त्रोत है। मस्तिष्क तो मुर्दे में भी रहता है। पर चेतना के अक्षय स्त्रोत से जब उसका सम्बन्ध टूट जाता है, तब फिर जीवन की कोई भी सम्भावना नहीं बचती। जब तक उस चेतना-समुद्र से सम्बन्ध कायम है, तभी तक जीवन है।

यह सम्बन्ध सिर्फ शरीर के तल पर नहीं, अन्तःकरण के तल पर भी जागृत रहे, जीवन का लक्ष्य सामने रहें, और उसके अनुरूप गतिविधियां अपनाई जाती रहें, तभी सचमुच जीवित कहा जाना चाहिए। लक्ष्यविहीन गति-विधियों में घिसट रही जिन्दगी तो लाश ढोने का ही पर्याय है।


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