नीतिमत्ता-सर्वमान्य योग्यता

April 1979

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वाराणसी नरेश ब्रह्मदत्त की अपने राज पुरोहित दव-मित्र पर टूट श्रद्धा और अनन्य निष्ठा थी। उनके व्यक्तित्व में विद्वता, योग्यता और प्रतिभा के स्वर्ण के साथ शील, सदाचार और नैतिकता की सुगन्ध भी व्याप्त थी। अतः राजा की यह निष्ठा और श्रद्धा सहज स्वाभाविक थी। राजा की ही बात नहीं, वाराणसी राज्य के ही नहीं अन्यान्य राज्यों के विद्वानों में उनका अच्छा सम्मान और वहाँ की जनता में उनके प्रति अपार भक्ति भाव था। वे जहाँ भी जाते जन-जन उनके आगे श्रद्धानत् हो जाया करता था।

वाराणसी नरेश का तो उनसे निकट का संपर्क था। वे तो उनके उच्च उदात्त चरित्र और प्रखर व्यक्तित्व से इतना अधिक प्रभावित रहते थे। भला ऐसे ब्राह्मण के प्रति कौन श्रद्धावान न होता।

राजपुरोहित देवमित्र के मन में एक दिन यह प्रश्न उठा कि उनके प्रति राजा और प्रजा की जो श्रद्धा और सम्मान है उसका कारण क्या है? वे पाण्डित्य, शास्त्र ज्ञान रूप और व्यक्तित्व की प्रखरता को लेकर मेरा सम्मान करते हैं या मेरे शी, सदाचरण और नैतिकता के कारण? वे इस प्रश्न का उत्तर चाहते थे। उन्होंने इसका उत्तर पाने के लिये कुछ दूसरा ही आचरण किया, अगले दिनों।

एक दिन राजसभा विसर्जन पर राजपुरोहित देवमित्र अपने घर लौट रहे थे, उन्होंने राजकोष में से एक काषार्पण (सिक्का) उठा लिया। कोषाध्यक्ष ने राज पुरोहित का यह अनुचित आचरण देखा, पर उसे अनदेखा कर दिया। सम्भवतः वह यह सोचकर रह गया हो कि पुरोहित जी ने किसी प्रयोजन विशेष से काषार्पण उठाये है सो कल उस प्रयोजन को स्पष्ट कर देंगे।

दूसरे दिन भी पुरोहित ने राजसभा से लौटते हुए पहले दिन की तरह ही काषार्पण उठा लिये। उस दिन भी कोषाध्यक्ष ने उनके इस आचरण का वैसा ही अर्थ लगाया और उनके इस आचरण को अनदेखा कर दिया। पर तीसरे दिन भी जब पुरोहित ने राजसभा की समाप्ति पर घर जाते समय मुट्ठी भर काषार्पण उठा लिये और वे अपनी राह चलने को उद्यत हुए तो कोषाध्यक्ष ने लपक कर उनका हाथ थाम लिया और सैनिकों की ओर उन्मुख होकर बोला-”यह धूर्त चोरी करता है इसे न्याय पीठ में उपस्थित करो”

पतित आचरण के कारण राज पुरोहित के साथ राज्य कर्मचारियों ने वैसा ही व्यवहार किया जो एक चोर के साथ किया जाता है। उनके हाथ बाँधकर नंगे पाँव राजमार्ग पर पैदल ही ले जाया गा न्यायालय में उन्हें राजा के सम्मुख न्याय के लिये उपस्थित किया गया। राजा ने उनसे उसी प्रकार प्रश्न पूछे, कोषाध्यक्ष से पूछताछ की और राज पुरोहित के दुष्कर्म पर आश्वस्त होकर निर्णय सुनाया-”यह व्यक्ति चोर है इसने राजकोष से एक बार नहीं तीन-तीन बार धन चुराया हैं इसके दक्षिण हस्त की एक अंगुली काट ली जाय ताकि वह आगे से सचेत रहे और ऐसे कुकर्म से विरत ही रहे।”

राजा के इस निर्णय से राज पुरोहित को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गा। उन्होंने राजा से कहा, अपने धीर गम्भीर स्वर में-”राजन्! मैं चोर नहीं हूँ। मैंने चोरी किस प्रयोजन से की थी उसे मैं अब आपके सामने प्रकट करता हूँ। मैं यह जानना चाहता था कि आप मुझे जो श्रद्धा, जो सम्मान दिया करते थे उसकी सच्ची अधिकारिणी मेरी योग्यता और विद्वता थी या मेरा शील, सदाचरण और नैतिकता। आज यह स्पष्ट हो गया कि विद्वता, ब्राह्मणत्व और रूप का अपना महत्व तो है, पर यदि वह शील, सदाचरण और नैतिकता में च्युत हो जाय तो उसकी ये क्षमताएँ उसकी रक्षा नहीं कर सकती। शील सदाचरण और नैतिकता ही मेरे सम्मान का मूल कारण थी। उनके च्युत होते ही मैं दण्ड का अधिकारी बन गया।”


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