अपनों से अपनी बात - 24 गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना

April 1979

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तीर्थ संस्थानों के माध्यम से धर्म चेतना का अभिवर्धन करने में रहने वाली सरलता और मिलने वाली सफलता को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शियों ने उनकी स्थापना पर बहुत जोर दिया था और उन्हें प्रेरणा केन्द्र बनाने में कुछ उठा न रखा था। विभिन्न तीर्थों के माहात्म्य पुराणों में अत्यधिक विस्तार के साथ लिखे गये हैं। इसका प्रयोजन इतना ही था कि जन साधारण को वहाँ पहुँचने के लिये उकसाया जाय। इस निमित्त जो समय श्रम एवं धन खर्च होता है उसकी तुलना में मिलने वाले प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ की मात्रा अत्यधिक समझी गई। तभी से यह माहात्म्य वर्णन का सिल-सिला चला। अन्यथा यदि मात्र पर्यटन और देव दर्शन जैसा सामान्य लाभ रहे होते तो ऋषियों को उनके उनके लिए उपयोगी मार्ग दर्शन की व्यवस्था इन तीर्थ स्थानों में रहती थी। मनीषियों के आश्रमों में पहुंचकर यात्री-गण अपनी सामयिक समस्याओं के समाधान तथा भविष्य के लिए उपयोगी निर्धारण का समुचित परामर्श प्राप्त करते थे। अस्पताल में भर्ती होकर रोगी जिस प्रकार सुव्यवस्थित चिकित्सा का लाभ प्राप्त करते है, उसी प्रकार तीर्थ में स्वल्प समय रहने वाली भी साधना, स्वाध्याय एवं सत्संग का अति महत्वपूर्ण लाभ लेते थे। लौटने पर उन्हें कायाकल्प जैसा लाभ मिलता था। प्राकृतिक सौंदर्य, पवित्र जलाशय, ऐतिहासिक परम्पराएँ जैसे कारणों के मिल जाने से तीर्थों का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता था। तीर्थ-वास का जो पुण्य-फल धर्म ग्रन्थों में बताया गया है, उसके आधार पर वहाँ लिए अत्यधिक प्रोत्साहन देने और बढ़े-चढ़े लाभ बताने की आवश्यकता न पड़ती।

तीर्थ यात्री पद यात्रा पर निकलते थे। मार्ग में जन-जन से संपर्क साधते हुए धर्म चेतना उगाते-बढ़ाते थे। गाँव-गाँव में सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए वातावरण उत्पन्न करना- घर-घर नव-जीवन का अलख जगाना तीर्थ यात्रा का प्रधान उद्देश्य था। उन दिनों हर तीर्थ में ऐसे उच्चस्तरीय आरण्यक थे जहाँ पहुँचने पर उपयोगी प्रेरणाएँ उपलब्ध की जा सकती थीं। भ्रमितों को प्रकाश और विक्षुब्धों को समाधान मिलने की वहाँ पूरी सुविधा रहती थी। गुरुकुलों में छात्रों का- आरण्यकों में वानप्रस्थों का-जहाँ साँगोपाँग प्रशिक्षण चलता था वहाँ, कम समय के लिए अवसर पाने वाले सामान्य मनुष्यों को पहुँचने वालों की पूर्व निर्धारित श्रद्धा मनोभूमि की अपनी विशिष्टता थी।

आस्था अपने आप में एक दिव्य शक्ति है। किसी व्यक्ति, स्थान आदर्श या कृत्य पर आस्था जम सके तो उसके संपर्क की प्रतिक्रिया सहज ही श्रेयस्कर होती है। ऐसे-ऐसे कारणों से तीर्थों को कल्प वृक्ष माना जाता था। वहाँ पाप प्रायश्चित से लेकर पुण्य सम्वर्धन आत्मबल सम्पादन तक के अनेकानेक प्रयोजन पूरे होते थे। ऋषियों को एक स्थान पर बैठे-बैठे अनेकों आगन्तुकों के माध्यम से अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों को व्यापक क्षेत्र में विस्तृत करने की सुविधा मिलती थी। फलतः वे प्रेरणा केन्द्र बने रहते थे और जो पुण्य फल माना बताया जाता था उसकी यथार्थता प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष ही सिद्ध होती रहती थी।

तीर्थ एकं क्षेत्रीय मण्डल में धर्म-चेतना उत्पन्न करते और उस प्रदेश की समस्याओं को सुलझाने में अति महत्वपूर्ण भूमिकाएँ पूरी करते थे। इसीलिए तीर्थ पुरोहितों को ‘मण्डलाधीश’ या मण्डलेश्वर’ कहते थे बहुत बड़े क्षेत्र का उत्तरदायित्व जिनके कंधों पर होता था उन्हें महा मण्डलेश्वर कहते थे। वे संपर्क क्षेत्र के लोगों को विशेष रूप से और अन्य क्षेत्रों के लोगों को सामान्य रूप से किसी पर्व विशेष पर एकत्रित करते थे। सामयिक प्रेरणाओं से उन आगंतुकों को अनुप्राणित करते थे। ऐसे आयोजन तीर्थ-मेले कहे जाते थे। पर्व स्नान के रूप में उस अवसर पर असंख्यों धर्म प्रेमी जमा होते थे और स्नान ध्यान के सामान्य क्रिया कृत्यों के अति-रिक्त अपने लिए-अपने कार्य क्षेत्र के लिए अभिनव मार्ग दर्शन, बल एवं उत्साह लेकर वापिस लौटते थे उत्तर भारत और मध्य भारत में चार कुँभ और चार अर्ध कुँभी चार प्रमुख तीर्थों में इस प्रकार नियोजित किये गये थे कि समीप-वर्ती क्षेत्रों का महत्वपूर्ण जन वर्ग वहाँ एकत्रित होकर व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था की सामयिक समस्याओं का समाधान ढूंढ़े। मनीषियों मा मार्ग दर्शन प्राप्त करें। सोमवती अमावस्या, सूर्य चंद्र ग्रहण, एवं विशेष पर्वों पर विशेष तीर्थों में विशेष मेले भरने का क्रम इसी उद्देश्य के लिए चला। वह अपना लक्ष्य पूरा करने में चिरकाल तक सफल भी रहा।

तीर्थों की उपयोगिता देखते हुए उनकी स्थापना के लिए विशिष्ट व्यक्तियों ने विशिष्ट प्रयत्न किये है। आद्य शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की। उनके पीछे देश की साँस्कृतिक एवं भावनात्मक एकता को सुदृढ़ बनाने के दूरगामी उद्देश्य थे। चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज क्षेत्र के अधिकाँश तीर्थों का जीर्णोद्धार तथा नव निर्माण कराने में सफल प्रयत्न किया। इन दिनों व्रज क्षेत्र में जो धार्मिक आकर्षण दीखता है, उसके पीछे चैतन्य महाप्रभु की योजना ही फलवती हो रही है। महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास ने गाँव-गाँव देवालयों की स्थापना के लिए जीवन भर अथक प्रयास किया।

तीर्थों की स्थापना का उद्देश्य धर्म प्रचार की पद यात्राओं के लिए सुविधा व्यवस्था बनाने के अतिरिक्त यह भी था कि उन प्रेरणा स्रोतों से समीपवर्ती क्षेत्रों को-धर्म चेतना को प्रखर बनाये रहने की प्रभावी प्रेरणा उपलब्ध होती रहे। वैयक्तिक उत्कृष्ट और सामाजिक प्रगति शीलता के दुहरे लाभ जिस सरलता और सफलता के लिए जन साधारण को मिलते रहे उसे देखते हुए लोक श्रद्धा उनके प्रति उमड़ती गई और उनका महत्व, विस्तार एवं आकर्षण निरन्तर बढ़ता गया। उसी विकास क्रम के आधार पर तीर्थ क्रमशः अधिक समृद्ध बनते हुए वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं।

आज की स्थिति विचित्र है। मध्यकालीन अन्धकार युग ने भारतीय गरिमा के प्रायः सभी स्रोतों को बुरी तरह उलट-पुलट कर रख दिया है। धर्म सिद्धान्तों, उपासना उपक्रमों सत्परम्पराओं में जिस कदर विदूषक विकृतियाँ भर गई हैं इसे देखते हुए उन्हीं लोगों का आक्रोश सही लगता है जो धर्म को पानी पी-पी कर कोसते हैं ओर उसे उखाड़ने-उजाड़ने पर उतारू हैं।लोक श्रद्धा का निहित स्वार्थों द्वारा शोषण करने के लिए ऐसी भ्रान्तियाँ फैलाई गई जिनके सहारे भोले भावुक लोगों की हजामत उलटे उस्तरे से बनाना सम्भव हो सकें। तीर्थों में जाने वाले धर्म-प्रेमी लोग अपनी संचित श्रद्धा को किस प्रकार गँवा कर वापिस लौटते हैं इस प्रसंग पर कटु चर्चा करने की आवश्यकता नहीं, इसे हर भुक्त भोगी-भली प्रकार जानता है और समय-समय पर उसकी दुख भरी भर्त्सना भी व्यक्त करता रहता है। विदेशों में विनोदात्मक पर्यटन केन्द्रों की भरमार है। भारत में प्रेरणा स्रोतों के रूप में तीर्थों की स्थापना जिस उद्देश्य से हुई थी, उसका तो एक प्रकार से प्राण ही निकल गया, विशुद्ध पर्यटन का मनोरंजन भी उपलब्ध नहीं है। जाने को तो लाखों-करोड़ों व्यक्ति हर साल अगणित स्थानों की तीर्थ यात्रा करते हैं, पर वे वहाँ से क्या कुछ कमाकर और क्या कुछ गँवाकर आते हैं उसका लेखा जोखा लेने पर भारी निराशा ही हाथ लगती हैं।

इन दिनों नये सिरे से नये निर्माण और नये निर्धारण हो रहे है। जीर्णोद्धार और नव निर्माण के प्रयासों में ऐसी हलचलें हो रही हैं जिनमें चिर पुरातन को चिरनवीन के साथ जोड़ा जा सकें। युग परिवर्तन की पुण्य प्रक्रिया यही है कि व्यक्ति को सुसंस्कृत और समाज की समुन्नत बनाने की इस पुण्य प्रक्रिया की पुनः प्राण प्रतिष्ठा की जाय। जिसे अपना-कर हमारे महान पूर्वज देवोपम जीवन यापन करते हुए इस पुण्य-भूमि को स्वर्गादपि गरीयसी चिरकाल तक बनाये रहे। अतीत के उसी महान गौरव को वापिस लाने के भागीरथ प्रयत्नों को एक शब्द में युग निर्माण अभियान कह सकते हैं।

इस नव सृजन का शुभारम्भ भी तीर्थ स्थापना के साथ-साथ हुआ है। मथुरा में स्थापित गायत्री तपोभूमि युग निर्माण योजना विशुद्ध तीर्थ है। दूसरी स्थापना हरिद्वार का शान्ति कुँज ब्रह्म वर्चस भी प्राचीन काल की तीर्थ परम्परा का अभिनव संस्करण है। इन दानों तीर्थों का स्वल्प कालीन इतिहास यह बताता हैं कि यदि तीर्थ परम्परा को पुनर्जीवित किया जा सके तो उसे सत्परिणाम भी वैसे ही महान हो सकते है; जैसे कि चिरकाल तक इस भारत भूमि की गरिमा को बढ़ाने में समर्थ होते रहे हैं। यमुना तट पर बनी गायत्री तपो-भूमि युगनिर्माण योजना है और गंगा तट पर निर्मित शान्ति-कुँज ब्रह्म वर्चस दोनों मिल कर नव युग का त्रिवेणी संगम उत्पन्न कर रहे हैं। जो इन संस्थानों के स्वरूप प्रयास और उनकी परिणित से परिचित हैं वे जानते हैं कि थोड़े ही समय में स्वल्प साधनों से इन संस्थानों के द्वारा युग परिवर्तन की व्यक्ति देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की जो भूमिका निभाई गई है वह कितनी महत्वपूर्ण है। इन आश्रमों के संपर्क में रहने वाले उन्हें अनुपम और अद्भुत कहते-कहते नहीं थकते। उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देने वाले महान प्रयत्नों में इन दोनों तीर्थों की भूमिका को भावी पीढ़ियाँ कभी भी विस्मृत कर सकें ऐसा संभव नहीं है।

इन दोनों गायत्री तीर्थों की असंदिग्ध उपयोगिता को देखते हुए आवश्यक समझा गया है कि देश भर में युग की आवश्यकता पुरी कर सकने वाले गायत्री तीर्थों की स्थापना की जायं गायत्री भारतीय संस्कृति का प्राण है। वेदमाता, देवमाता विश्वमाता के रूप में उसकी भूमिका प्राचीन काल में भी महान थी। नव-युग में भी उसी बीज मंत्र का विस्तार विश्व संस्कृति के देव संस्कृति के रूप में होगा उसे नव-युग की कल्प वृक्ष प्रेरणा उद्गम कहा जायगा। इन 24 अक्षरों में ज्ञान और विज्ञान के वे सभी तत्व मौजूद हैं जिनके सहारे व्यक्ति की उत्कृष्टता और समाज की सुव्यवस्था का पुनर्निर्धारण संभव हो सकें। आज का ‘आस्था संकट’ ही प्रस्तुत समस्याओं-विभीषिकाओं का एक मात्र कारण है। समाधान के लिए लोक मानस में उत्कृष्ट आदर्श वादिता की ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्रतिष्ठापना रखनी होगी। इस प्रयास का सार्वभौम सूत्र संचालन करने की जैसी क्षमता गायत्री मंत्र में है। वैसी अन्यत्र उपलब्ध हो सकना कठिन है। युगान्तरीय चेतना का प्रादुर्भाव प्रज्ञावतरण के रूप में हो रहा है। प्रज्ञा अर्थात् ऋतम्भरा प्रज्ञा। धार्मिक भाषा में इसे ज्ञान यक्ष का अनुष्ठान और सामाजिक भाषा में विचार क्रान्ति अभियान कह सकते हैं।

पिछले दिनों गायत्री मंत्र पूजा पाठ के काम आने वाला एक छोटा-सा निमित्त कारण था, पर अब उसका विकास-विस्तार पूर्व काल के सतयुग की भाँति ही होने जा रहा है। सृष्टा के संतुलन प्रयासों के निमित्त उभरने वाली प्रचंड प्रेरणाएँ अवतार कहलाती हैं। यदा-यदा हि धर्मस्य ......... का आश्वासन देने वाली नियामक सत्ता-असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए विभिन्न रूपों में अपनी भूमिकाएँ निभाती रही है। इन दिनों उसका स्वरूप प्रज्ञावतार के रूप में हो रहा है। प्रज्ञा अर्थात् गायत्री-गायत्री अर्थात् विवेकशीलता-शालीनता पौराणिक प्रतिपादन के अनुरूप यही निष्कलंक अवतार है। नव युग के अनुरूप लोक मानस उसी को विनिर्मित करना है। इस युग शक्ति की गति-विधियों को व्यापक बनाने के लिए गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना कितनी महत्व पूर्ण होगी, इसकी कल्पना से सहज हीं भाव संवेदनाओं में उल्लास भरा उभार आता है।

अपने देश में देवियों और देवताओं के तीर्थ देवालयों की कमी नहीं दिव्य प्रेरणाओं को यहाँ अलंकार रूप में-देव देवी के रूप में चित्रित और अर्पित किया जाता रहा है। इस दृष्टि से मूर्धन्य देव सत्ता के रूप में गायत्री की प्रतिष्ठापना होनी चाहिए थी खेद है कि इस दिशा में थोड़ी सी ही स्थापनाएँ जहाँ-तहाँ दिखाई देती हैं। मध्यकालीन मत-मतान्तरों ने अपना विस्तार तो काय पर आद्य शक्ति की तीर्थ प्रतिष्ठापना को एक प्रकार से उपेक्षित ही कर दिया। गायत्री शक्ति पीठों के रूप में देव-स्थापनों की संख्या बहुत ही स्वल्प पाई जाती है। जबकि सर्वोपरि प्रधानता उसे ही मिलनी चाहिए थी। समय आ गया है कि आद्य शक्ति की अपनी गरिमा के अनुरूप भूमिका प्रस्तुत करने का अवसर मिले। नव-युग की देव सत्ता की प्राण प्रतिष्ठा करने का आज का दिन ही सर्व श्रेष्ठ मुहूर्त है।

निर्देश उतरा और संकल्प उभरा है कि युग शक्ति के शक्ति स्रोतों के रूप में असंख्य गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना हो और उन आलोक केन्द्रों से सर्वत्र युग चेतना की ऊर्जा का विस्तार किया जाय। जन मानस में उत्कृष्ट आदर्श वादिता की प्रतिष्ठापना ही वह कार्य है जिसके आधार पर उज्ज्वल भविष्य के स्वप्नों को साकार किया जा सकता है। समझा जाना चाहिए कि यह शक्ति पीठ मात्र देवालय न होंगे। देव दर्शन से भावुक भक्तों को किसी प्रकार संतोष हो भी सकता है। किन्तु सत्परिणामों की आवश्यकता हो तो सत्प्रयत्नों को भी हाथ में लेना होगा। जिन गायत्री शक्ति पीठों की प्रतिष्ठापना की जा रही है उनमें आद्य शक्ति की प्रतिमा तो उसकी सहचरी चौबीस धारा’-उपधाराओं सहित होगी ही। पर इसे आरम्भ कहा जायेगा अन्त नहीं। दर्शनार्थी देव प्रतिमा की झाँकी करने के साथ ही इन देवालयों से वह प्रेरणा भी ग्रहण करेंगे जो उन्हें युग के अनुरूप पलने-बदलने के लिए-चिन्तन में उत्कृष्टता और चरित्र में आदर्श वादिता का समावेश करने के लिए प्रबल उत्कंठा उत्पन्न करें। इन्हीं प्रयासों को योजना बद्ध रूप से इन गायत्री शक्ति पीठों के साथ ही सुनियोजित किया जा रहा है।

युग-निर्माण योजना के संचालक सूत्रों ने विगत वसंत पर्व पर अगले ही दिनों 24 गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना का संकल्प घोषित किया है। यह 24 की संख्या आरम्भ है अन्त नहीं। अन्त तो इसका संसार भर में 2400 शक्ति पीठों के रूप में भी हो सकता है। आरम्भ के 24 गायत्री शक्ति पीठ भारत के उन पुण्य क्षेत्रों में बनाये जायेंगे जहाँ पहले से ही तीर्थ मान्यता रही है। वहाँ धर्म प्रेमी जनता परम्परा-गत मान्यताओं के अनुरूप सहज ही पहुँचती रही है। इन स्थानों का ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक महत्व भी है। प्राचीन काल तत्वदर्शियों ने जिन कारणों से इन स्थानों को प्रभु-खता एवं मान्यता दी थी, उनका महत्व अभी भी विद्यमान है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रथम चरण में जिन 24 गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण की तैयारी आरम्भ कर दी गई है; उनमें वे ही स्थान प्रमुख हैं जिनमें पिछले समय से तीर्थ यात्रा का क्रम चला आ रहा है। मथुरा में गायत्री तपो भूमि और हरिद्वार में शान्ति कुँज का निर्माण भी परम्परागत तीर्थ स्थानों से ही आरम्भ हुआ है। कुछ समय तक ही क्रम चलेगा। 24 शक्ति पीठों का प्रथम संकल्प पूरा होते ही द्वितीय चरण में अन्य ऐसे स्थानों में यह स्थापनाएँ आरम्भ कर दी जायेंगी जहाँ एक क्षेत्र को रचनात्मक कार्य क्रमों के लिए मंडल बना कर कार्य किया जा सकें।

जिन तीर्थों में नये गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना का कार्य हाथ में लिया जा रहा है वे प्रान्तों के हिसाब से इस प्रकार हैं।

उत्तर प्रदेश-(1) प्रयाग (2) काशी (3) अयोध्या (4) चित्रकूट (5) बद्रीनाथ

बिहार- (6) गया (7) बैजनाथ

उड़ीसा- (8)जगन्नाथ पुरी

मध्य प्रदेश- (9) उज्जैन (10) ओंकारेश्वर (11) अमर कंटक

गुजरात-(12) अम्बाजी (13) डाकौरजी (14) गिरनार-जूनागढ़ (15) द्वारिका (16) सोमनाथ

हरियाणा :-(17) कुरुक्षेत्र

राजस्थान :- (18) नाथ द्वारा (19) पुष्कर

जम्मू कश्मीर :- (20) वैष्णव देवी

महाराष्ट्र :- (21) नासिक

दक्षिण भारत :- (22) रामेश्वरम् (23) तिरुपति (त्रिपदा बालाजी)

आसाम :-(24) कामाख्या-गोहाटो।

अभी इन्हीं 24 की योजना बन रहीं है। परिस्थिति वश इन स्थानों में हेर-फेर भी किया जा सकता है। संख्या की दृष्टि से 24 ही रहेंगे। प्रथम संकल्प पूरा होते ही ऐसे स्थानों को भी हाथ में ले लिया जायेगा जहाँ प्राचीन तीर्थ तो नहीं है, पर क्षेत्रीय धर्मचेतना उत्पन्न जहाँ प्राचीन तीर्थ तो नहीं है, पर क्षेत्रीय धर्मचेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से इन्हें महत्वपूर्ण समझा जा सकता है। आद्य शंकराचार्य ने चार धाम राजा मान्धाता की सहायता से विनिर्मित किये थे। युग निर्माण योजना के पास मान्धाता, हर्षवर्धन, अशोक, भामाशाह तो नहीं है पर लकड़ी पत्थर जमा कर लेने वाले रीछ, बानरों की-पहाड़ उठाने में लाठी का सहारा लगाने वाले ग्वाल-बालों की कमी नहीं है। 24 गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण यदि समुद्र पर पुल बांधना और गोवर्धन उठाने की तरह कठिन होगा तो भी उभरती हुई युग चेतना की आद्य शक्ति के प्रेरणा प्रवाह की अजस्र सामर्थ्य को देखते हुए वह कार्य अधूरा नहीं पड़ा रहेगा। निश्चित रूप से पूर्ण होकर ही रहेगा।

शक्ति पीठों को दो भागों में विभक्त रखा गया है। प्रथम चरण में जन संपर्क के लिए देवालयों की स्थापना और द्वितीय चरण में प्रशिक्षण एवं साधना के लिए आश्रम बनेंगे। देवालय ऐसे सघन स्थानों पर रहेंगे जहाँ तीर्थयात्रा के उद्देश्य से आगंतुकों का बाहुल्य रहना हो। आश्रम ऐसी जगह बनेंगे जहाँ शान्ति का वातावरण हो। सघन स्थानों में जमीन कठिनाई से मिलती है ओर महंगी होती है इसलिए वहाँ अधिक जन-संपर्क के लिए ही स्वल्प साधनों के रहते थोड़ा स्थान उपलब्ध हो सकता है। देवालयों का औचित्य एवं उपयोग इसी में है। आश्रमों में अधिक समय ठहरने की-निवास निर्वाह के लिए शान्त वातावरण की व्यवस्था होनी चाहिए ऐसे स्थान प्रकृति सान्निध्य में हरियाली और शान्तिदायक परिस्थितियों के बीच होने चाहिए। हरिद्वार में यही किया गया है। ब्रह्मवर्चस में गायत्री शक्ति पीठ एक शोध संस्थान की व्यवस्था है। साधकों को जीवन निर्माण का प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त करने के लिए गायत्री नगर बसाया गया है यही व्यवस्था घोषित 24 शक्ति पीठों में रहेगी। उनके दो खण्ड होंगे(1) प्रचार प्रयोजन एवं जन संपर्क के लिए देवालय (2) प्रशिक्षण, साधना के लिए निवास-निर्वाह की सुविधा सम्पन्न आश्रम आरण्यक।

फिलहाल 24 स्थानों में प्रथमचरण पूरा किया जा रहा है, बाद में आश्रम बनेंगे। स्वभावतः दोनों एक स्थान पर नहीं हो सकते। जन संपर्क के लिए सघन क्षेत्र चाहिए। वहाँ स्वभावतः जमीन महंगी भी मिलेगी और छोटी भी अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उसे अनिवार्यतः तीन मंजिली इमारत के रूप में बनाना पड़ेगा। आरण्यक आश्रम एक मंजिल खुले एवं विस्तृत क्षेत्र में हरियाली समेत होने चाहिए। दोनों उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक हैं इसलिए अच्छा होता कि वे साथ-साथ रहते और पास-पास बनते किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वैसी सुविधा मिलनी कठिन है जो एक साथ दोनों उद्देश्यों की पूर्ति कर सकें। जहाँ वैसा कुछ बन पड़ेगा वहाँ वैसा भी किया जायगा, किन्तु प्रस्तुत परिस्थितियों को देखते हुए सहज नीति यही निर्धारित की गई है कि दोनों को दो स्थानों में, दो बार में, बनाया जाये। प्रथम चरण में गायत्री शक्ति पीठों का पूर्वार्द्ध पूरा किया जा रहा है और तीन मंजिले देवालय बनने जा रहे हैं। अगले चरण में जब इन्हीं स्थानों पर आरण्यक आश्रम बनेंगे तो उनके लिए बड़ी सस्ती और विरल क्षेत्र की जमीन उपलब्ध की जायगी।

विगत-बसन्त पर घोषित 24 गायत्री शक्ति पीठ निर्माण के संकल्प में तीन मंजिले देवालयों के निर्माण की ही रूप रेखा है। नीचे वाली मंजिल में गायत्री माता की भव्य प्रतिमा रहेगी। आगे विशाल हाल रखा गया है जिसमें बहुसंख्यक भीड़ भी खड़ी होकर एक साथ दर्शन कर सकें। आरती, पूजन वन्दन में हजारों व्यक्तियों की उपस्थिति में अड़चन उत्पन्न न करें। दूसरी मंजिल की सत्संग भवन या परामर्श कक्ष समझा जा सकता है। परामर्श कक्ष नाम देना इसलिए अधिक उपयुक्तता है कि दर्शनार्थियों में से जो गायत्री विधा के सम्बन्ध में अधिक जानने के लिए उत्सुक होंगे उन जिज्ञासुओं को उनकी जिज्ञासा के अनुरूप मार्ग-दर्शन प्राप्त करने के लिए यही व्यवस्था रहा करेगी। एक विद्वान मनीषी इस प्रयोजन के लिए वहाँ सदा प्रस्तुत रहा करेगा। जिज्ञासु अपनी-अपनी मनोभूमि के अनुरूप शंकाओं का समाधान और उपयुक्त परामर्श प्राप्त करने का निरन्तर लाभ उठाते रहेंगे। ऊपर वाली तीसरी मंजिलें को कार्यकर्ता निवास कक्ष तथा अतिथि ग्रह कहेंगे। इन शक्ति पीठों की अनेकानेक प्रवृत्तियों का संचालन करने के लिए न्यूनतम पाँच और अधिकतम दस परिव्राजक यहाँ स्थायी रूप से रहा करेंगे। उनके भोजन, शयन, नित्यकर्म, मनन, स्वाध्याय आदि की सारी व्यवस्था शक्ति पीठ की ऊपरी मंजिलों में ही रहा करेगी। (1) देवालय (2) सत्संग कक्ष एवं (3) कार्य-कर्ता निवास और अतिथि ग्रह के तीनों ही प्रयोजन एक-दूसरे से सम्बद्ध एवं पूरक हैं जिन्हें परस्पर जोड़े बिना तीर्थ निर्माण की समग्र आवश्यकता पूरी हो ही नहीं सकती।

इन तीर्थों को सुसंचालित रखने के लिए पाँच कार्यक्रम निर्धारित किये गये है। इनकी पूर्ति के लिए न्यूनतम पाँच परिव्राजक उनमें स्थायी रूप से निवास करेंगे। पाँच कार्यक्रम, पाँच कार्यकर्ता इस संयोग को गायत्री के पाँच मुख कहा जा सकता हे। इसे पंचमुखी गायत्री प्रत्यक्ष विस्तार कह सकते हैं इन तीर्थों में नियमित रूप से चलने वाली कार्य पद्धति यह है (1) एक परिव्राजक देव-प्रतिमा के निकट रहेंगे। वे दर्शकों को गायत्री माता का महत्व समझायेंगे और उनका मंगल प्रसाद हर दर्शनार्थी को देंगे। (2) दूसरा परिव्राजक इस विशाल भवन में लगे हुए गायत्री की चौबीस शक्ति धाराओं के 24 चित्रों का परिचय कराने में गाइड की तरह दर्शनार्थियों के साथ रहा करेगा। (3) गायत्री विधा में रुचि लेने वाले दर्शकों की जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए सत्संग कक्ष में एक परिव्राजक हर घड़ी उपलब्ध रहेगा। (4) गायत्री साहित्य स्टाल को एक परिव्राजक सम्भालेगा (5) जहाँ तीर्थयात्री उतरते, ठहरते या भ्रमण करते हैं उन स्थानों में जाकर एक परिव्राजक, बिना मूल्य गायत्री माता के अत्यन्त सुन्दर चित्र प्रायः एक हजार की संख्या में हर दिन वितरण करेगा और उनसे गायत्री तीर्थ पहुँच कर प्रकाश प्राप्त करने का अनुरोध करेगा। इस प्रकार पाँच परिव्राजकों की ड्यूटी प्रभात की आरती से लेकर सायंकाल की आरती तक लगी रहेगी और वे अपना काम मुस्तैदी से करते रहेंगे।

यदि पाँच परिव्राजकों की ही व्यवस्था बन पड़ी तो तीर्थ को कुछ घन्टे खुलने और कुछ घन्टे बन्द होने की व्यवस्था बनाई जायगी। क्योंकि उन्हें भोजन बनाने, खाने विश्राम करने तथा अन्य आवश्यक कार्यों की व्यवस्था के लिए भी समय चाहिए। इतने समय तक तीर्थ बन्द रखने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं। जहाँ दस परिव्राजकों की व्यवस्था हो जायगी वहाँ उनकी ड्यूटी बदलती रहेगी। प्रातः की आरती से सायं की आरती तक तीर्थ बराबर खुला रहेगा। जहाँ इतना प्रबन्ध हो जाय समझना चाहिए वहाँ पूर्ण व्यवस्था है। जहाँ पाँच ही परिव्राजकों से काम चल रहा हो वहाँ समझना चाहिए कि आरम्भिक काम चलाऊ व्यवस्था ही यहाँ बन पड़ी है। दस परिव्राजकों की आवश्यकता हर तीर्थ में इसलिए भी है कि समय-समय पर उस मण्डल में अनेकों गायत्री यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलन होंगे उनकी व्यवस्था सम्भालने के लिए भी इन्हीं तीर्थ वासी परिव्राजकों में से दो-दो के जत्थे पहुँचते रहेंगे। चार को उस क्षेत्र के शिविरों आयोजनों में भेज दिया जाय तो शेष छः किसी प्रकार तीर्थ व्यवस्था सम्भाल लिया करें। जब भीड़ के दिन हों तो दसों वहीं रहें जब भीड़ का सीजन चला जाय तो दो-दो के दो जत्थे उस मण्डल में जन-जागृति की तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े। इससे स्थानीय व्यवस्था और क्षेत्रीय जागृति के दोनों ही उद्देश्य इन्हीं परिव्राजकों से पूरे हो जाया करेंगे।

(1) प्रज्ञावतरण के अरुणोदय का परिचय इन तीर्थ देवालयों के माध्यम से धार्मिक जगत में द्रुतगति से विस्तृत होगा। (2) परिव्राजक अभियान को विश्व-व्यापी बनाने के लिए बड़ी संख्या में भर्ती और उनके लिए सुनियोजित कार्य व्यवस्था। (3) विचार क्रान्ति के लिए युग साहित्य का जन-जन तक पहुँचाया जाना। यह तीनों ही उद्देश्य इस तीर्थ योजना के माध्यम से एक साथ सुनियोजित ढंग से पूरे होते हैं।

इन तीर्थों में प्रतिमाओं के सम्मुख पैसे फेंकने की परम्परा को पूर्णतया निषिद्ध रखा जायगा; जो दर्शक श्रद्धांजलि के रूप में कुछ भी प्रस्तुत करेगा उसे तत्काल उससे ड्यौढ़े-दूने मूल्य का प्रसाद साहित्य आशीर्वाद रूप में-और दस पैसा चढ़ाने वाले को एक गायत्री चालीसा, और दो गायत्री चित्र दिये जाया करेंगे। इसी अनुपात से देव प्रतिमा के सम्मुख चढ़ने वाली धन श्रद्धांजलि की तत्काल वापसी होती रहने से तीर्थ यात्री की श्रद्धा में कटौती नहीं होगी वरन् वह ब्याज समेत वापिस होकर उसे तत्काल मिल जाया करेगी। तीर्थ यात्री घर लौटते हैं तो अपने स्वजन सम्बन्धियों के लिए तीर्थ प्रसाद ले जाते है और उन्हें बाँटते हैं। इसके लिए “प्रसाद पैकेट” अलग से तैयार किये गये हैं। जिसमें 10 गायत्री चालीसा और 24 गायत्री चित्र कुल मिलाकर 36 उपहार रहेंगे जिन्हें प्राप्त करने वाला निस्सन्देह कुछ ऐसा उपलब्ध करेगा जिसे सच्चे अर्थों में तीर्थ का प्रेरणा प्रसाद कहा जा सकें। इस प्रसाद वितरण परम्परा से युग शक्ति गायत्री के आलोक का प्रसाद विस्तार देश-विदेश के कोने-कोने में पहुँच सकना सम्भव हो सकेगा। इन चित्रों के पीछे गायत्री का महत्व एवं प्रयोग भी छपा होगा। जिससे उसके उपयोग की जानकारी भी इन प्रसाद प्राप्त कर्ताओं को उपलब्ध होती रहे।

इसी रजत जयन्ती वर्ष में आद्य शक्ति गायत्री का युग शक्ति के रूप में परिचय देने वाला साहित्य मिशन के सूत्र संचालक ने नये सिरे से लिखा है। उसमें अब तक के प्रतिपादनों का साराँश और जो कुछ अगले दिनों लिखा जाना है उसका सार तत्व इस नव निर्मित साहित्य में भर दिया है। इन पुस्तकों की संख्या 20 है। इन्हें गायत्री महाशक्ति के समस्त पक्षों पर अत्यन्त सारगर्भित प्रकाश डालने वाला युग साहित्य कह सकते हैं। इन 20 पुस्तकों को भारत की-संसार की प्रायः समस्त भाषाओं में प्रकाशित करने की योजना हे। मुख पृष्ठ अत्यन्त सुन्दर, नयनाभिराम रखा गया है। कागज छपाई एवं पृष्ठ संख्या की दृष्टि से इसे अपने समय का अत्यन्त सस्ता साथ ही उच्च स्तरीय साहित्य कह सकते हैं। इन पुस्तकों में से प्रत्येक का मूल्य सवा रुपया है। यह साहित्य इन्हीं गायत्री शक्ति पीठों में बने हुए साहित्य स्टाल पर उपलब्ध रहेगा।

इस नव निर्मित गायत्री साहित्य में लाभाँश न्यूनतम रखा गया है फिर भी जो कुछ है वह विशुद्ध रूप से परिव्राजकों के निर्वाह में खर्च होगा। उसमें से एक पाई भी अन्य किसी को नहीं मिलेगी। मिशन भी उसमें से कुछ नहीं लेगा और न किसी को कमीशन मिलेगा। परिव्राजकों का निर्वाह एक आवश्यकता है। सोचा गया है यह खर्च औसतन हर परिव्राजक पीछे अनुमानतः दो सौ रुपये के करीब आवेगा। इसका अर्थ हुआ हर तीर्थ, पीछे दस परिव्राजकों का व्यय सम्भवतः दो हजार रुपया मासिक पड़ेगा। इसमें से आधा खर्च साहित्य विक्रय से निकल आने का अनुमान लगाया गया है। आधा खर्च ऐसे परिजनों से मासिक रूप में प्राप्त करने का प्रयत्न किया जायगा जो इस महान कार्य की उपयोगिता समझते हैं और स्वयं समय न पाने की स्थिति में आर्थिक सहायता करके अन्य परिव्राजकों को सहायता करना चाहते है।

हर तीर्थ पीछे परिव्राजकों का खर्चा क्या पड़ेगा उसका संकेत ऊपर की पंक्तियों में है। यह तो खर्च का एक पक्ष हुआ। हर दिन एक हजार चित्र वितरण करने की योजना है जिसका अर्थ होता है प्रायः एक हजार रुपया मासिक। फिर इमारत में पानी, बिजली, सफाई, मरम्मत, रंग रोगन, पौधे, फर्नीचर, प्रसाद, आरती आदि के भी कितने ही खर्चे हैं। जिनकी नियमित व्यवस्था बनायी जाना आवश्यक है।

कई व्यक्ति देवालय बनाने के लिये भावावेश में अत्यन्त उतावली करते हैं। और भूल जाते हैं। कि भावावेश में इमारत बना देना सरल ह, पर इन देवालयों के पीछे पुजारी, पूजा सामग्री तथा इमारत का जो नियमित खर्च पड़ता है उसका क्या प्रबन्ध होगा? यह अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष है जिसकी आमतौर से उपेक्षा की जाती है। फलतः आज अधिकांशतः देव मन्दिरों की बुरी तरह दुर्दशा हो रही है। वे टूटते नष्ट होते चले जा रहे हैं। असंख्य मन्दिरों की यही दुर्गति है। इसे देखकर उनके निर्माताओं की अदूरदर्शिता एवं एकाँगी भावावेश पर तरस आता है। जिसमें पैसा भी खर्च हुआ और पीछे अपयश भी सहना पड़ा। पूजा से देवता प्रसन्न होते हैं तो दुर्गति पर रुष्ट भी होते होंगे। संभवतः इन अदूरदर्शी देवालय निर्माताओं को स्थापित देवता का अभिशाप भी सहना पड़ता होगा।

गायत्री तीर्थों के निर्माण की योजना अत्यंत उच्चस्तर से उतरी है। उसे कार्यान्वित ही शांतिकुंज से किया जा रहा है। इसका सूत्र संचालन समर्थ कंधों पर रखा गया है। ओछे उतावले लोगों की मनोभूमि श्रेय प्राप्ति और अहंता की तृप्ति के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। वे मंदिर निर्माता, प्रबंधक अधिपति बनने के लिए व्यग्र दिखाई पड़ते हैं ताकि किसी आर्थिक लाभ का छिद्र ढूंढ़ सकें या आत्म श्लाघा की पूर्ति के सस्ते अवसर पा सकें। उन्हें इस बात का ध्यान भी नहीं रहता है कि उन सस्ते प्रसंगों के अवसर मिले या न मिले पर इतना निश्चित है कि देवालयों के पीछे निरंतर खर्च का भार तत्काल लद जाता है। यदि उसकी पूर्ति न बन पड़े तो कल्पित श्रेय की अपेक्षा हजार गुनी आत्मग्लानि तथा लोक-भर्त्सना सहनी पड़ती है। गायत्री शक्ति पीठों में तो यह बात और भी अधिक स्पष्ट है। चढ़ोत्तरी ही मंदिरों की प्रधान आय रहती है। उसे इन देवालयों में जड़ मूल से काट दिया गया है। ऐसी दशा में निर्माण के दिनों जहां विपुल राशि लगेगी वहां बनने के दिन से ही भारी दैनिक खर्चा भी तीर्थ पर लद जायेगा। भावावेश कुछ दिन ही उसकी पूर्ति कर सकता है। निर्माताओं की पीढ़ियां भी उसे वहन करती रहें, यह पूर्णतया अनिश्चित है। उपहास और अपवाद के प्रसंग खड़े होना- निर्माताओं की भर्त्सना तक की ही बात नहीं है, वरन् इस संदर्भ में निर्देश करने वाली शक्तियों से लेकर प्रज्ञावतार तक को निंदा का भाजन बनना पड़ेगा।

इन जटिल समस्याओं पर दूरदर्शिता पूर्वक किये गये विचार ने एक ही निश्चय किया है कि इस युग के इस महान निर्माण कार्य का उत्तरदायित्व ब्रह्मवर्चस्-शांतिकुंज के कंधों पर ही डाला जाय। निर्माण से लेकर सदा-सर्वदा उसका भ


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