परमात्मा का अस्तित्व और अनुग्रह

April 1979

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वैज्ञानिक विकास के प्रारम्भिक चरण ने ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार न करने का हठ किया था। यह वैज्ञानिकों के अपरिपक्व मस्तिष्क का परिणाम है। प्रकृति स्वयं संचालित है न कोई उसका सृजन करने वाला है न ही चलाने वाला। इसके कर्त्ता के रूप में ईश्वर एक आरोपित नाम है जिसका कहीं न तो अस्तित्व है न इस-विश्व-ब्रह्माण्ड से इसकी गति विधि से कोई सम्बन्ध। विज्ञान की यह नास्तिक विचारधारा कुछ दिनों तक जोर पकड़े रहीं वैज्ञानिकों ने अपनी अपूर्व खोज के आधार पर यह घोषणा की थी कि संसार के मूल तथा उसकी प्रत्येक क्रिया एवं प्रतिक्रिया में एक विशेष प्रकार की सामर्थ्य काम कर रही हैं जो सृष्टि संचालन में स्वयं समर्थ है, उनमें स्वयं ही चेतना उत्पन्न होती है। सक्रियता के लिए उन्हें किसी अन्य चेतन शक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है, जिसे आस्तिकतावादी ईश्वर कहते है।

इस नास्तिक भाव का वास्तविक कारण विज्ञान का अपूर्ण ज्ञान ही था। पर जैसे-जैसे वैज्ञानिक ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता गया-चेतन शक्ति के अधिकाधिक प्रमाण मिलते गये। वह दिन दूर नहीं जब चेतन शक्ति की क्रियाशीलता प्रत्येक अणु में, होने की हमारी आध्यात्मिक मान्यता से विज्ञान भी सहमत होगा और यह स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होगी कि अणुओं की गतिविधि उसकी स्वयं की शक्ति द्वारा नहीं अपितु किसी चेतन शक्ति द्वारा संचालित है। इस तथ्य को विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिक ‘आइन्स्टीन’ ने भी स्वीकार किया था। यद्यपि पिछले दिनों विज्ञान ने आश्चर्यजनक प्रगति की है, पर अभी पूर्णता की सीमा में नहीं पहुँचा है। जिस दिन विज्ञान अपनी पूर्णता को प्राप्त होगा निश्चय ही वह तत्वज्ञान में बदल जायेगा और उसका विश्वसनीय उद्घोष यही होगा-यह सृष्टि उस ‘चेतन’ संरचना है जिसे परम ब्रह्म परमात्मा कहते है।

यह विश्व उसी चेतना से उत्पन्न हुआ हैं, उसी की सत्ता में स्थिति है और उसी में लयमान होता जा रहा है। जड़-चेतन की संपूर्ण सक्रियता का आधार वह परम प्रभु है; जो सृष्टि की प्रत्येक कलाकृति में ओत-प्रोत है। न तो कुछ परमात्मा से भिन्न है और न परमात्मा किसी से पृथक है।” पूर्णता को पहुँचा हुआ वैज्ञानिक सबसे बड़ा आस्तिक होगा ऐसा विश्वास वैज्ञानिकों की बदलती हुई धारणाओं के आधार पर किया जा सकता है।

पवन, अग्नि, जल और मृत्तिका चार व्यक्त एवं अस्तित्ववान पदार्थों से विश्व का निर्माण हुआ है। यह चारों पदार्थ अपने जड़ एवं निर्जीव है। किन्तु उनमें एक जीवन, एक सक्रियता, सजीवता दिखायी देती है, उससे ईश्वरीय चेतन शक्ति की उपस्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। हवा की गतिशीलता जल की तरलता, अग्नि की तेजस्विता, मिट्टी की उर्वरता का गुण उस सर्वशक्तिमान परमात्मा से ही सम्भव है। अन्यथा किसी जड़ अथवा निर्जीव पदार्थ में सक्रियता की सम्भावना कहाँ? गुण अथवा चेतनशील प्राण के रूप में विद्यमान परमात्मा जब इन पदार्थों में से तिरोधान हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में कोई भी पदार्थ अपनी सक्रियता का प्रमाण नहीं दे पाता।

सृष्टि के किसी भी पदार्थ में अपनी कोई क्षमता अथवा अपना कोई गुण नहीं है। वह सब उस चेतन-स्वरूप परमात्मा का ही चमत्कार है जो प्रत्येक अणु के गुण एवं सक्रियता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। ऐसे सर्वव्यापक, सर्व समर्थ चेतन शक्ति के अस्तित्व से इन्कार करना अपनी अज्ञानता का परिचय देना है।

लोहा जड़ एवं निर्जीव पदार्थ है किन्तु यन्त्रों एवं चक्रों के रूप में सक्रिय दिखाई देता है। पत्थर की निर्जीवता चक्की की सक्रियता के रूप में देखी जाती है। काष्ठ जैसा जड़ पदार्थ वृक्ष के रूप में उठता हुआ और फल-फूल-पत्तों से भरता दिखाई देता है। इन सबकी सक्रियता का कारण चेतन शक्ति ही है। उसका समावेश चाहे मनुष्य की सहायता से हुआ हो अथवा उक्त चेतना स्वयं ही उन पदार्थों में गतिशील हो उठी हो। चेतन सत्ता के अभाव एवं अव्यक्ति की स्थिति में सम्पूर्ण जग निर्जीव, निष्प्राण एवं निस्तब्ध स्थिरता मात्र है। इस प्रकार संसार की नियामक सत्ता के अस्तित्व में विमुख होकर मनमानी घोषणायें करना विवेक युक्त नहीं है।

खिलते हुए फूल, बहती नदियाँ, उदय-अस्त होते हुए सूर्य चन्द्र, चमकते हुए तारे, गतिशील नक्षत्र, बदलती हुई ऋतुओं में उसी चेतन रूप परमात्मा की ही विद्यमानता है अन्यथा मूल रूप में जड़, इन सबमें यह विशेषताएँ स्वयं सम्भव कैसे हो सकती?

मनुष्य का भौतिक विश्लेषण करने पर वह निर्जीव, मिट्टी का एक नश्वर पुतला दिखाई देता है, जिसके न कोई अपने गुण है न अपनी कोई चेतना। किन्तु यह मिट्टी की प्रतिमा क्या-क्या काम और कैसे-कैसे चमत्कार कर दिखाती है? अनुपयोगी को उपयोगी और जड़ों को चेतन बनाकर गति देने वाला मनुष्य यदि अपनी विशेषताओं को अपना निजी उपार्जन समझने का दम्भ करता है तो यह उस परमात्मा के प्रति कृतघ्नता ही है, जिसने अपनी चेतन शक्ति का उसमें समावेश कर उसे ऐसा कर सकने योग्य बनाया।

उस चेतना के अंश की उपस्थिति के कारण ही मनुष्य शरीर का मूल्य एवं महत्व है। मानव शरीर, में स्थित यही चेतना जब प्राणशक्ति के रूप में सक्रिय होती है तो यह मृत्तिकामय शरीर सक्षम एवं संक्रामक बनता है। जिस दिन यह परम तत्व परमात्मा अपने को स्थिर एवं स्तब्ध कर लेता है समग्र अवयवों के अक्षत रहने पर भी शरीर निश्चेष्ट होकर निरर्थक हो जाता है।

आदिकाल से ही तत्वदर्शी ऋषियों ने उस परमात्मा को पहचाना, पाने का प्रयत्न किया एवं सफल हुए। इस उपलब्धि को ही मानव जीवन की सार्थकता मानते हुए उन्होंने आस्तिकता का प्रभाव बढ़ाने के लिए धर्म का स्वरूप निर्धारित किया एवं व्यापक प्रचार किया। जीवन को साधनामय बनाकर कितने परम प्रभु को पाकर तद्रूप हो चुके हैं और आगे भी उस पर चलकर होते रहेंगे।

संसार भर में प्रचलित समस्त साधनात्मक विधियों का मूल गन्तव्य एक ही है- वह है जीवन की रीति-नीति ऐसी बनाना जो परमात्मा के अंश मनुष्य के अनुरूप हो। परिष्कृत जीवन ही परमात्मा का कृपा पात्र बनता है एवं ईश्वरीय अनुग्रह की अजस्र धारा विभिन्न प्रकार की सफलताओं के रूप में बरसती रहती है। ईश्वर परम सन्तोष एवं आनन्द रूप उपासक को अपना मंगलमय सान्निध्य का अनुग्रह करता है। परमात्मा के सच्चे भक्तों को संसार में किसी भी प्रकार की सुख−शांति की कमी नहीं रहती।

परमात्मा की कृपालुता एवं दयालुता असंदिग्ध है। किन्तु उसकी एक व्यवस्था, मर्यादा है इसका उल्लंघन करने वालों के लिए उसका एक और भी स्वरूप है- वह है न्यायी तथा व्यवस्थापक होना। जहाँ उसकी प्रसन्नता मर्यादा व्यवस्था के अनुरूप जीवन नीति-रीति अपनाने वालों पर अनिवर्चनीय उपहारों की झड़ी लगा देती है वहाँ उसकी अप्रसन्नता प्रतिकूल आचरण करने वालों को कठोर दण्ड भी देती है। संसार में कदाचित ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो परमात्मा की न्याय परिधि में आकर दण्ड की दुःख की कामना करें। नहीं तो प्रत्येक जीव उसकी प्रसन्नता एवं अनुग्रह पाने का ही आकाँक्षी रहता है। उपासना परमात्मा की प्रसन्नता प्राप्त करने का ही एक उपाय है। किन्तु यह प्रसन्नता केवल पूजा-पाठ, भजन, कीर्तन अथवा स्मरण जाप से ही नहीं प्राप्त की जा सकती है।

परमात्मा का अनुग्रह और उसके फलस्वरूप शान्ति, प्रसन्नता की प्राप्ति एवं सफलता का शाश्वत उपहार पाने के लिए मनुष्य को उपासना के साथ जीवन साधना को अपनाना होगा। उसकी दयालुता के साथ ही रुद्र रूप को भी याद रखें तथा सत्पथ शुद्ध एवं सात्विक भावना से चलकर उसे अप्रसन्न होने का अवसर न दे, मनुष्य का कल्याण इसी में है। यही परमात्मा के अंश मनुष्य के लिए योग्य एवं शोभनीय है।


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