सागर का उदार स्वभाव (kahani)

April 1979

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“कितना स्वार्थी है यह समुद्र और कैसी पागल है ये नदियाँ” चन्द्रमा बड़बड़ाया-”ये तो सब जगह से जल समेट-समेट कर सागर को समर्पित करती रहती हैं और वह सम्पूर्ण जल स्वीकार करता हुआ संग्रह करता है।”

तभी बादल एक साथी बोल उठे-”आप ही भ्रम में हैं बन्धु! समुद्र तो अपनी निधि प्रति दिन लुटाता ही रहता है। सूर्य के ताप से उसका जल भाप न बनें, तो हमारा अस्तित्व हो और न ही हम धरती पर जल बरसा पाएँ। सागर के इस उदार दानी स्वभाव को जान कर ही नदियाँ अपना सब कुछ उसे देती है।”


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