संसार का प्रत्येक क्रिया-कलाप कार्य- कारण श्रृंखला से बँधा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इसी कार्य-कारण श्रृंखला को जानकर तदनुरूप अभीष्ट की प्राप्ति के लिये साधन रूप कारण जुटाने ओर कार्य-सिद्धि का प्रयास करते हैं। वैज्ञानिक प्रगति का आधार भी कार्य-कारण सिद्धाँत को समझकर तदनुरूप वैज्ञानिक प्रयोगों को करते हुए नई-नई उपलब्धियां अर्जित करना है। दर्शन-शास्त्र और भौतिक-विज्ञान दोनों में कार्यकारण सिद्धाँत तथा प्रकृति की समरूपता का सिद्धाँत सर्वमान्य है। उसी आधार पर योजनाएँ बनाना और उन्हें क्रियान्वित करने के लिये आगे बढ़ना सम्भव होता है। कार्यों के परिणामों पर विश्वास न हो तो फिर योजना बनाना सम्भव न हो पाये और उस पर अमल करने का उत्साह भी न पैदा हो। राजनीति, समाज-सुधार, नव-निर्माण, अभियाँत्रिकी, आदि किसी भी क्षेत्र में प्रवृत्त होने की प्रेरणा ही न पैदा हो। पदार्थों की प्रकृति में निश्चयात्मकता न हो तो भौतिक विज्ञान की खोजें की आगे न बढ़े। एक पदार्थ का एक अंश एक निश्चित देश-काल-परिस्थिति में जो प्रतिक्रिया करता है, वही प्रतिक्रिया उन पदार्थ का दूसरा वैसा ही अंश उन्हीं परिस्थितियों में अन्यत्र न करें, तो पदार्थ-विज्ञान की प्रगति असम्भव हो जाय। क्योंकि तब एक-एक अणु के बारे में अलग-अलग खोज करनी पड़े। प्रकृति समरूपता का यही सिद्धाँत जीव-विज्ञान, मनोविज्ञान, एवं तत्वज्ञान की विभिन्न शाखाओं के विवेचन का आधार है। प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार ही पदार्थ पैदा करती है। एक बीज से सजातीय पौधा और जीव ही पैदा होता है। आम के बीज में इमली नहीं पैदा होगी। तो भी कई बार प्रकृति में अनेक विलक्षणताएँ विद्यमान पाई जाती एवं उत्पन्न होती देखी जाती है। बारम्बार परीक्षा से पुष्ट, अनुभव से प्रमाणित विधि-व्यवस्था एवं नियम-विधान के अपवाद देखे जाते है और चित्र-विचित्र वस्तुएँ देखी-पाई जाती है, जो प्रकृति के सामान्य क्रम से भिन्न होती है।
सामान्यतः ये अपवाद प्रकृति का ही अंग होते हे। कन्याकुमारी से सात रंग की रेत पाई जाती है। लाल, भूरी, पीली, रजतवर्णी, नारंगी, नीली और बैंगनी। प्रकृति की इसी विलक्षणता को भारतीय पुराकथा में इस रूप में व्यक्त किया गया है कि जब भगवान शंकर कन्याकुमारी पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर उनसे परिणय बद्ध हुए, तो देवताओं ने सात रंग के फूल बर-साए। तभी से यहाँ की रेत सतरंगी हो गई।
प्रकृति- वैचित्र्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने वाली ऐसी पुराकथाएँ विश्व के सभी भागों में प्रचलित हैं।
हिमालय पर्वतमाला के बीच गढ़वाल जिले में स्थित ‘फूलों की घाटी ‘ भी प्रकृति का ऐसा ही विलक्षण उपहार है। समुद्रतल से 12 हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित यह रहस्यमय घाटी अपने सौंदर्य और वैचित्र्य-पूर्ण विविधता में अनुपम है। जल के स्थान पर थल में उगने वाला एकमात्र कमल यही उगता-फूलता है। असंख्य पुष्पों की प्रकृति निर्मित स्वतंत्र क्यारियों की अलौकिक छटा मनुष्य के लिये आश्चर्य और आकर्षण का प्रबल केन्द्र है।
दक्षिणी ध्रुव प्रदेश तो ऐसी विचित्रताओं का विस्तृत क्षेत्र ही है यहाँ की हवा रंगीन है। कभी-कभी धरती भी रंग-बिरंगी हो उठती है। कभी घना अंधेरा छा जाता है। कभी धरती से आकाश तक सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश संव्याप्त दिखाई पड़ता है। क्षितिज का दूर-दूर तक कही पता ही नहीं लगता। कभी पृथ्वी घूमती-सी लगने लगती है और लगता है अब गिरे कि तब गिरे। 300 किलोमीटर प्रतिघण्टे से भी अधिक तीव्र गति से हवा बहती है, तो भी उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ती, जबकि पृथ्वी में अन्यत्र 70-80 किलोमीटर प्रतिघण्टे की उतार से चलने वाली हवा भी हू-हू करती शोर मचाती सुनी जाती है।
पृथ्वी की 90 प्रतिशत बर्फ ध्रुव प्रदेश में ही है। यदि यह पिघल जाये तो विश्व के सभी समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे और सहसा उन सबका तह ढाई सौ फुट ऊँचा हो जाये। अक्टूबर से मार्च तक दक्षिणी ध्रुव में चौबीसों घंटे दिन रहता है। मनुष्य तो यहाँ नहीं रह सकता। किन्तु अन्य अनेक जीव यहाँ मजे से रह लेते है। इनमें से 60 किस्म के ऐसे भी कीड़े है, जो गर्मी के दिनों में ही सक्रिय रहता है। शेष समय प्रसुप्त रहे आते है यदि उनके ऊपर बर्फ जम जाती है, तो भी वे मरते नहीं। प्रसुप्तावस्था में विश्राम करते हैं और बर्फ पिघलते ही फिर सक्रिय हो जाते हैं। ऐसे भी कीड़े-मकोड़े है, जो 70 वर्षों तक प्रसुप्त पड़े रहने पर भी मरते नहीं, पुनः उपयुक्त अवसर पाते ही हलचल करने लगते है।
यह प्रदेश थोड़ा भी नहीं हैं। अपितु क्षेत्रफल में अमरीका का दुगुना है। दक्षिणी ध्रुव प्रदेश में चारों तरफ समुद्र है। बीच में थोड़ा सा-थल- भाग है। जबकि उत्तरी ध्रुव में भूमि-भाग से घिरा हुआ समुद्र तट है।
ये सभी विलक्षणताएं प्रकृति का ही स्वाभाविक अंग है। इनमें से प्रत्येक कार्य का कारण यदि वैज्ञानिक नहीं भी जान पाते, तो भी वह कार्य कारण श्रृंखला का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है। हाँ, इनसे ज्ञान की सीमा का पता अवश्य लगता है। दक्षिणी ध्रुव प्रदेश में ही अब तक वैज्ञानिक अनुसंधान के 70 बार प्रयास किये गये। हर बार नयी ही विलक्षणताएँ सामने आई। किन्तु इससे प्रकृति की समरूपता का सिद्धाँत नहीं खण्डित होता। इससे सिर्फ यह ज्ञात होता है कि कारण-कार्य श्रृंखला का हमें ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है और अमुक कार्य का जो कारण मान लिया गया है।, वह पूर्णतः यथार्थ नहीं, अनुमानित यथार्थ है, जो सत्य के निकट हो सकता है, पूर्ण सत्य नहीं। इसी कारण वैज्ञानिक प्रयोगों के नियम बनाते समय ‘एंरर’ या भूल को भी एक सर्वमान्य तथ्य मानकर चला जाता है। प्रायः किसी एक क्रिया की गणनाएँ हर बार एक नहीं होती, उनमें असत्य ही सही अन्तर होता है, जिसे ‘एंरर’ कहकर काम चलाया जाता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि एक ही प्रक्रिया की व्याख्या भिन्न-भिन्न व्याख्या-सूत्रों (फार्मूलों) द्वारा सही-सही कर दी जाती है। दोनों व्याख्याएँ पूरी तरह सही प्रतीत होती हैं। उनके परिणाम-निष्कर्ष भी एक ही होती हैं। जबकि वे व्याख्या-सूत्र यानी फार्मूले भिन्न-भिन्न होते हैं, यहाँ तक कि परस्पर विपरीत तक हो सकते हैं।
प्राचीन समय में भारतीय ज्योतिषियों की मान्यता थी कि पृथ्वी स्थिर है, सूर्य की भ्रमणशील है। उस आधार पर ही फार्मूले गढ़कर गणना की गईं, पंचाँग बने, फलित दिखाए गये। तो भी चन्द्र-ग्रहण सूर्य-ग्रहण समेत विभिन्न नक्षत्रीय स्थितियों के निरूपण कभी गलत नहीं सिद्ध हुए। आज सभी मानते हैं कि सूर्य ही नहीं पृथ्वी भी भ्रमण करती है। यद्यपि सापेक्ष दृष्टि से सूर्य भी गतिशील है, तथापि इस सौरमंडल की की सापेक्षता में सूर्य स्थिर है, पृथ्वी उसकी परिक्रमा करती है। इस आधार पर जो गणनाएँ की जाती है, उनके फलित भी वही होते हैं, जो इसकी विपरीत मान्यता से निकलते थे। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण की ठीक-ठीक तिथि व समय दानों ही गणना-पद्धति से निरूपित किये जा सकते हैं और दानों के परिणाम एक होते है। इतना ही नहीं आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व महान गणितज्ञ आर्यभट्ट ने यह स्थापना की-कि-”यह नहीं (पृथ्वी) गोल आकाश में वैसे ही अधर में लटकती है, जैसे कि चुम्बक की आकर्षण-शक्ति के सहारे कोई गोला अधर में लटका रहें और पृथ्वी का यह गोला सूर्य की परिक्रमा करता है तथा अपनी ही धुरी पर भी घूमता है।” उस समय उनके समकालीन एक अन्य महान गणितज्ञ वराहमिहिर ने भू-भ्रमण सिद्धाँत का जोरदार खण्डन किया था। तो भी नक्षत्रों की स्थिति के बारे में दोनों गणितज्ञों की गणना के परिणाम एक जैसे होते थे।
ये सीमाएँ विज्ञान की जानकारी की सीमाएँ हैं। सर्वव्यापी सत्ता के अविज्ञात क्रियाकलापों के रहस्य पूरी तरह न जान पाने का यह परिणाम हैं। उस अविज्ञात चेतन-सत्ता के विधि-विधानों को पूरी तरह जान पाना तो कठिन है ही। उसकी इच्छा-शक्ति कार्य-कारण नियमों श्रृंखलाओं का भी यदा-कदा किन्हीं और जटिल कारणों से उल्लंघन कर सकती है। जैसा कि विज्ञानी रावर्ट ए. मैल्क ने कहा है- ‘परमात्मा- सत्ता ही अपनी इच्छा शक्ति से सृष्टि का निर्माण करती है। आम के बीज से इमली पैदा करने की शक्ति प्रकृति में नहीं है। किन्तु परमात्म-सत्ता में यह शक्ति है। वह विलक्षण रचनाएँ पैदा करने में समर्थ सत्ता है।”
प्रकृति की विलक्षणताएँ उस सर्वसमर्थ सृष्टा की सामर्थ्य बतलाती हैं। विज्ञान हो या दर्शन, सभी उसी सामर्थ्य को यथाशक्ति समझने का विनम्र प्रयास मात्र है। बौद्धिक सृष्टि से मनुष्य समेत हर प्राणी सीमित है और उनके सभी प्रयासों की सीमाएँ हैं। असीम सामर्थ्य मात्र उस सर्वज्ञ, सर्वव्यापी,, नियामक और अपनी इच्छा से सब कुछ कर सकने में सक्षम ईश्वरीय सत्ता में ही है। व्यवस्था और वैचित्र्य दोनों ही उसी की सामर्थ्य की अभिव्यक्तियाँ हैं।