अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्मफल शुभाशुभम्

April 1979

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आठों वसु एक वार सपत्नीक पृथ्वी-लोक पर भ्रमण के लिए उतरे। कई तीर्थ और देवताओं का दर्शन करते हुए वे वसिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। वसिष्ठ का आश्रम उन दिनों तप, ज्ञान, साधना और ब्रह्म-वर्चस् के लिए विश्व विख्यात था। वहाँ अलौकिक शान्ति विहर रही थी।

वसु और उनकी पत्नियाँ देर तक आश्रम की प्रत्येक वस्तु को देखती रहीं। आश्रम की यज्ञशाला, साधना-भवन और स्नातकों के निवास आदि सभी स्वच्छ, सजे हुये एवं सुव्यवस्थित देख कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। बड़ी देर तक वसुगण ऋषियों के तप, ज्ञान, दर्शन और उनकी जीवन व्यवस्था पर चर्चा करते और प्रसन्न होते रहें।

इस बीच वसु प्रभास एवं उनकी धर्म पत्नी आश्रम के उद्यान भाग की ओर निकल आये। वहाँ ऋषि की काम- धेनु नन्दिनी हरित तृण चर रही थी। गौ की माँसल देह, भोली आकृति, धवल वर्ण प्रभास-पत्नी को यों मन भा गये कि वे उसे पाने के लिये व्याकुल हो उठीं।

उन्होंने प्रभास को सम्बोधित करते हुए कहा-”स्वामी! नन्दिनी की मृदुल दृष्टि ने मुझे विमोहित किया है मुझे इस गाय में आसक्ति हो गई है अतएव इसे अपने साथ ले चलिये।”

प्रभास हँस कर बोले- “देवी! औरों की प्यारी वस्तु देख कर लोभ और उसे अनधिकार पाने की चेष्टा करना पाप है, उस पाप के फल से मनुष्य तो मनुष्य, हम देवता भी नहीं बच सकते। क्योंकि ब्रह्मा जी ने कर्मों के अनु-सार ही सृष्टि की रचना की है। हम अच्छे कर्मों से ही देवता हुए हैं, बुराई पर चलने के लिये विवश मत करों, अन्यथा कर्म-भोग का दण्ड हमें भी भुगतना पड़ेगा।’’

“हम देवता हैं इसलिये पहले ही अमर है। नन्दिनी का दूध तो अमरत्व के लिये है, इसलिये उससे अपना कोई प्रयोजन भी तो सिद्ध नहीं होता?” प्रभास ने अपनी धर्म-पत्नी को सब प्रकार समझाया।

पर वे न मानी। उन्होंने कहा- “ ऐसा मैं अपने लिये तो कर नहीं रही। मृत्यु-लोक में मेरी एक सहेली है उसके लिये कर रही हूँ। ऋषि भी आश्रम में है नहीं इसलिये यथाशीघ्र गाय को यहाँ से ले चलिये।”

प्रभास ने फिर समझाया- “देवि! चोरी और छल से प्राप्त वस्तु को परोपकार में भी लगाने से पुण्य फल नहीं होता। अनीति से प्राप्त वस्तु के द्वारा किये हुए दान और धर्म से शान्ति भी नहीं मिलती। इसलिये तुमको यह जिद छोड़ देनी चाहिये।”

वसु-पत्नी समझाने से भी न समझी। प्रभास को गाय चुरानी ही पड़ी। थोड़ी देर में अन्यत्र गये हुए वसिष्ठ आश्रम लौटे। गाय को न पाकर उन्होंने सबसे पूछ-ताछ की। किसी ने उसका अता-पता नहीं बताया। ऋषि ने ज्ञान-चक्षुओं से देखा तो उन्हें वसुओं की करतूत मालूम पढ़ गई। देवताओं के इस उद्धत-पतन पर शाँत ऋषि को भी क्रोध आ गया। उन्होंने शाप दे दिया-”सभी वसु देव-शरीर त्याग कर पृथ्वी पर जन्म लें।”

शाप व्यर्थ नहीं हो सकता था। देवगुरु के कहने पर उन्होंने 7 वसुओं को तो तत्काल मुक्ति का वरदान दे दिया, पर अन्तिम वसु प्रभास को चिरकाल तक मनुष्य शरीर में रह कर कष्टों को सहन करना ही पड़ा।

यह आठों वसु क्रमशः महाराज शान्तनु और गंगा के उदर से जन्मे। सात की तो तत्काल मृत्यु हुई पर आठवें प्रभास को भीष्म पितामह के रूप में जीवित रहना पड़ा। महाभारत युद्ध में उनका शरीर छेदा गया यह उसी पाप का फल था जो उन्हें, देव शरीर में करना पड़ा था इसलिये कहते है कि गलती देवताओं की भी क्षम्य नहीं। मनुष्य को तो उसका अनिवार्य फल भोगना ही पड़ता है। यह न समझा जावें कि एकान्त में किया गया अपराध किसी ने देखा नहीं। नियन्ता की दृष्टि सर्वव्यापी है उससे कोई बच नहीं सकता।

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