तोड़ना आसान जोड़ना कठिन

April 1979

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निर्जन और सुनसान राह पर भगवान बुद्ध सौम्य और शान्त मुद्रा में कदम-कदम आगे बढ़ रहे थे। मन्थर गति से गम्भीर और सौम्य शान्ति की दीप्ति बिखेरते हुए तथागत के साथ उनके अन्य शिष्य भी थे और सभी शिष्य उनके पीछे पंक्ति बद्ध होकर चल रहे थे। लक्ष्य था राज-गृह। वहाँ पहुँचकर वहाँ के निवासियों को धर्म का उपदेश देना था। तभी राह में भेड़ों का एक झुण्ड निकाला। झुण्ड के पीछे भेड़ों का मालिक गड़रिया चल रहा था।

गड़रिये के कन्धे पर एक भेड़ का बच्चा था जिसे वह उठाकर ले जा रहा था शायद उसके शरीर में कोई पीड़ा रही होगी जिसके कारण वह चलने में असमर्थ है। यह सोचकर तथागत ने गड़रिये को रोका और पूछा उससे कि-’तुम इस मेमने को कन्धे पर क्यों उठाये हुए हो।’

गड़रिये ने साधु वेष में एक तेजस्वी पुरुष को अपने सामने देखा तो वह अनायास ही श्रद्धा से नत मस्तक हो उठा और बोला- भगवन्, मेमने के पैर में चोट है। इसलिए इसे कन्धे पर रखना पड़ा है।

बुद्ध कातर हो उठे और उन्होंने मेमने के उस अंग पर हाथ रखा जहाँ कि गड़रिये ने चोट बतायी थी। करुणा और दया की प्रतिमूर्ति तथागत का स्पर्श पाकर उस मूक पशु को जैसे राहत मिली हो। उसने आँखें मुँद ली और चुपचाप मूँदी पलकों से दो चार आँसू टपका दिये। भगवान बुद्ध मेमने की यह स्थिति देखकर और भी दयार्द्र हो गये।

तभी गड़रिये ने पूछा-भन्ते! आपको इस अकेले मेमने के पैर की चोट से इतनी व्यथा है तो फिर थोड़ी देर बाद जब इन भेड़ों को एक साथ अग्नि में समर्पित किया जायगा तो कितनी व्यथा होगी।

‘क्या कहा’- सदैव शान्त रहने वाले बुद्ध के मुख मण्डल पर व्यग्रता आ गयी- ‘क्या ये सब भेड़े बलि चढ़ाने के लिए ही ले जायी जा रही हैं। कौन है वह अभागा जो इन निरीह निरपराध भेड़ों को बलि चढ़ाकर स्वर्ग प्राप्ति का सौभाग्य लूटना चाहता है।’

‘राजगृह की अधिपति अजातशत्रु। कहते हैं उसने अपने पिता का वध किया था। उसी पाप के प्रायश्चित स्वरूप वह यज्ञ रचाकर एक हजार पशुओं की बलि चढ़ाने जा रहा है’- और जल्दी के कारण वह वहाँ से चल दिया।

भगवान बुद्ध जब राज भवन पहुँचे तो पाया कि गड़रिये ने जो कहा था वह सच है। राज भवन के आँगन में स्त्री, पुरुषों की भीड़ लगी हुई थी। यज्ञ वेदी के चारों ओर बैठकर ब्राह्मण पुरोहित मन्त्रोच्चार कर रहे थे। और अजात शत्रु पीत वस्त्र धारण कर यजमान के वेश में बैठे हुए थे। चारों ओर पशुओं की लम्बी कतारें लगी हुई थी तथा उनके पास ही हाथ में नंगी तलवारें लिए वधिक खड़े थे।

तभी आयोजन स्थल पर तथागत ने पदार्पण किया। सारे सभास्थल में खलबली मच गयी। अजातशत्रु भी भगवान की अभ्यर्थना हेतु अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बिना पूछे ही इस समारोह के सम्बन्ध में बताने लगा। सारी बातें सुनकर भगवान बुद्ध ने भेड़ों के सामने रखी हुई वनस्पतियों में से घास का एक तिनका उठाया और बोले-’राजन्! इस तिनके को तोड़कर चीरना तो जरा।’

जिन लोगों ने इस विचित्र बात को सुना वे आश्चर्य में पड़ गये। अजातशत्रु ने भी आश्चर्यपूर्वक तथागत का कहना मानकर वह तिनका तोड़ा और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा तब भगवान ने कहा- ‘राजन् अब इस टूटे हुए तिनके को जोड़ो तो सही।

राजा चुप हो गया। तब भगवान ने कहा-’राजन्! मैं तुमसे यही बात इस समारोह के सम्बन्ध में भी कहना चाहता था। पिता के वध का जो पाप हुआ है उसे किसी भी प्रयत्न द्वारा मिटाया नहीं जा सकता जैसे इस टूटे तिनके को नहीं जोड़ा जा सकता।’ जैसे इस टूटे तिनके को नहीं जोड़ा जा सकता।’ तथागत से यह कथन सुनकर अजातशत्रु ने वह आयोजन निरस्त कर दिया।


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