विनोदवृत्ति-एक बहुमूल्य विशेषता

April 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि विनोद- वृति आत्म-उपचार का सर्वोत्तम माध्यम है। वस्तुतः निर्मल हास्य आन्तरिक उत्कृष्ट से घनिष्ठ रूप से जुड़ा है। दुनिया में जितने भी श्रेष्ठ एवं क्रियाशील पुरुषार्थी लोग हुए हैं, विनोद की प्रवृत्ति सभी में समान रूप से पाई जाती है।

महात्मा गाँधी और महान वैज्ञानिक चिन्तक आइन्स्टाइन की हँसी को उनके संपर्क में आने वाले लोग कभी भी भूल नहीं पाते थे। डाक्टर राममनोहर लोहिया की बाँकी हँसी उनके अनुयायियों को मुग्ध कर लेती थी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मुस्कुराहट के बारे में भी लोगों का यही कथन है। जवाहरलाल नेहरू कई बार आवेश में साथियों से बहुत कुछ कह जाते और हड़बड़ी में गलत समझ बैठते थे। किन्तु उनके सभी प्रशंसक साथियों का कहना था कि ऐसी किसी भी घटना के थोड़ी ही देर बाद, वे कोई विनोद कर, इतनी खुली हँसी हँस उठते थे कि सामने वाले का समस्त रोष-क्षोभ धुल बह जाता। चन्द्रशेखर आजाद का भी विनोद पूर्ण निर्मल हास्य प्रसिद्ध है।

श्री गोलवलकर गुरुजी की विनोद हँसी न केवल उनके संगी-अनुयायी स्वयंसेवकों को आकर्षित करती थी, अपितु उनके कट्टर विरोधी भी खुशवन्त सिंह जैसे पत्रकार तक ने उनसे मिलने के बाद इस स्वस्थ परिहास एवं निर्मल हँसी की मुग्धभाव से चर्चा की।

इससे यही स्पष्ट होता है कि आन्तरिक प्रसन्नता ने जुड़ी निश्छल हँसी तथा स्वस्थ विनोद-वृत्ति सुसंस्कारों का सत्यपरिणाम है और उससे संपर्क-क्षेत्र का प्रत्येक व्यक्ति प्रफुल्लता का अनुभव करता है। ऊपर जिन महापुरुषों की चर्चा की गई है, उनके संपर्क में आने वालों में जहाँ ऐसे लोग रहे, जिन्होंने उनसे सहयोग-अनु-दान-मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन धन्य बनाया; वहीं ऐसे लोग भी कम नहीं थे, जिन्होंने उनकी प्रसन्नता को देखकर ही कुछ पा लेने का अनुभव किया। एक तरह की ताजगी और शुचिता से वे भर उठे।

सच्ची प्रसन्नता वह पवित्र भागीरथी-प्रवाह है, जिसके समीप कुछ देर बैठ लेन भर से नवीन स्फूर्ति रग-रग में भर जाती है, चित्त हलका हो जाता है और कषाय-कड़ुवाहट से उत्पन्न व्यग्रता-भरी गर्मी तथा भार धुल-बह जाता है।

जो प्रसन्नता समीपवर्ती अन्य लोगों को इतना हर्ष और शक्ति देती है, वह स्वयं अपने धारक को कितना सुख न देती होगी।

कहा जा सकता है कि यह तो सब ठीक है। किन्तु विपन्नता, अभाव और प्रतिकूलता में विनोद-भाव एवं प्रसन्नता कैसे बनी रहे? वस्तुस्थिति यह है कि साधन-सम्पन्नता और सुविधा-संरक्षण से प्रसन्नता का कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। ऐसा आये दिन देखने में आता है कि रूखा-सुखा खाने, पहनने वाले भी प्रसन्न और धन-वैभव से सज्जित लोग भी चिड़चिड़े, बेचैन, अधीर, अशान्त हों। अस्थिर अनमन आँखें, तने तेवर, फूलती नसें और खिंची मुखाकृति-बड़े अफसरों, धनपतियों और साधन-सम्पन्नों के बीच भी कोई दुर्लभ दृश्य नहीं है। दूसरी और आर्थिक कठिनाइयों और तीखे संघर्षों के बीच भी जी खोलकर हँसने वाले व्यक्तियों की संख्या कुछ कम नहीं है।

गरीबी की सीमा-रेखा से नीचे जीवन जीने को विवश लोगों में भी प्रसन्नता तथा अपव्ययी विलासिता की स्थिति में जीने वालों में भी उद्विग्नता के उदाहरण आये दिन देखने के बाद भी साधन-सुविधाओं से प्रसन्नता का सम्बन्ध जोड़ना कहाँ तक उचित है?

सत्यता तो यह है कि परिस्थितियों को जटिलता नहीं, मनोभूमि की जटिलता ही व्यक्ति से उसकी सहजता और हँसी छीनती है। उद्विग्नताजन्य मानसिक तनाव, मानसिक दुर्बलता का परिणाम है। सशक्त मन में अनुकूलन की स्वाभाविक प्रवृत्ति तथा सामर्थ्य होती है।

प्रसन्नता का संबंध उपभोग-तन्त्र से नहीं, सम्वेदना-तन्त्र से है। उपभोग-तन्त्र की विषमता, क्रूरता तथा जटिलता के प्रति सात्विक रोष भिन्न बात है और निरन्तर खीझ, तनाव, चिड़चिड़ेपन से भिंचे-तने रहना भिन्न बात है। सही बात तो यह है कि सामाजिक अशुभ को भी ठीक से वही समझ सकेगा, जो शुभ को देख-समझ सकता है। जिन्हें मात्र अशुभ-चिन्तन, दोष-दर्शन, अभाव अनुभव और अवरोध-अन्वेषण की ही आदत है, वे खिन्नता उद्विग्नता, क्षोभ और आवेश से ही इतने भरे रहेंगे कि सामाजिक मंगल का सन्तुलित-चिन्तन और प्रवाहपूर्ण कर्म उनके वश की बात नहीं। वैसे भी, सामाजिक हित की चिन्ता करने वालों में आन्तरिक प्रसन्नता की भी स्वाभाविक प्रवृत्ति सर्वत्र देखी-पाई जाती है। चिड़चिड़ापन, अवसाद, असमंजस और कुण्ठा तो उन्हें ही अधिक घेरती है, जो अपनी ही भौतिक सुविधाओं की चिन्ता एवं अनुकूलताओं की कामना में दिन-रात डूबे रहते हैं।

अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ दोनों प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आती हैं। जो मात्र प्रतिकूलताओं की ही बाबत विचार करता रहेगा, उसे हताशा और पीड़ा ही दबोचे रहेगी। अधिक सुविधा-सम्पन्न लोगों से अपनी तुलना कर कुढ़ते रहने वाला व्यक्ति सदा ही क्षुब्ध दिखाई पड़ेगा। जबकि अपनी अनुकूलताओं पर विचार करने वाला यह देखेगा कि उसके पास जो कुछ है, वह भी अनेकों के लिए दुर्लभ है। अतः कुढ़ने-खीझने की कोई आवश्यकता है नहीं। हाँ, विषमता के सामाजिक आधारों को समझने और उन्हें ध्वस्त करने की आवश्यकता अवश्य है। पर जो अपने ही अभावों को लेकर रो रहा है उसमें ऐसी श्रेष्ठ तत्परता आने की नहीं। उसे तो बस अपना अभाव और अधिक सम्पन्न लोगों का आमोद-हर्ष, दो ही बातें दिखाई देती हैं। उसका चित्त सदा बोझिल ही बना रहता है।

बार-बार आशा भंग होने से; श्रम के न्यूनतम पुरस्कार से भी वंचित रहने से या सतत शारीरिक पीड़ा से मनुष्य की भावनात्मक प्रकृति पर गहरे घाव हो जाते हैं। किन्तु इन घावों को गहरा करने में व्यक्ति की बढ़ी-चढ़ी अपेक्षाएँ अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि ये घाव सामाजिक कु-व्यवस्था के परिणाम हैं तो उन्हें एक-दो नहीं, करोड़ों को सहना-भोगना पड़ता होगा। उनके विरुद्ध संगठित-सुव्यवस्थित प्रयास ही सम्भव है। यदि ये विफलताएँ अपनी अक्षमताओं-दुर्बलताओं से सामने आई हैं, तो शांत-चित्त से उन्हें दूर करने में जुट जाना चाहिए। किसी भी स्थिति में, जो घटित हो जाये उसके लिये पछताते बैठने से कैसा भी लाभ होने वाला नहीं। वह अपनी प्रचण्ड आत्म-सत्ता का अपमान मात्र है। अपने को इतना छोटा नहीं मान बैठना चाहिए कि परिस्थितियों के प्रतिकूल झकोरे जड़ें ही हिलाकर रख दें।

प्रसन्नता एक दैवी विभूति है। उससे स्वयं को वंचित न होने दें। वह अन्य अनेक उपलब्धियों से बढ़-चढ़कर है। प्रतिकूलताओं के प्रचण्ड-आघातों को हँसकर झेलने से बड़ी वीरता क्या हो सकती है? सभी जीवट वाले लोगों में परिस्थितियों की विडम्बनाओं पर तथा स्वयं अपनी विसंगतियों पर हँस सकने की समान क्षमता देखी जाती है। वस्तुतः यही सच्ची विनोद-वृति है। सच्चा विनोदी अपने ऊपर भी हँस सकता है। किन्तु पड़ौसी पर, साथी पर विष-बुझे व्यंग-बाण कभी नहीं छोड़ता।

विनोद-वृत्ति जहाँ स्वस्थ चित्त की द्योतक है; वहीं बात-बात पर व्यंग करने की प्रवृत्ति हीन-भावना एवं रुग्ण मनःस्थिति का परिणाम है। हास-परिहास स्वस्थ होता है, किन्तु दूसरों का उपहास सदा कलहकारी एवं हानिकर होता है। खिल्ली उड़ाना तथा विनोद करना-दो सर्वथा भिन्न प्रवृत्तियां हैं। खिल्ली उड़ाने वाली प्रवृत्ति प्रारम्भ में भले ही रोचक नोंक-झोंक प्रतीत हो, किन्तु उसका अन्त सदा आपसी दरार, तनाव और कटुता में होता है। ऐसी ही प्रवृत्ति के लिये कहा गया है- “लड़ाई की जड़ हाँसी और रोग की जड़ खाँसी।”

विनोद और उपहास का अन्तर ऐसा नहीं है, जो हर किसी की समझ में न आ सके। इसके विपरीत, उनके शब्दों, शैलियों, मन्तव्यों और परिणामों में इतना अधिक अन्तर होता है कि प्रत्येक व्यक्ति उसे आसानी से समझ लेता है। उपहास दूसरों की कमजोरियों पर उँगली रखना है। इससे वह व्यक्ति तिलमिला उठता है। जबकि विनोद अपनी खुशी को बँटाना है, जिससे दोनों को आनन्द मिलता है।

जिस प्रकार तेज हवा कूड़ा-करकट उड़ा ले जाये, वैसे ही मुक्त हास्य मन का सारा दबाव-भार उड़ा देता है। जो हँस सकता है, वह दबावों से विक्षुब्ध नहीं बना रहता। “बच्चों जैसी हँसी।” विशेषण का प्रयोग प्रायः निश्छल हास्य के लिये किया जाता है। वह उपयुक्त ही है। बच्चों के मन पर घटनाक्रमों का बोझ नहीं रहता। यद्यपि प्रत्येक घटना के प्रति उनकी प्रतिक्रिया जीवन्त एवं तीव्र होती है। विनोदी वृति के व्यक्तियों का चित्त हलका रहता है, इसलिये वे प्रस्तुत क्षण के प्रति प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक प्रतिक्रिया करते है। किसी पूर्ववर्ती घटना-प्रतिक्रिया का दबाव-बोझ उन पर नहीं रहता। इसलिये विनोद-वृत्ति का अगम्भीरता या छिछोरेपन से कोई सम्बन्ध नहीं। छिछोरापन भी वस्तुतः एक प्रकार का मानसिक बोझ ही है, जो हरदम चित्त पर लदा रहता है और सामने घट रही घटना को पैनेपन से देखने-समझने नहीं देता।

विनोद-वृत्ति तो भीतरी खुशी का अजस्र झरना है। निरन्तर चलने वाला फव्वारा है। बाहर खुशियों की तलाश के नतीजे अनिश्चित रहते हैं। बाहरी परिस्थितियाँ सदा व्यक्ति के वश में नहीं होती। उत्तम मार्ग यही है कि खुशियों का स्रोत भीतर ही प्रवाहमान, गतिशील रखा जाय। बाहर खुशी ढूढंना, प्यास लगने पर कुँए या प्याऊ की तलाश करना है। कुँआ सूखा या खारे जल वाला हो सकता है। प्याऊ में पानी नहीं मिले, यह भी हो सकता है, पर भीतर बहने वाला निर्मल हास्य का झरना तो तृप्ति के लिये सदा ही उपलब्ध रहता है।

सभी प्रखर, प्राणवान एवं क्रियाशील व्यक्तियों में विनोद-वृत्ति पाई जाती है। वह उन्हें नित नूतन स्फूर्ति देती है। इसीलिये हममें से हर एक को हँसती-हँसाती जिन्दगी जीना चाहिए। स्वस्थ विनोद-वृत्त को सदा जागृत रखना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118