यह रिश्तेदारी न भूलें

April 1979

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शरीर के लिए भोजन-वस्त्र विश्राम, चिकित्सा की व्यवस्था करना आवश्यक है। न करें तो उसकी दुर्बलता के कारण अपने काम रुक जायेंगे और अकाल मृत्यु होकर आत्म-हत्या का पाप लगेगा। इसलिए हर बुद्धिमान व्यक्ति अपनी शरीर व्यवस्था जुटाने का प्रयत्न करता है यह उचित भी है और आवश्यक भी। पर यदि कोई व्यक्ति सारा समय, मनोयोग और कर्तव्य शरीर रक्षा तक ही सीमित करलें, उससे आगे की कुछ बात सोचने करने की आवश्यकता ही न समझे तो उसे नर-पशु कहेंगे। पशु को मनुष्य की तुलना में भर्त्सना केवल इसी कारण दी जाती है कि उसका चिन्तन और कर्त्तव्य मात्र शरीर की चर्चा तक सीमित रहता है। मानव शरीर का उपयोग विशाल क्षेत्र में करना पड़ता हैं, तभी उसकी सार्थकता होती है।

शरीर के बाद परिवार का नम्बर आता है। जिस पत्नी का हाथ अग्नि देव की साक्षी में पकड़ा गया है उसे भरपूर स्नेह देना चाहिए, उसका समुचित सम्मान करना चाहिए और भरण-पोषण से लेकर ज्ञान बुद्धि एवं व्यक्तित्व के विकास की समस्त सुविधाएँ जुटानी चाहिएँ। एक विश्वस्त साथी की तरह उसे आगे बढ़ाने और ऊँचा उठाने के लिए सब कुछ करना चाहिए। इसी प्रकार बच्चो के साथ हँसने-खेलने से लेकर उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सुविधा का ध्यान रखना चाहिए। साथ ही उन्हें सुसंस्कृत बनाने के कठोर कर्तव्य का भी विस्मरण नहीं करना चाहिए। माता-पिता-बहिन-भाई, सभी कुटुम्बियों की भौतिक एवं आत्मिक आवश्यकताओं के लिए अपनी सामर्थ्य के अंतर्गत जो कुछ भी हो उसको औचित्य की मर्यादा में पूरी तरह निबाहना चाहिए पारिवारिक कर्तव्यों में न तो उपेक्षा बरतनी चाहिए और न शिथिलता। उस उद्यान को हरा-भरा रखने के लिए एक कर्तव्य-निष्ठ माली की तरह हमें सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए माली को पेड़ पौधों की साज सँभाल रखनी चाहिए पर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को नहीं भूल जाना चाहिए। हम शरीर की तरह परिवार की भी सुव्यवस्था रखें पर उतने भर से अपने कर्त्तव्य इतिश्री न मान लें।

मनुष्य एक सामाजिक मछली है जिसे सब कुछ पानी रूपी समाज से ही मिला है। उसी में उसका जीवन है। पानी विषैला हो जाय तो मछली न सुखी रह सकेगी और न जीवित। समाज का वातावरण भ्रष्टता और दृष्टता से विषाक्त हो जाय तो किसी सज्जन व्यक्ति की भी शान्ति सुरक्षित नहीं रह सकती। अस्त-व्यस्त समाज में हर किसी की प्रगति रुकी पड़ी रहेगी और शान्ति सुरक्षित न रहेगी। यदि नागरिक अपना ध्यान सामाजिक उत्तर-दायित्वों की ओर से हटालें तो फिर उसमें विकृतियाँ ही भरेंगी, जन-जीवन संकटग्रस्त ही होगा।

सामाजिक कर्तव्य भी इतने आवश्यक और महत्वपूर्ण हैं-जितने शारीरिक और पारिवारिक उत्तरदायित्व। हमें सीमित और संकीर्ण नहीं होना चाहिए। शरीर और परिवार का ध्यान रखते हुए उतनी ही छोटी परिधि में सीमित, अवरुद्ध नहीं होना चाहिए। आत्म-विश्वास की दिशा में बढ़ते चलने का विशाल दृष्टिकोण रखकर ही उदात्त-जीवन जिया जा सकता है।

आत्मा और परमात्मा के साथ भी हमारा कुछ रिश्ता है। इस लक्ष्य को भुला न दिया जाना चाहिए।यह जीवन आत्मशोधन आत्म-निर्माण, आत्मविकास और आत्म-कल्याण के लिए मिला है। ईश्वर ने सुर दुर्लभ मनुष्य शरीर दिया है। क्या उनके लिए हमें कुछ नहीं करना चाहिए? शरीर और परिवार की ममता में इतना डूब जाना कि आत्मकल्याण और ईश्वरीय आदेश की ओर सर्वथा मुँह मोड़ लिया जाय, यह सर्वथा अशोभनीय है।

हम विशाल दृष्टिकोण अपनायें। शरीर और परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए समाज के प्रति आत्मा के प्रति भी अपने उत्तरदायित्व समझें इसी में दूरदर्शिता है।


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