कृपया कृपण न बनें

April 1979

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केवल अपने लिये ही न जियें, जीवन का यह घृणित-तम उपयोग है कि उसे अपने लिये ही जिया जाय-उससे दूसरे लाभ न उठायें।

जो गाय दूध नहीं देती उसे बंध्या कहते है, जो पेड़ फल नहीं देते उन्हें काट देते हैं। जिस भूमि में उपज नहीं होती उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। फलित न होना बुरा है- जिसमें उत्पादन की सामर्थ्य नहीं उस असमर्थ का दयनीय कहा जाता है।

पर इससे भी बुरा वह है जो उत्पादक होते हुए भी उस लाभ को अपने लिए ही सुरक्षित रखता है, दूसरों को उससे लाभान्वित नहीं होने देता। कहते कृपण अपना धन किसी को भी नहीं देता-यहाँ तक कि मरने के बाद उस भूमि में गढ़े धन की रक्षा करने के लिए सर्प की योनि धारण करता है और वन-विचरण का सुख छोड़कर उसी की चौकसी करता रहता है। यद्यपि वह स्वयं भी उसका कुछ लाभ नहीं लेता, पर दूसरों को-लाभान्वित होने देने की उदारता न होने से उसे अवरोध ही रुचिकर प्रतीत होता है।

जिधर दृष्टि दौड़ाकर देखें, जड़-चेतन जगत में उदारता का नियम काम कर रहा है। हर सत्ता अपनी विभूतियों को दूसरों के लिए बाँटने में मोद मनाती और गौरवान्वित होती है। केवल कुछ कृपण ही इसके अपवाद हैं, वे उपलब्धियों का लाभ स्वयं ही लेते हैं उसमें किसी दूसरे को साक्षी नहीं बनने देते। कुछ तो उससे भी आगे बड़े-चढ़े है। वे न स्वयं उस सम्पत्ति से लाभान्वित होते हैं और न किसी दूसरे को होने देते हैं।

देखने में यह निर्दोष लगता है कि जो कमाये वही खाये तो उसमें अनुचित क्या है? अपनी वस्तु किसी को न दे तो इसमें दोष क्या है? पर समझने में यह सृष्टि क्रम का व्यतिक्रम हानिकारक ही नहीं भयानक भी है। यदि इसे निर्दोष मान लिया जाय तो प्राणियों के बीच जुड़ी हुई आदान-प्रदान की श्रृंखला ही टूट जायगी और किसी से सम्बन्ध ही न रह जायगा। यह आदान-प्रदान का क्रम ही एक दूसरे को जोड़ता है और बाँधता है इसलिये तत्वदर्शी इस क्रम विधान की सूत्रात्मान परमात्मा के नाम से भी पुकारते है।

गाय अपना दूध आप ही पिया करे-न बछड़े को न किसी मनुष्य को पीने दे तो फिर वह गौ माता कैसे रहेगी? फिर भगवान का पंचामृत पूजन कैसे होगा? वृक्ष अपनी शाखा, पल्लव, पुष्प, फल किसी को छूने न दे उन्हें अपने उपयोग के लिए ही सुरक्षित रखे; जो लेने की चेष्टा करें उसी को सर्प की तरह काट लिया करे तो फिर संकट ही खड़ा हो जायगा। भूमि अपन अन्न, अपने खनिज किसी को लेने न दे। बादल अपना पानी अपने भंडार में भरे रखे। माता बच्चे के पालन का कष्ट न उठाये, सूरज अपनी गर्मी अपने गोदाम में बन्द रखे तो यह सुन्दर सजीव संसार देखते-देखते कुरूप और दुर्गन्धित मृत पिण्ड मात्र बनकर रह जायगा।

हमें कहीं से मिला है-बदले में किसी को हम भी देते हैं, तभी काम चलता है। हमें किसी की पुत्री, पत्नी रूप में मिली-हम अपनी पुत्री को किसी की पत्नी बनने के लिए प्रदान करते हैं। अभिभावकों ने हमें पाला-हम अपने बालकों को पालते हैं। अनेक लोगों के सहयोग से हमें जीवनोपयोगी सुविधाएँ प्राप्त हुई है। अतः अनेकों की सुविधा बढ़ाने वाले हमारे भी क्रिया-कलाप होने चाहिये।

परिवार तक आदान-प्रदान का क्रम तो पशुओं में भी चलता है, मनुष्य की विशेषता उस उपकार प्रत्युपकार के क्रम से अधिक व्यापक बनाने से ही गौरवान्वित होती है।

कृपण बनकर देने से जब हम इनकार करते हैं तो वह लाभ मिलना बन्द हो जाता है जिसके आधार पर हमें इतनी उपलब्धियां प्राप्त कर सकना संभव हुआ था। नदी-पुल, बाँध आदि को तोड़ना बुरा हैं। इससे भी बुरा परस्पर आदान-प्रदान की अनादि सृष्टि परम्परा को तोड़ना है। कृपण इसी अपराध का अपराधी बनता है और अपने उभय लोक को अन्धकारमय बनाता है।


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