नास्तिकता- कोई विचारधारा नहीं चित्त की स्थिति है

April 1979

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चार्वाकवादियों ने जिस प्रकार ‘साधनस्य अभावात्’ अर्थात् सृष्टि कार्य का कोई कारण न होने से ईश्वर के सिद्ध न होने की बात कही, उसी प्रकार अदृष्ट के न होने तथा अन्य लोकों में जीवन के न होने की बात कही और इन्हें भी ईश्वर के न होने का प्रमाण बताया।

अदृष्ट के न होने के पक्ष में उनका तर्क है कि मात्र उसी का अस्तित्व है- जा प्रत्यक्ष है। जो प्रत्यक्ष नहीं, उसका अस्तित्व नहीं। क्योंकि उसका कभी प्रत्यक्षण नहीं हुआ। ईश्वर कभी गोचर नहीं हुआ, इसी से उसका अस्तित्व नहीं है। जो कभी-कभी प्रत्यक्ष हुआ है, वह अदृष्ट नहीं है। अदृष्ट तो वही है, जिसका कभी भी प्रत्यक्षण नहीं हुआ। ईश्वर को कभी भी प्रत्यक्ष नहीं देखा गया, इसलिए वह उतना ही अयथार्थ एवं अस्तित्वहीन है जितना खरगोश या गधे के सिर पर सींग।

इसका उत्तर यहीं है कि जो अदृष्ट है, वह अस्तित्वहीन नहीं है। देवदत्त घर में नहीं है, इससे वह दृष्ट नहीं है। पर यह नहीं सिद्ध होता कि देवदत्त को कभी किसी ने देखा है, इसी से वह है, तो ईश्वर का अनुभव भी कई साधकों-सिद्धों ने किया है, इसलिए वह है। देवदत्त को देखना चाहने वाले, उसके स्वरूप से परिचित लोग ही उसे देखकर जानेंगे और पहचानेंगे। अन्य लोग यदि उसे देख भी लेंगे तो कोई एक मनुष्य है, यहीं मानेंगे। देवदत्त है ऐसा निश्चित कथन नहीं कर सकते। इसी प्रकार ईश्वरीय-सत्ता की द्योतक घटनाएँ प्रत्यक्ष देखकर भी नास्तिक लोग उसे प्रकृति की हलचल विशेष कहकर संतुष्ट हो सकते है। ईश्वर को पहचानेगा वही, जो उसके स्वरूप से परिचित होगा।

बच्चे या बाल-बुद्धि लोग देवदत्त के पुतले को देवदत्त मान सकते हैं। कोई समझदार व्यक्ति बाद में तर्क एवं परीक्षण के साथ यह सिद्ध करदे कि यह तो मिट्टी या कागज या प्लास्टिक का पुतला है, देवदत्त नहीं, तो यह उसका यह विश्लेषण अपनी जगह सही होते हुए भी वास्तविक देवदत्त की सत्ता को असिद्ध नहीं करता। उसी प्रकार ईश्वरीय व्यवस्था के नाम पर पुरोहित वर्ग द्वारा रची गई व्यवस्था को यदि विवेकशील वर्ग उखाड़ फेंकता या उसमें दोष ढूँढ़ निकालता हे, उसके आधारों को मिथ्या कर देता है, तो इससे ईश्वरीय व्यवस्था ही मिथ्या नहीं सिद्ध हो जाती जिस समय नीत्से की घोषणा की कि ईश्वर मर गया है, अब उसके स्थान पर मनुष्य को स्वयं अपना भार उठाना होगा, उस समय वह ईश्वरीय व्यवस्था को नहीं, ईश्वर के नाम पर चर्च द्वारा लादी गई व्यवस्था को मृत घोषित कर रहा था। मनुष्य अपनी जिम्मेदारियाँ स्वयं उठाए, इसे नीत्शे के बहुत पहले से भी कहा जाता रहा है। ‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है- यह प्रतिपादन आस्तिक आचार्यों का भी रहा है। अतः नीत्से जैसों का कथन और निष्कर्ष वस्तुतः ईश्वर के विरुद्ध नहीं, ईश्वराभास के विरुद्ध था। ईश्वर को गोचर तो आस्तिक भी नहीं मानते। जो गोचर नहीं, वह अस्तित्वहीन है, ऐसा नहीं माना जा सकता। परमाणु सामान्यतः अदृष्ट है, पर उसका अस्तित्व है। अब तो वैज्ञानिक यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि सृष्टि के मूल प्राथमिक कण वैज्ञानिक उपकरणों की पकड़ में ही नहीं आ सकते। वे क्या हैं, यह ठीक से जाना ही नहीं जा सकता, इस प्रकार वे अदृष्ट है। किन्तु इससे उनकी अस्तित्वहीनता सिद्ध होती। क्योंकि सृष्टि के मूल कणों का ही अस्तित्व नहीं है, ऐसा कहने का अर्थ है कि सृष्टि ही नहीं है, विज्ञान और वैज्ञानिक नहीं है तथा सृष्टि नहीं है,’- यह कहने वाला भी नहीं है। अतः अदृष्ट की असत्ता सिद्ध नहीं होती। इसलिए ‘अलौकिकस्य अभावात्’ यह नास्तिकों का सूत्र गलत सिद्ध हुआ।

शेष रहा ‘ परलोकस्याभावात्’ सूत्र। परलोक यानी इस लोक के-अतिरिक्त जीवन युक्त कोई अन्य लोक नहीं है, यह तो इस विज्ञान के युग में स्वतः ही अमान्य हो गया है। इसी पृथ्वी लोक जैसे अरबों लोकों में सभ्यता-संस्कृति की विद्यमानता की सम्भावना वैज्ञानिक बता रहें है।

प्राचीन आचार्यों के परलोक के पक्ष में एक और अकाट्य तर्क दिया था। वह अभी भी उतना ही महत्वपूर्ण है। वह यह है कि- (1) कई बार पुण्य-कार्य करने वालों को भी उचित फल इसी जीवन में मिलता नहीं देखा जाता। दूसरे जन्म में उसका फल मिलता है। जन्मतः विलक्षण प्रतिभाएँ और विशिष्ट अनुकूलताएँ विगत जीवन के पुण्य का ही परिणाम हो सकती है। क्योंकि बिना कारण के कोई कार्य सम्भव नहीं है, यह सिद्ध हो चुका है।

लौकिक दृष्टि से चिरकाल पूर्व नष्ट हुआ पुण्य-कर्म इतनी अवधि के उपरान्त फल- उत्पादन में समर्थ होता है, इसका अर्थ है कि इस बीच उस कर्म की सूक्ष्म रूप में किसी अन्य लोक में उसी प्रकार अवस्थिति रहीं जिस प्रकार कि धरती में गढ़ा बीज ऊपरी सतह पर अदृष्ट होने पर भी नीचे विद्यमान रहता हे। क्योंकि किसी फल के जनक अवान्तर व्यापार के बिना अर्थात् सृजन-उत्पादन की अविच्छिन्न प्रक्रिया के बिना कोई कर्म-बीज फल-उत्पादन में समर्थ नहीं हो सकता। जिस प्रकार चिर-ध्वस्त अनुभव मस्तिष्क में अंकित संस्कार रूप में रहने के कारण ही स्मृति रूप चित्त में कालान्तर में उदित होता है उसी प्रकार कहीं संस्कार-रूप अवस्थित कर्म ही जन्माँतर में फल देते है। यह ‘कहीं’ ही परलोक है, जिस चाहें तो ब्रह्माण्डीय मस्तिष्क-लोक भी कह सकते है। इस प्रकार “परलोकस्य अभावात्” सूत्र गलत हुआ।

(1) पुण्य और नैतिक कर्मों में प्रत्यक्षतः कष्ट होने पर भी अनेक लोग उस ओर प्रवृत्त रहते हैं, पुण्य-पथ से विचलित नहीं होते। इसका अर्थ है कि उन्हें परलोक में विश्वास है। यह विश्वास अकारण नहीं होता। अकारण उत्पन्न विश्वास पीड़ा पाकर डिग जाता है। कष्ट-सहन की सुदीर्घ प्रेरणा युगों-युगों तक देते रहने में आधारहीन विश्वास समर्थ नहीं होता। जो लोग धार्मिक-सम्प्रदायों के नाम पर अंधमान्यताओं में विश्वास करते हैं, उन्हें आए दिन यहाँ से वहाँ भटकते देखा जा सकता है। मूर्ति-पूजा के अंधविश्वासियों ने मूर्ति-भजक मुसल-मानों से मौका पाते ही समझौता कर लिया, रोटी-बेटी का रिश्ता बना लिया। किन्तु आदर्शों-मूल्यों को अपना कर जीवन भर कष्ट भोगने वाले लाखों लोग हर देश-काल में पाए जाते है। इससे स्पष्ट होता है कि इस आदर्शनिष्ठा के फलवती होने की उन्हें अडिग आस्था है। प्रत्यक्षतः यह फल मिलता नहीं। अतः सूक्ष्म रूप में ही उस फल के उत्पादन की किसी प्रक्रिया पर उनके चेतन-अचेतन मन में आस्था रहती है। यही सूक्ष्म भाव-लोक परलोक है। यदि कोई कहे कि चालाक ठगों ने आदर्शवाद का जाल-जंजाल बिछाकर भोले लोगों को ठग रखा है तो “ विप्रलम्मोऽपिनेदृशः” प्रवंचना ठगी भी ऐसी नहीं होती। क्योंकि दूसरों को ठगने के लिए कोई निरंतर आजीवन स्वयं कष्ट नहीं सहता। न ही, किसी सर्वथा आधारहीन तथ्य से हर देश काल में ठगी हो सकती। अतः बड़ी संख्या में किसी ऐहिक सुख के, लोगों की पुण्यकर्मों में निरन्तर प्रवृत्ति परलोक की प्रतिपादक-पुष्टि- कारक घटना है, प्रमाण है। इस प्रकार “परलोकस्य अभावात” सूत्र का तर्क गलत सिद्ध होता हे।

न्यायकुसुमांजलिकार ने नास्तिक प्रतिपादनों का जो खंडन किया है, उसके मुख्य तर्क यही हे। सच पूछा जाय, तो प्रथम स्तवक का प्रतिपादन ही प्रधान है।

शेष चार स्तवकों में क्रमशः उन लोगों के तर्कों को काटा गया है जो कहते हे कि (1) परलोक तो हैं, और पुण्य कर्मों का फल भी मिलता हैं, किंतु ईश्वर नहीं है। (2) ईश्वर नहीं है, इसके प्रमाण विद्यमान हैं, इसलिए ईश्वर नहीं है (3) ईश्वर है, इसके प्रमाण नहीं मिलते, इसलिए ईश्वर नहीं है, किन्तु जीवात्मा चेतन है, पुनः-जन्म होता है और कैवल्य-सिद्धि यानी मोक्ष लाभ भी होता है तथा (4) आत्मा है, वह चेतन है, प्रकृति से भिन्न है, किन्तु वह किसी एक ही परमात्मा का अंश नहीं हैं। अपितु असंख्य आत्माएँ हैं और सभी अपने आप में स्वतंत्र है। स्पष्ट है कि ये सभी तर्क मात्र तर्क के लिए हैं ईश्वर के अस्तित्व का अस्वीकार करने वाले आधारभूत तर्क वही हैं,जो चार्वाकवादियों ने प्रस्तुत किये हैं। और वे तर्क भी तर्क कम हैं, ईश्वर को न मानने का हठ अधिक है। शेष लोग जो कहते हैं कि पुनर्जन्म भी होता हैं, परलोक भी है, आत्मा चैतन्यमय भी हैं, किन्तु परमात्मा नहीं है, वे तो स्पष्टतः दुराग्रह ही प्रदर्शित करते हैं। मानों परमात्मा को मानने से या तो उन्हें भय है या फिर परमात्मा को अस्वीकार करने के दम्भ के प्रदर्शन का उन्हें मोह है।

वास्तविक बात यह है कि नास्तिकता की कोई एक सुस्पष्ट विचारधारा नहीं है। नीत्से जैसों ने ईश्वर को अस्वीकार किया, किन्तु ईश्वरीय गुणों से विभूषित मानवों-अतिमानवों की कल्पना प्रस्तुत कर एक तरह से आस्तिकतावादी मूल्यों को ही स्वीकार किया। बैखरी वाणी से ईश्वर को स्वीकार करना या न करना-वस्तुतः अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि वह तो तर्क-व्यापार मात्र है।

आस्तिकता की कसौटी तर्क और वाणी मात्र नहीं, चिन्तन और आचरण का स्तर है। इसीलिए विवेकानन्द ने कहा था-’जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं, वही नयी परिभाषा के अनुसार नास्तिक है। अतिमानस-अतिमानव आदि आदर्शों की संस्थापना करने वाले चिन्तन और कर्म को पूरी तरह नास्तिक नहीं माना जा सकता। नास्तिक तो वह हैं, जिसे कर्मों के सुनिश्चित परिणाम पर एवं कार्य-कारण के अनिवार्य सम्बन्ध पर विश्वास नहीं हैं और इसलिए जो उत्कृष्ट चिन्तन तथा आदर्श कर्तृत्व को मूर्खों तथा उद्भ्रांतों की हरकतें मानता है। ऐसी मान्यता किसी चिन्तन का नहीं, चित्त की विकृति का परिणाम है।

नास्तिकता चित्त की वह स्थिति हैं, जो दुर्बलता, और रुग्णता के कारण कर्कश, दुराग्रहपूर्ण तथा निषेध-वादी हठवादिता से भरपूर होती हैं स्वस्थ एवं श्रेष्ठ चिन्तन का तो जब भी, जहाँ भी प्रयास होगा, वह प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप में आस्तिकतावादी मूल्यों और नैतिक प्रतिमानों की ही पुष्टि करेगा।

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