कुछ न बोल सके (kahani)

April 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सन्त पुरन्दर गृहस्थ थे तो भी क्या लोभ, क्या काम और क्रोध उन्हें छू भी नहीं गये थे। दो तीन घरों में भिक्षाटन करते उससे जो दो मुट्ठी चावल और आटा मिल जाता उससे वे अपना और अपनी धर्मपत्नी सरस्वती देवी का उदर पोषण कर लेते और दिन भर लोक सेवा के कार्यों में जुटे रहते।

एक दिन विजय नगर के राजपुरोहित व्यासराय ने महाराज कृष्ण देव राय से कहा राजन्! सन्त पुरन्दर गृहस्थ होकर भी राजा जनक की तरह विकार मुक्त है दिन भर बेचारे पिछड़ों को ज्ञान दान देने, कष्ट पीड़ितों की सेवा करने में लगे रहते हैं। स्वार्थ की बात तो उनके मन ही में नहीं आती। महाराज कृष्णदेव राय-हँसे और बोले “गृहस्थ जीवन में कौन तो निर्लोभ रहा, कौन काम वासना से बचा?” “यदि गृहस्थ में ऐसा सम्भव हो जाए तो संसार के सभी लोग अपना मनुष्य शरीर सार्थक न कर लें?”

“कर सकते हैं” व्यास बोले-”यदि लोग सन्त पुरन्दर और देवी सरस्वती की भाँति निर्लोभ, सेवा परायण व सरल जीवन जीना सीख लें।” महाराज कुछ खिन्न से हो गये और बोले ऐसा ही है तो आप उनसे कुछ दिन यही हमारे यहाँ भिक्षाटन के लिए कह दें। व्यासराय ने सन्त पुरन्दर से जाकर आग्रह किया- “आप आगे से राजभवन से भिक्षा ले आया करें।” सन्त पुरन्दर ने कहा-”मैं जिन लोगों के बीच रहता, जिनकी सेवा करता हूँ उन अपने कुटुम्बी जनों से मिली हुई भिक्षा ही पर्याप्त है। दो ही पेट तो हैं उसके लिए राज भवन जाकर क्या करूंगा? पर व्यासराय तब तक बराबर जोर डालते रहे जब तक सन्त ने उनका आग्रह स्वीकार नहीं कर लिया।

सन्त पुरन्दर राजभवन जाने लगे। वहाँ से मिले चावल ही उनके उदर पोषण के लिए पर्याप्त होते।सन्त अपनी सहज प्रसन्नता लिए हुए जाते, उसका अर्थ महाराज कुछ और ही लगाते। एक दिन तो उन्होंने व्यासराय से कह भी दिया देख ली आपके सन्त की निस्पृहता। आज-कल देखते नहीं कितने प्रसन्न रहते हैं। व्यासराय बोले आपका तात्पर्य समझे नहीं। इस पर महाराज ने कहा- “आप मेरे साथ चलिए अभी बात स्पष्ट हो जाएगी।” महाराज पुरोहित के साथ सन्त पुरन्दर के घर पहुँचे देखा उनकी पत्नी चावल साफ कर रही है और कह रही हैं- “आजकल न जाने कहाँ से भिक्षा लाते है इन चावलों में कंकड़-पत्थर भरे पड़े हैं। यह कहकर उन्होंने अब तक के बीने कंकड़ उठाये और बाहर की तरफ फेंकने चल पड़ी।” महाराज बोले भद्रे यह तो हीरे मोती हैं- जिन्हें आप कंकड़ पत्थर कहती हैं। सरस्वती देवी हँसी और बोली पहले हम भी यही सोचते थे, पर अब जब से भक्ति को संपत्ति मिल गई इनका मूल्य कंकड़ पत्थर के बराबर ही रह गया। महाराज यह उत्तर सुनकर अवाक् रह गये, वे आगे और कुछ न बोल सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118