महापुरुष पुस्तकों की प्रयोगशाला में

April 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

दक्षिण अफ्रीका की बात है उस दिन गाँधी जी ने ग्लैडस्टन की जीवनी पढ़ी थी। एक प्रसंग था जिसने गाँधी जी के जीवन की एक धारा को उलट कर रख दिया। “एक दिन एक आम सभा हो रही थी। उसमें ग्लैडस्टन, के साथ उनकी धर्म-पत्नी भी थीं। ग्लैडस्टन को चाय पीने की आदत थी। चाय बनाने का उनकी धर्म-पत्नी ही करती थी। आम-सभा के बीच ग्लैडस्टन ने चाय पीने की इच्छा की तो श्रीमती ग्लैडस्टन ने बिना किसी झिझक, लज्जा या संकोच के अपने हाथ से वही चाय बनाई पति को पिलाई और कप-प्लेट हाथ से साफ किये। ऐसा उन्होंने कई स्थानों में किया। “

इस घटना को पढ़कर गाँधी जी के जीवन में जो प्रति-क्रिया हुई, उसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इन शब्दों में किया है- “पत्नी के प्रति वफादारी मेरे सत्य के व्रत का अंग थी; पर अपनी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, यह बात दक्षिण अफ्रीका में ही स्पष्ट रूप से समझ में आई।”

लोग पुस्तकें पड़ते हैं पर जो पढ़ा गया है उस पर चिन्तन-मनन और वार्तालाप नहीं करते। उससे पढ़े हुये का प्रभाव जीवन में स्थायी नहीं हो पाता। यदि पुस्तकों के सार जीवन में उतारने की प्रक्रिया लोग सीख जायें तो सामार्न्यासी परिस्थितियों में ही हर व्यक्ति उत्कृष्टता क चरम बिन्दु तक पहुँच सकता है। पुस्तकें गौघृत और दुग्ध के समान पौष्टिक आहर है। जो मन, बुद्धि, आचार-विचार, तक व विवेक को परिपुष्ट करके आत्मोत्थान का उज्ज्वल पथ-प्रशस्त करती हैं।

गाँधी जी ने उक्त प्रसंग राजचन्द्र भाई को बड़े कौतूहल के साथ सुनाया। इस पर राजचन्द्र भाई ने कहा-’बापू इसमें आश्चर्य की क्या बात है? अब आप बताइये-अपनी बहिनें, बेटियाँ और छोटे-छोटे बच्चे क्या ऐसे कार्य कहीं भी नहीं कर सकते? बड़ी की आज्ञा पालन में तो उन्हें प्रसन्नता ही होती है। पत्नी के इस व्यवहार को असामान्य मानने का एक ही कारण हो सकता है-पत्नी से कोई आकांक्षा। साधारण लोग अपनी धर्म-पत्नी को कामवासना की दृष्टि से देखते है। उससे नारी के प्रति हीनता का भाव आता है। यही भाव हम उसके साथ प्रत्येक कार्य से आरोपित करते है। पत्नी उसे ही बुरा मानती है, यदि उसे हीरता या कामुकता की दृष्टि से न देखा जाय तो सचमुच प्रत्येक स्त्री ग्लैडस्टन की धर्म-पत्नी की तरह ही बहिन बेटियों की सी सेवा बिना लज्जा या संकोच के कर सकती है।”

गाँधी जी को यह बात बड़ी महत्वपूर्ण लगी। ग्लैडस्टन के जीवन चरित्र को पढ़ने से जिस मर्म को वह नहीं भेद पाये थे, वह वार्तालाप से खुल गया। तब तक कस्तूरबा और उनमें प्रायः झगड़ा हुआ करता था। उस दिन से बापू ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और इतिहास जानता है कि इसके बाद कस्तूरबा गाँधी ने गाँधी जी को सच्चे मित्र की भाँति खुलकर सहयोग प्रदान किया। उन्होंने उनके साथ जेल जाने तक में भी झिझक या संकोच नहीं किया। स्वाध्यायशीलता और पढ़े हुये को जीवन में पचाने के अभ्यास ने गाँधी जी को महान बना दिया। रस्किन की लिखी पुस्तक “अण्ड दि लास्ट” पुस्तक तो गाँधी जी के सारे जीवन की मार्गदर्शिका रही।

दस वर्ष की आयु में स्कूल जाना छुड़ा दिया गया, क्योंकि पिता गरीब था। घर का काम-काज करने के लिये उसकी आवश्यकता आ गई। वह अपने ही शहर सन जान(अर्जण्टाइना) में दुकानदारी करने लगा। 6 वर्ष दुकानदारी में ही बीते।

इन वर्षों में वह पढ़ने के लिए समय अवश्य निकाला करता था। समय ही क्यों वह प्रत्येक पढ़े हुए पर विचार किया करता और उन्नति के अनेक मनसूबे बनाया करता। इस बालक की जीवनी से पता चलता है कि उसकी क्रिया-शीलता बड़ी विलक्षण थी। पुस्तकें पढ़ने का उस पर तुरन्त प्रभाव होता और वह प्रभाव उसके जीवन में कोई न कोई परिवर्तन ही लाने वाला होता। व्यापार में ईमान-दारी, समाज-सेवा और राजनीतिक धड़ेबाजी से संघर्ष करने की हिम्मत भी उसे ऐसे ही मिली पर मुसीबत यह थी वह पढ़-लिखा नहीं था।

एक दिन वह फ्रैंकलिन को भी दस वर्ष की आयु में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी पर उसने अपने अध्यवसाय से से स्वतः ही दुनिया की पाँच भाषायें सीखीं और एक साथ वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं राजनीतिक के रूप में विश्व-विख्यात हुआ। यह पढ़कर उस युवक ने विचार किया क्या वह दूसरा फ्रैंकलिन नहीं बन सकता? बन सकता है, उसके मन ने कहा-अध्यवसाय से क्या सम्भव नहीं। वह उस दिन से पढ़ने लगा। अँगरेजी, चिली, फ्रैंच कई भाषायें सीखीं और राजनीति में भाग लेने लगा। इस पर उसे देश निकाला दे दिया गया। वह काफी दिन तक चिली में रहकर देश में राजनैतिक स्वार्थ बाजी के विरुद्ध संघर्ष करता रहा। उसने पत्रकार के रूप में अर्जेण्टाइना निवासियों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध संगठित कर दिया और एक दिन विद्रोह की ज्वाला फूट ही गई युवक स्वदेश लौटा और एक दिन वह अर्जेण्टाइना का उप राष्ट्रपति बना। इस महत्वपूर्ण पद पर पहुंचकर भी उसने जन-सेवा का मार्ग न छोड़ा। उसने अर्जेंटाइना को साक्षर बनाने का अभियान चलाया और उसे इतना तीव्र किया कि आज अर्जेण्टाइना दुनिया के देशों में सबसे अधिक शिक्षित देश है। अमेरिका तक ने उसकी सेवायें उपलब्ध की। एक पुस्तक की प्रेरणा ने इस युवक को ‘डोमिगो फास्टिनो सारमिन्टों के नाम से विश्व-विख्यात कर दिया।

सरमिन्टो युवकों से हमेशा कहा करता था- यह आवश्यक नहीं कि तुम दिन त पढ़ों थोड़ा पढ़ो अच्छा पढ़ो उसे अपने जीवन में आत्म-सात करने का अभ्यास भी डालों तो तुम्हारे सामान्य जीवन में भी सफलता के अनेक द्वार खुल सकते है।

वर्मा की क्लंग घाटी पर आजाद हिन्द सेना का मुकाबला अँगरेजी सेना की टुकड़ी से हो गया। आजाद हिन्द सेना के कुल तीन जवान और अँगरेजों की 169 सैनिकों की टुकड़ी। इस भीषण परिस्थिति में नेताजी बैठे स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक पढ़ रहे थे-पुस्तक के इस अंश ने- “जब संकटों के बादल सिर पर मँडरा रहे हों तब भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिये। धैर्यवान व्यक्ति भीषण परिस्थितियों में भी विजयी होते हैं।” नेताजी को भारी प्रकाश दिया।

घाटी से खबर आई क्या तीनों सैनिक पीछे हटा लिये जायें। नेताजी ने हृदय में छुपे विवेकानन्द के विचार फूट पड़े बोले-नहीं जब तक एक भी सैनिक जीवित रहता है चौकी खाली न की जाये। तीन सैनिक रात भर गोली चलाते रहे। प्रातःकाल तो वे मुठभेड़ की लड़ाई के लिये चढ़ दौड़े। जब चौकी पर पहुँचे तो देखा अँगरेजों के कुछ सिपाही तो मरे पड़े है शेष अपना सामान छोड़कर भाग गये हैं।

सुभाषचन्द्र बोस हैं नहीं पर स्वतन्त्रता का सबसे पहला आनन्द उन्होंने ही लिया। ऐसा भी क्यों कहें सच बात तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द के साहित्य ने उन्हें चिर-मुक्त बना दिया था। उनमें अगाध निर्भयता, धैर्य और साहस था यह सब गुण उन्हें विवेकानन्द साहित्य से विरासत में मिले थे। उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा उसके एक एक वाक्य को अपने जीवन का एक-एक चरण बना लिया उसी का प्रतिफल था कि वह जापान, सिंगापुर और जर्मनी जहाँ भी गये उसी प्रकार स्वागत हुआ जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द का अमेरिका और इंग्लैंड में। यह श्रेय स्वाध्याय को ही है जो सुभाष को जीवन शिला पर क्रिया शीलता बनकर खुद चुका था।

निराशा और घुटन की जिन्दगी से ऊबकर बालजक अपने एक मित्र के पास गया। तब वह एक वकील के पास क्लर्की करता था। मित्र से उसने कुछ धन की सहायता के लिए कहा तो मित्र ने इनकार कर दिया। निराशा और एक कदम आगे बढ़ गई।

अब मैं किसी को मित्र नहीं बनाऊंगा उसने प्रतिज्ञा की। आज की स्थिति में मित्र की भावना है कहाँ? मित्रतायें लोभ, लालच व किसी स्वार्थ के लिये होती हैं सहयोग और अच्छे रास्ते ले जाने के लिए नहीं युवक ने कहा अब पुस्तकें ही मेरी मित्र हैं। वही मेरे माता-पिता। उस दिन से वह पुस्तकों की शरण आ गया। दिन-दिन भर पड़ने में गुजारना और पढ़े हुए पर निरन्तर विचार करना ही उसका जीवन हो गया। मस्तिष्क में विचारों का समुद्र लहराने लगा।

फिर उसने एक समुद्र का मंथन किया। इच्छा तो थी एक वकील बनने की पर ज्ञान-संचय उसे अपनी ही ओर खींच ले गया। वाल्जक लेखक बन गया। पढ़े हुये विचारों को परिमार्जित रूप देने वाला वही वाल्जक प्रसिद्ध उपन्यासकार बना उसे 19 वी शताब्दी का सृष्टा कहा जाता हैं। अनेक प्रकार के ज्ञान के समन्वय से उसने विश्व को एक नई समन्वय पूर्ण विचारधारा दी।

सात वर्ष के एक बालक में पढ़ने की अभिरुचि जाग गई। जब उसके दोस्त मटरगश्ती कर रहे होते तब यह कोई कहानी, कविता, नाटक और धार्मिक पुस्तकें पढ़ रहा होता। हर्बर्ट स्पेन्सर, स्टुअर्ट मिल और टिंडल की पुस्तकों ने उसे बहुत प्रभावित किया फिर उसने बेकार किस्म के उपन्यास, कहानियाँ, पड़ना छोड़ दिया और निर्माणात्मक साहित्य ढूंढ़-ढूंढ़कर पढ़ने लगा। वह एक स्टेट एजेन्ट के यहाँ नौकरी कर रहा था तब भी अच्छी पुस्तकें पढ़ने का चाव उसने न छोड़ इससे उसके जीवन में बुराइयों का प्रवेश नहीं हो सका। पश्चिम में जन्म लेकर माँसाहार का कट्टर विरोधी यही बालक एक दिन जार्ज बर्नार्डशा के नाम से विख्यात हुआ। उसने जब लेखनी उठाई तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नाटककारों की श्रेणी में जा विराजा।

“एक फटी सी पुस्तक मेरे हाथ लगी। आरम्भ के कुछ पृष्ठ फटे थे। पर प्रत्येक पुस्तक से कोई न कोई अच्छी बात सीखने का मुझे व्यसन हो गया था। इस पुस्तक को पढ़ने से मुझे कुछ बहुत ही मासिक पंक्तियां हाथ लगी उन्हें मैंने अपनी डायरी में नोट कर लिया। यह पंक्तियां एक कहानी की थी और इस तरह थी- “मैं किसान हूँ मुझे किसान होकर जीने दो और वैसे ही मरने भी दो। मेरा पिता किसान का अतः उसके पुत्र को भी वैसा ही होने दो।” मुझे दस वर्ष बाद पता चला कि यह शब्द जार्ज ए. ग्रीन के थे।”

“इन पंक्तियों में परिश्रम शीलता के भव थे। डायरी में नोट इन शब्दों ने मुझे निरन्तर परिश्रम करने की प्रेरणा दी। मैंने बहुत-सी पुस्तकें पढ़ी। उन प्रत्येक पुस्तक से मैंने अनीति के विरुद्ध संघर्ष, मानव-जाति से प्रेम के पाठ पढ़े और सीखे। यों कहूँ कि पुस्तकों का साराँश ही उत्तर कर मेरे जीवन में समा गया है जो कुछ भी सफलता दिखाई दे रही है वह उनका ही आशीर्वाद है।”

आप समझ गये होंगे यह शब्द मैक्सिम गोर्की के हैं। मानवता की सेवा के लिये उन्हें बहुत समय तक याद किया जाता रहेगा।

संसार की अधिकाँश प्रतिभायें पुस्तकों से निकली हैं। पढ़ते हम लोग भी है, पर पढ़कर अपने जीवन को महान बनाने का जो अवसर जवाहरलाल नेहरू मार्क्स स्टालिन, माईकेल फैराडे, डार्विन, लूथर बरबैंक, गैलियस आदि ने प्राप्त या उस रहस्य को हम कहाँ जान पाये? हम भी इनकी तरह पढ़े हुये आदर्शों को अपने जीवन में उतार सके होते तो हमारी श्रेणी भी गाँधी, गोर्की जैसे महान पुस्तक प्रसूत पुत्रों में रही होती।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118