अपनी दिग्विजय का शंखनाद करता हुआ जब सिकन्दर भारत को विजित करता हुआ लौट रहा था, तो मार्ग में उसने एक महात्मा के विषय में सुना। उसकी इच्छा उन महात्मा के पास जाने की हुई,| सिकन्दर महान् उन महात्मा के पास गया। महात्मा धूम में बैठे थे, सिकन्दर ने उन्हें प्रणाम किया ; फिर भी वे बोले कुछ नहीं | इस पर अभिमान भरे भाव में सिकन्दर ने कहा- “महाराज मैं सिकन्दर हूँ |आपकी सेवा करने आया हूँ; आप मुझे आदेश दें ,मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ”। महात्मा ने अनमने मन से कहा- “मुझे दिग्विजयी सिकन्दर से कुछ लेना-देना नहीं, तुम उस प्रभु की दी हुई धूप का मुझे आनन्द लेने दो व एक तरफ हट जाओ।”
भौतिक रूप से भले ही सिकन्दर ने विजय या आनन्द की अनुभूति कर ली हो पर वह इस ब्रह्मानन्द के सामने अपने को तुच्छ ही समझने लगा।
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