चटोरापन स्वास्थ्य की बर्बादी का सबसे बड़ा कारण

June 1978

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                                                      चटोरापन स्वास्थ्य की बर्बादी का सबसे बड़ा कारण

      अनावश्यक और हानिकारक होते हुए भी यह ठूँस - ठाँस आखिर होती क्यों है ? इसका रहस्य जानने का प्रयत्न किया जाय, तो छिद्र सहज ही पकड़ में आ जाता है। जिह्वा को चटोरेपन की नशेबाजी का चस्का लग गया है और वह उस नशेबाज की तरह पैग पर पैग पीते चली जाती है , जो बेहोशी आने या जेब खाली होने की मजबूरी आने से पहले अपने पियक्कड़पन से हाथ रोकता ही नहीं। चटोरापन एक प्रकार का नशा है, जिसे अन्य मादक पदार्थों की तरह स्वभाव का अंग बना लिया जाता है और वह अपनी ललक बुझाने के लिए बार-बार मचलता रहता है। नमक, शकर, मसाले इसी स्तर के पदार्थ हैं जिनकी अलग से लेने की तनिक भी उपयोगिता नहीं। इनमें से जिनकी जितनी आवश्यकता है वे सामान्य खाद्य-पदार्थों में घुले रहने के कारण सहज ही मिलते रहते हैं। उस घुली स्थिति में अन्य पदार्थों के सहचरत्व से वे पच भी सहज ही जाते हैं किन्तु अलग से इनकी अतिरिक्त मात्रा लेने में वे भार बनते और हानि पहुँचाते हैं। उपयोगी नमक, क्षार, विटामिन हर खाद्य-पदार्थ में मौजूद हैं। वे उस स्तर के हैं , जो शरीर में घुल सकें और उसकी आवश्यकताएंँ पूर्ण कर सकें। भोजन के साथ वे पेट में पहुँचते रहते हैं और देह की क्षारीय आवश्यकताओं की भली प्रकार पूर्ति कर देते हैं ;पर वे स्वाद में वैसे खारी नहीं,  जैसा कि मसाले में काम आने वाला नमक होता है। नमकों के अनेक स्वाद हैं।  बायोकैमिक बारह दवाओं को बारह प्रकार के नमक ही समझना चाहिए। उनमें से एक भी खारी नहीं। सभी कडुए, कसैले आदि हैं। मैकसैल्फ समुद्री नमक है, पर स्वाद में कड़ुवा, कसैला-सा है। फ्रुट साल्ट क्रुशनसाल्ट आदि गुणकारी नमक बाजार में बिकते हैं, पर उनमें से कोई भी खारी नहीं होता। विटामिनों की भी कई जातियाँ हैं वे भी नमक हैं। शरीर के लिए भी नमक की जरूरत है वे खाद्य-पदार्थों में घुले रहते हैं और सहज ही शरीर में प्रवेश करते रहते हैं। पर हमें उन सबसे क्या वास्ता- हमें तो स्वाद के लिए वह खारी नमक चाहिए जो विशेषतया स्वाद के लिए प्रयुक्त होता है। गुणों की दृष्टि से उसे दोषों की खदान ही कह सकते हैं। रक्तचाप, शोध, गुर्दे के रोग, आदि कितनी ही बीमारियों में तो उसे बलपूर्वक बन्द करना पड़ता है अन्यथा रोगी का प्राण संकट में फंस जाय। यह स्वादिष्ट नमक शरीर में घुलता नहीं ,वरन् पेशाब पसीना, कफ आदि के सहारे प्रकृति द्वारा लात मार-मारकर बाहर निकाला जाता रहता है। इन द्रवमलों में नमक की मात्रा अत्यधिक पाये जाने का प्रधान कारण अनावश्यक मात्रा में खारापन को खाया जाना है। यदि इसका निष्कासन ठीक प्रकार न हो सके तो समझना चाहिए कि यह नमकीन की शौकीनों अन्य नशों की तरह ही जीवन संकट उत्पन्न करेगी। एक प्रकार से तो करती भी है। जायके के प्रलोभन से हम अनावश्यक मात्रा में उसी के कारण पेट में ठूँसा-ठूसी मचाते हैं। यदि दाल, शाक, चटनी आदि में नमक डालना बन्द कर दिया जाय तो फिर ठूँस-ठाँस के समय विवेक जीवित रखा जा सकता है। और सोचा जा सकता है कि भूख पूरी हो जाने पर फिर क्यों भरमार मचाई जाय?

      नमक की तरह ही मिर्च मसाले हैं, जिनके अपने-अपने स्वाद- जायके हैं। वे एक दूसरे के साथ मिलकर अपनी-अपनी रंगीनियाँ प्रकट करते हैं। गर्म मसाले पड़ी दाल, तरकारी कितनी मजेदार लगती है? किन्तु इसका परिणाम तो नाम से जाना जा सकता है। गर्म मसाला छूने में तो ठंडा होता है ; पर उसकी प्रतिक्रिया जलते अंगारे को निगल जाने से किसी प्रकार कम भयंकर नहीं होती है। फोड़े, फुन्सियों पर लौंग, काली -मिर्च, लाल-मिर्च आदि पीसकर लेप लगाते हैं ,तो उनसे वहाँ के माँस, चमड़ी को जलते हुए देखा जा सकता है। इस श्रेणी की वस्तुएँ आमाशय एवं आँतों को भी इसी तरह जलाती हैं। उनके भीतर दीवार बहुत ही कोमल होती है। उसमें छोटी-छोटी रस ग्रन्थियाँ रहती हैं जो पाचक रस निकाल कर आहार को रस - रक्त में बदलने का काम करती है। इन रसों में कमी पड़ जाने से पाचन क्रिया गड़बड़ाती है। मसालों से आमाशय की भीतरी परत जलती है और वह कोमलता कठोरता में बदल जाती है। रस बहाने वाली ग्रन्थियाँ कठोर गाँठों की शकल बना लेती हैं और उनसे रसों का स्राव बहुत थोड़ी मात्रा में ही हो पाता है। ऐसी दशा में अपच का सिलसिला चल पड़ना स्वाभाविक है।

    स्वाद की वस्तुओं में नमक एवं मसालों के बाद तीसरी वस्तु आती है- शकर। यह भी वस्तुओं के प्राकृतिक स्वाद को नष्ट करके कृत्रिम उत्तेजना भरने की दृष्टि से अनावश्यक मात्रा में मिलाई और खाई जाती रहती है। माना कि शकर की आवश्यकता शरीर को रहती है, पर यह भी स्पष्ट है कि प्रायः सभी अन्नों में उसकी पर्याप्त मात्रा भरी रहती है। मक्का जैसे अन्नों में तो उसकी मात्रा वैसे ही अधिक रहती है। फिर गाजर, टमाटर, चुकन्दर जैसे शाकों और लगभग सभी प्रकार के फलों और मेवों में उसकी भरमार रहती है। पाचनतन्त्र की एक विलक्षणता यह है कि मुँह की लार का सम्मिश्रण अन्न के साथ होने से लेकर आमाशय में पहुँचने तक की अनेक रासायनिक क्रियाओं द्वारा मुँह का प्रत्येक ग्रास शकरमय बन जाता है। यह शकर उत्पादन की विचित्र पद्धति ऐसी है , जो शरीर को शकर की रत्ती भर की कमी नहीं पड़ने देती। भले ही शकर की बाहरी मात्रा का एक डेली भर भी उपयोग न किया जाय। हम हैं जो स्वाद के प्रलोभन में शकर की धका -पेल करते रहते हैं। दूध का, दही का अपना निजी स्वाद है। उसे नष्ट करके शकर मिलाई जाती है। यह तो ऐसा ही हुआ जैसा कि रंग-बिरंगे फूलों का आनन्द लेने की अपेक्षा उन्हें एक ही नीले रंग के कढ़ाव में डालकर नीला बना दिया जाय। पदार्थों के विभिन्न स्वाद और गुण उनके असली रूप में ही सुरक्षित रहते हैं। यदि उनमें नमक, शकर आदि की भरमार कर दी जाय,  तो स्वाद ही नहीं, गुण भी समाप्त हो जाते हैं। सबसे बड़ी हानि यह है कि जायके के प्रलोभन में भोजन की अधिक मात्रा पेट में चली जाती है और उसका दुष्परिणाम आरोग्य गंवा बैठने के रूप में भुगतना पड़ता है।

  स्वाद- सम्बन्धी बुरी आदतों में एक और भी गिनी जा सकती है, वह है - भुनी और तली वस्तुओं का सोंधापन। पकवान और मिष्ठान्न इसी स्वादिष्टता के निमित्त बनाये जाते हैं। भूनने से चना, चवैना, लाई, परमल, सत्तू आदि के रूप में अनाज सोंधे बन जाते हैं। घी, तेल में तलने से भी पूड़ी, परांठेे, हलुआ, कचौड़ी जैसे पकवान बनते हैं। मिठाइयों में शकर के साथ-साथ मावा चिकनाई आदि का बाहुल्य रहता है। तरकारियाँ भी तलने-भूनने से जायकेदार बन जाती हैं। यह सोंधापन अच्छा लगता है ; और त्यौहारों, दावतों में उन्हें छककर खाया भी जाता है। सभी जानते हैं कि दावतों में आहार की मात्रा सामान्य की अपेक्षा प्रायः ड्यौढ़ी उदरस्थ कर ली जाती है। जली, भुनी तली होने पर हर वस्तु दुष्पाच्य बन जाती है। गरिष्ठ, दाहक, उत्तेजक -स्वाद -साधनों के सम्मिश्रण से आहार स्वभावतः कुपाच्य भी बनेगा और अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ होगा। इस प्रकार यह बाह्य प्रलोभन स्वास्थ्य की दृष्टि से दुहरा संकट उत्पन्न करेगा।

        स्वादिष्टता की ललक आम व्यवहार में प्रयुक्त होती रहने के कारण उसमें कोई बड़ा दोष प्रतीत नहीं होता ; किन्तु बारीकी से देखने पर अपने आपे को भ्रमग्रस्त बनाकर आत्म-हत्या के मार्ग पर धकेल देने जैसे छद्म विडम्बना तो इसे कहा ही जा सकता है। नमक, मसाला और शकर के तीन स्वादों का दास बनना पड़ा और खाद्य-पदार्थों के विभिन्न स्वादों से वंचित रहना पड़ा। स्वादेन्द्रिय की उचित-अनुचित परखने वाली विवेकशीलता इसी लोलुपता के कारण नष्ट हुई। प्रत्येक प्राणी की जिह्वा उसके लिए उपयुक्त-अनुपयुक्त आहार का तत्काल निर्णय कर देती है। अपने शरीर के लिए क्या लाभदायक है ; क्या हानिकारक इसकी परख करना जिह्वा के डॉक्टर का काम है ; पर जब लोलुपता की मदिरा पिलाकर उसका परख कौशल नष्टकर दिया गया हो ,तो फिर कृत्रिम स्वाद की आड़ में कुछ भी खिलाया जा सकता है। पाकविद्या के सहारे अभक्ष्य पदार्थों को भक्ष्य बनाने की चतुरता ढूँढ़ ली गई और जिह्वा को अनुपयुक्तता की घोषणा कर सकने में असमर्थ बना दिया गया। इतने पर भी पदार्थ का मूल गुण तो बना ही रहा ; उससे होने वाली हानि का बचाव कहाँ हो सका?

          पेट की बनावट ऐसी है कि उसमें बारीक पिसी हुई वस्तुएँ ही लेही की तरह पक सकती हैं। दाँत इसलिए बने हैं कि वे खाद्य-पदार्थों को न केवल बारीक पीस ही दें, वरन् मुख के स्रावों को अच्छी तरह मिलाकर उसे इतना पतला कर दें कि ग्रास को गले से नीचे उतरने में कोई कठिनाई न हो। मुँह आधा पेट है ,उसमें ठीक तरह पिसने और पाचक - स्रावों का सम्मिश्रण होने से पेट का आधा काम पूरा हो चुका होता है। इस लुगदी से रस- रक्त बनाना आमाशय और आँतों का काम रह जाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए बुद्धिमानों ने यह सिद्धान्त बनाया है कि-”पानी खाया जाना चाहिए और रोटी पीयी जानी चाहिए।” इस उलटा मासी का तात्पर्य यह है कि पानी को घूँट-घूँट कर मुँह में फिरा- घुमाकर थोड़ा-थोड़ा करके इस प्रकार पीना चाहिए, मानो उसे खाया जा रहा हो ; इससे पानी के साथ मुँह के पाचक- रसों का सम्मिश्रण हो जाने से वह अधिक गुणकारी बन जायगा और उसका लाभ एक अच्छे- खासे खाद्य-पदार्थ के रूप में मिल जायगा। रोटी पीनी चाहिए; इसका तात्पर्य यह है कि उसे इतना चबाना चाहिए कि गले की कोमल नली को उसे नीचे उतारते समय तनिक भी कठिनाई न हो। आमाशय में दाँत नहीं है कि वे अधकुचले आहार को वहाँ पीसे और तब उसे लेही की तरह पकने के लिए तैयार करे। आमाशय की बनावट इस प्रकार की है उसमें बारीक पिसी हुई लुगदी पहुँचे तो ठीक प्रकार उसका मंथन -पाचन आरम्भ हो जाय। वह तन्त्र विशुद्ध रूप से पकाने की दृष्टि से ही बना है। पीसने वाला कोई कल-पुर्जा उसमें नहीं है। मुँह ही है; पीसने और पाचक स्राव मिलाकर लुगदी बनाकर आमाशय का आधा काम करता है|मुहँ को आधा आमाशय ही   कहा जाता है। दोनों का श्रम, सहयोग मिलकर पाचन -पद्धति का समग्र प्रयोजन पूरा करते हैं। वस्तुतः मुँह से आरम्भ होकर मलद्वार पर पहुँचने वाली एक ही नली है ,जो टेड़ी-मेढ़ी, मोटी-पतली बनती हुई. आदि से अन्त तक चली गई है। विभिन्न स्थानों पर उसी नली में पाचन के विभिन्न कार्य सम्पन्न होते रहते हैं। मुँह, जीभ, आमाशय, आँतें जैसे प्रमुख अवयव मिलकर अपने-अपने ढंग के अपने-अपने काम करते रहते हैं और पाचन का एक नियत कार्य मिल-जुलकर पूरा करते हैं। यदि प्रक्रिया आदि से ही गलत हो जाय, चबाने के काम में ही अधूरापन छोड़ दिया जाय ,तो आगे की मशीन अपना काम ठीक तरह कैसे पूरा कर सकेगी  ?

            खाने का सही तरीका यह था कि यदि प्रवाही - पदार्थ उदरस्थ किये जाने हैं , तो उन्हें घूँट-घूँटकर चम्मच से थोड़ा-थोड़ा लेते हुए पेट में पहुँचाया जाता। रोटी जैसी ठोस चीज खायी जानी है , तो उन्हें दाँतों से पीसकर गले से नीचे उतरने जितनी बारीक लुगदी बनाया जाता। जल्दबाजी में अधकुचले ग्रास गले से नीचे उतारने में हमारा आलस्य ही आड़े आता है। दाँतों को श्रम क्यों करना पड़े ? खाने में देर क्यों लगे ? जैसे उतावली भरे आग्रह मन में रहते हैं ; अस्तु अधकुचले ग्रासों को आगे धकेलने की आतुरता को कार्यान्वित करने के लिए रोटी के साथ दाल जैसी पतली चीजें मिलाकर उसे गीला कर दिया जाता है और चबाने के श्रम से बचने की चतुरता बदल ली जाती है। जबकि होना यह चाहिए था कि रोटी को अकेली चबाकर पीसा और प्रवाही बनाया जाता। भले ही इसमें थोड़ी देर लग जाती। दाल आदि पतली चीजों को अलग से खाना सुविधाजनक रहता। उन्हें भी थोड़ी देर मुँह के स्रावों का सम्मिश्रण कराने के बाद आगे धकेला जाता। कम पीसे और कम मुख स्राव मिले ग्रास, प्रवाही पदार्थों की सहायता से गले से नीचे उतर तो जाते| पर पचने में भारी असुविधा उत्पन्न करते हैं। चबाने में आलस्य और उतावली बरतकर हम जो समय बचाते हैं , उसकी तुलना में कई गुना अधिक समय पचने में लग जाता है। जो लाभ सोचा गया था ,वह हानि बनकर सामने आता है। भले प्रकार पीसे भोजन को निचोड़कर अग्नि जितना पोषक - रस प्राप्त कर सकती थी , उसकी तुलना में बहुत थोड़ा अंश ही उनके पल्ले पड़ता है। अधिक श्रम करना पड़ा और लाभ कम मिला। यह घाटा उस मूर्खता का परिणाम है ; जो ग्रास को जैसे-तैसे, जल्दी-पल्दी गले से नीचे उतारने के रूप में बरती जाती है। पेट का खराब होने और उसके फलस्वरूप पूरे शरीर के दुर्बल एवं रुग्ण बनते जाने की विपत्ति में भोजन सम्बन्धी बुरी आदतों की ही सबसे बड़ी भूमिका है। उन्हीं में से एक ,मुख में बरती गई उतावली छोटी दीखते हुए वस्तुतः बहुत बड़ी भूल है। यदि इससे बचा जा सकता ,तो आहार के लिए किये गये खर्च को, पकाने वाले के श्रम को तथा पूरे शरीर- तन्त्र पर पड़ने वाले भार को बहुत कुछ बचाया जा सकता था।

        भोजन सम्बन्धी बुरी आदतों का पर्यवेक्षण  करने पर एक नहीं ,अनेक की चाण्डाल चौकड़ी गुंथकर बैठी हुई दिखाई पड़ती है। स्वाद के प्रलोभन में जल्दी-जल्दी कुछ न कुछ खाते रहने की आदत भी ऐसी ही है | खिचड़ी हांडी को पकने देने के बीच में यदि उसमें नये-नये दाल-चावल डालते रहा जाय , तो उसका क्या नतीजा होगा? यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पहले पड़े हुए बुरी तरह गल धुल रहे होंगे और पीछे वाले तब तक कच्चे ही बने रहेंगे। यदि यही क्रम जारी रहे ,तो उस हांडी में हमेशा कुछ भाग जला हुआ-कुछ पका हुआ-कुछ अधपका बना रहेगा और वही कभी खाने योग्य न बन सकेगी। तरीका यही सही है कि एक बार चूल्हे पर चढ़ाई हुई हांडी को शांतिपूर्वक पकने दिया जाय और जब नीचे उतर आवे ,तब उसमें दूसरी किस्त भरी और पकाई जाय। रसोई घर में कोई ऐसी भूल नहीं करेगा कि दाल में कच्ची-पक्की मिलाते चलने की उतावली करे और उपहासास्पद बने ; पर हम यही करते रहते हैं। सवेरे नाश्ता, दोपहर भोजन ,तीसरे पहर फिर जलपान, रात को भोजन तो आम बात है ही। इसके बीच-बीच थोड़ी-थोड़ी देर बाद जायका चखने को मन करता रहता है और खाने के लिए कुछ न कुछ ढूँढ़ा, समेटा जाता रहता है। यह आदत छोटी लगते हुए भी पाचनतन्त्र की क्रिया पद्धति को लड़खड़ा देने में किसी भयंकर आक्रमणकारी का ही काम करती है।

    नाश्ते की छूट कठोर श्रम करने के लिए सवेरे से ही खेत या कारखाने में जाने वालों को मिल सकती है। हलका काम करने वालों के लिए तो सवेरे का नाश्ता हर दृष्टि से हानिकारक है। रात्रि में सोते रहने के कारण पाचनतन्त्र का काम शिथिल हो जाता है और प्रातः उठने तक पेट हलका नहीं हो पाता, ऐसी दशा में दोपहर के भोजन तक उसे इतना अवसर देना चाहिए कि रात के बचे हुए काम को पूरी तरह निपटा लें। नाश्ता इस कार्य में भारी रुकावट पैदा करता है।

सवेरे नींबू पानी का एक गिलास पिया जा सकता है। खाली पानी से भी काम चल सकता है। बहुत हुआ तो दूध, छाछ, उबले शाकों का रसा, फलों का रस जैसी कोई हलकी पतली चीज ली जा सकती है।

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