एकांगी साधना-अधूरी साधना

June 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विपश्च जितने विद्या-विभूषण और मेधावी थे, साधना के संस्कार भी उनमें उतने ही सुदृढ़ थे। आत्म-साक्षात्कार की जिज्ञासाऐं किसी के भी अन्तःकरण में जाग सकती हैं, किन्तु ध्येय पूर्ति के लिये मन की भौतिक लालसाओं से निरन्तर लड़ते हुये उन पर विजय प्राप्त करने का साहस किसी-किसी में होता है। विपश्च उसी कोटि की आत्मा थे। आचार्य विद्या बल्लभ को इस तरह का मनस्वी शिष्य प्राप्त करने पर हार्दिक प्रसन्नता थी,सो  उनने अपने शिष्य को साधना के पथ पर आगे बढ़ाने का कोई भी उपक्रम रिक्त नहीं छोड़ा।

अन्नमय कोश की प्रारम्भिक साधना को अस्वाद व्रत से प्रारम्भकर .एक मात्र उबले हुये आँवले ग्रहण करने तक की लम्बी अवधि में ,   उनने एक भी दिन मन को पश्चात्ताप नहीं करने दिया।

अन्नमय कोश की सिद्धि के क्षण समीप आये | आचार्य प्रवर ने कहा -तात ! इस साधना का दूसरा चरण यह है कि तुम अपनी इस अर्जित साधना का लाभ समाज को भी दो। लोगों को जाकर यह बताओ कि समय न केवल आरोग्य का आधार है अपितु उससे शरीर में प्रसुप्त शक्ति कोशों का जागरण होता है। यह शक्ति अदृश्य जगत से सम्बन्ध जोड़ती और हमारी आध्यात्मिक आस्थाओं का अभिसिंचन करती है।"

" सो तो ठीक है, गुरुदेव! किन्तु संसार का हर प्राणी अपने आत्म-कल्याण के लिये आप उत्तरदायी है, हम किसी और की चिन्ता क्यों करें!शास्त्र भी तो यही कहते हैं - अपनी आत्मा का उद्धार व्यक्ति को स्वयं ही करना चाहिये।” विपश्च ने विनीत वाणी में असहमति दर्शायी।

आचार्य विद्यावल्लभ को शिष्य के प्रातवाद पर दुःख हुआ। कहा उनने कुछ नहीं, निर्निमेष नीले अम्बर के गहन अन्तराल में देर तक आंखें गड़ाये रहे। मानों वहाँ ,कहीं विपश्च का भविष्य लिखा हुआ हो: और वे उसे पढ़ने का प्रयत्न कर रहे हों।

विपश्च ने प्राणमय कोश की साधना की | प्राणों को वशवर्ती कर लेने से उनकी अन्तःचेतना विराट् में विचरण करने लगी| उनके आने पर प्रदीप्त प्राण ऐसा झलझलाता था, मानों कोई देवशक्ति धरती पर उतर आई हो। मनोमय कोश की सिद्धि ने विपश्च को ऐसी मानसिक प्रतिभा प्रदान की, जिससे वे खूखार से खूखार जन्तुओं को भी सम्मोहित कर सकते और मृतक में भी नया जीवन फूक सकते थे। आचार्य प्रवर ने पुनः विपश्च से आग्रह किया उन्हें अपने ज्ञान ,अपने तप अपनी साधना का ,लाभ देने के लिये जनसंकुल समुदाय में भी जाना चाहिये ! किन्तु विपश्च ने हर बार असहमति ही दर्शायी।

समय के साथ विपश्च उच्चकोटि के सिद्ध हुये। साधना का विराम आने पर अब क्या किया जाये? यह प्रश्न उनके सम्मुख था किन्तु अब आर्यश्रेष्ठ कोई आदेश देने की अपेक्षा मौन धारण कर चुके थे! निर्णय उनने विपश्च पर ही छोड़ा?

विपश्च ने अब सेवा के क्षेत्र में पदार्पण किया | वहाँ इन्द्रियों के आकर्षण, प्राणों का मोह, मन की तृष्णा, वासना और यश की कामनायें ,उनके स्वागत में पुष्पमालायें हाथ में थामें खड़ी थीं। तैरना जल के बीच सीखा जा सकता है, थल में कोरा सिद्धान्त सीखा जा सकता है। निर्वाध क्षेत्र, उन्मुक्त सुविधायें ,देखते ही, दमित वासनायें एकाएक विद्रोह कर उठीं, उन्हें सम्भालना विपश्च के लिए कठिन पड़ गया उनकी सिद्धियाँ भोगों के बन्दीगृह में जा पड़ीं। वर्षों की तप - साधना अल्पकाल में ही बूढ़े वटवृक्ष की तरह ढह गई और उनकी सारी तेजस्विता का यों अन्त हो गया, मानों वे जन्म से ही निस्तेज और अशक्त हों।जब पास कुछ न रहा, तब पश्चाताप आ खड़ा हुआ, वे भागे और आचार्य प्रवर के चरणों पर सिर पटक कर रोने लगे। उठो विपश्च! आर्य श्रेष्ठ ने समझाया- यदि प्रारम्भ से ही तुम जनसम्पर्क बनाये रखते, तो आज यह स्थिति न आती! सेवा-साधना का अर्द्धांग है !यदि उसे विस्मृत किया जाये तो साधना निष्फल हो जाती है, पर यदि वह साथ रहे तो साधना के प्रतिफल चिरस्थायी होते हैं। विपश्च ने भूल अनुभव की, पुनः साधना -पथ अपनाया ,पर अब उनने मार्ग बदल लिया था| अब उनकी साधना के साथ सेवा भी जुड़ गई थी।

                                                                                          ----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118