मनुष्य जीवन भी एक प्रवास ही तो है।

June 1978

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                                                           मनुष्य जीवन भी एक प्रवास ही तो है

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      जब पृथ्वी में यातायात के साधनों का उतना अधिक विकास नहीं हुआ था ,तब भी यात्राएँ मानव-स्वभाव का एक आवश्यक अंग थीं। न केवल आजीविका, रोजगार, अध्ययन; अपितु प्राकृतिक सुषमा के दर्शन ,सत्संग और ज्ञान प्राप्ति के लिए भी एकाकी तथा सामूहिक यात्राएँ आयोजित हुआ करती थीं। संसाधनों के विकास के साथ-साथ इस प्रवृत्ति का भी विकास हुआ है। यात्राओं की सफलता के लिए प्रचुर भौगोलिक ज्ञान ,स्थान विशेष के रीति-रिवाज, रहन-सहन, योग्य विश्रामस्थलों की जानकारियाँ पूर्व में ही उपलब्ध हो जाने के कारण ये यात्रायें अब सब तरह से आरामदेह हो गई हैं।

     दूसरी ओर पशु−पक्षी हैं उनमें भी प्रवास का नैसर्गिक गुण आदिकाल से चला आया है। उनकी यात्रायें पहले की अपेक्षा अब अधिक संकटपूर्ण हो गई हैं। उन्हें कोई भौगोलिक ज्ञान भी नहीं मिला होता किन्तु यह प्रकृति का एक चमत्कार ही है कि प्रतिवर्ष हजारों पक्षी-जंगली जीव न केवल पड़ोसी राज्यों की अपितु सुदूर देशों की भी यात्रायें करते हैं। मनुष्यों में भाषावाद, जातिवाद रहन-सहन की भिन्नता के कारण उनके हृदय परस्पर मिल नहीं पाते, पर इन जीवों में ऐसा कोई अंतर्द्वंद्व नहीं। विशेष अवसरों पर विशेष स्थानों में अनेक देशों से आये भिन्न जाति के पक्षी और जीव−जंतु परस्पर सहिष्णुता आदर भावना और भाईचारे की स्वस्थ परम्परा से जीवन निर्वाह कर नियत समय पर अपनी मातृभूमि लौट जाते हैं। मनुष्य जीवन भी एक सुनिश्चित और विराट प्रवास का लघु संस्करण है। जीव-जन्तुओं के माध्यम से हम पता लगा सकें कि इस नैसर्गिक क्षमता का कारण क्या है तो एक अनोखी जीवन दृष्टि का विकास नितान्त सम्भव है।

   प्रवासी पक्षियों में व्हाइट स्टार्क,गोल्डन प्लावर,आर्कटिक टर्न , सेन्ड पाइपर , सारस ,बोबालिक मुख्य हैं |वह अधिकांश समुद्र के ऊपर उड़ान भरते हैं;   इस कारण इन्हें उबाऊ दूरी लगातर उड़कर पार करनी पड़ती है | गोल्डन प्लावर टून्डा के पम्पास तक की 12000 किलोमीटर,श्वेत स्टार्क , को समूचा स्टार्क ,जिब्राल्टर , जल डमरुमध्य आर्कटिक  को तो समुची धरती की परिक्रमा करनी पड़ जाती हैं|जब ये उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की लगभग 25 हजार किलोमीटर दुरी तयकर एक स्थान से दूसरे स्थान जाते है | जहाजों की तरह वह भी नियमित रुप से समुद्रों में पाये जाने वाले टापुओं में कुछ समय विश्राम कर  अपनी आगे की यात्रा की तैयारी करते हैं |

योरोपीय देशों के सारस शरदऋतु में अफ्रीका आ जाते हैं और बसन्त ऋतु में पुनः लौट जाते हैं। एक बार पूर्ण प्रशा (जर्मनी) से अनभिज्ञ सारसों के कुछ बच्चे ऐसेन नामक स्थान पर ले जाकर छोड़ दिये गये। उस समय तक वहाँ के अन्य प्रवासी सारस जा चुके थे अत्यधिक चक्करदार रास्ता होने पर भी वे किसी अन्तःप्रेरणा से एक निश्चित दिशा से प्रशा जा पहुँचे। इसी तरह कुछ कौवों की उत्तरी जर्मनी और वाल्टिक के पार उत्तरपूर्व की दिशा में ले जाकर छोड़ा गया, पर वे 500 मील की वापसी यात्रा समानान्तर मार्ग से सम्पन्न कर यथा पूर्व स्थान पर लौट आये। आश्चर्य तो तब होता है। जब इनके अंडे भी यदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचा दिये जायें तो उनसे निकलने वाले बच्चे भी अपने जन्म स्थान लौट आये। ऐसा पैत्रिक गुण-सूत्रों की प्रेरणा से होता है इससे संस्कारों की महत्ता प्रतिपादित होती है।

       

   इग्लैंड से अफ्रीका की दूरी 6000 मील है , पर वहाँ की अजीवन कष्ट उठाकर  भी यह देशान्तर करती है| अमेरिका से दक्षिणी अमेरिका जाने वाली स्वर्ण टिटहरी को 2000 मील यात्रा करनी पडती है | पेन्गुइन उड़ नहीं सकते ,पर वे समुद्र में तैरकर ही अंटार्कटिका से दक्षिणी अमेरिका की यात्रा करती हैं | वे जिस रास्ते जाती हैं , उसी से लौट आती है | विशेष ध्वनि से गाते हुए चलने वाली इनकी टोलियाँ दर्शकों का मन उसी तरह मोहती हैं ,जैसे मेले-ठेले जाने वाली स्त्रियों की गीत गाती टोलियों|

अपने जन्म स्थान की कुत्तों को भी विलक्षण पहचान होती है। वे गन्ध के सहारे सैकड़ों मील दूर से अपने घर लौट आते हैं। न्यूयार्क (अमेरिका) का कुत्ता एल्वनी विश्वभ्रमण की ख्याति प्राप्त कर चुका है। इसने अकेले रेल और समुद्री जहाजों से जापान, चीन, योरोप देशों की यात्रा की और अन्ततः सकुशल न्यूयार्क वापस लौट आया।

    मनुष्य कहाँ से आया ; उसका यथार्थ क्या है; यह न तो समझने का प्रयास करता है, न लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्न ; पर यह पक्षी हैं , जो दूर-दूर तक जाकर भी समय पर प्रयत्नपूर्वक खुशी-खुशी लौट आते हैं। शरद ऋतु में उत्तरी - पश्चिमी ध्रुव प्रदेशों के पक्षी भारत, दक्षिणी अफ्रीका, श्रीलंका तक फैल जाते हैं, पर ग्रीष्म ऋतु आते ही अपनी जन्मभूमि लौट जाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जीव वैज्ञानिकों ने जर्मनी के व्रिमेन नगर में एक प्रयोग किया| उन्होंने सात अबावीलें पकड़ीं और उन्हें लाल रंग से रंग दिया। फिर उन्हें विमान में बैठा कर लन्दन लाकर हवाई अड्डे के पास छोड़ दिया गया। पीछे पाया गया कि उनमें से पाँच अबावीलें सुरक्षित अपने पूर्ववर्ती घोंसलों में पहुँच गईं।

    हममें से अनेक मनुष्यों को परमात्मा कुछ विशेष बौद्धिक और आत्मिक गुणों से सम्पन्नकर पृथ्वी पर भेजता है; और यह आशा करता है कि वे सृष्टि को सुन्दर बनाने की उसकी कल्पना को साकार बनायेंगे, पर वह ऐसा करना तो दूर, अपने बुद्धिकौशल को अपने ही स्वार्थ-साधनों में उलझाकर यह कामना करता रहता है, कि उसे संसार से जाना नहीं पड़ेगा। अपनी हठबुद्धि के कारण वह न केवल संसार को कुरूप बनाता है ,  अपितु पश्चाताप भरी जिन्दगी लेकर लौटने को विवश होता है।

     नवीनता के प्रति आकर्षण जीवन का नैसर्गिक गुण है , यह गुण भी जीवन की पृथक-पृथक इकाइयों में सामंजस्य प्रस्तुत करता है ;  और मनुष्य को उसके चिन्तन के लिए भावभरी विराट् सामग्री प्रदान करता है। जीवों की भाँति मनुष्यों में भी यह गुण पाया जाता है ; किन्तु सांसारिकता के भार इस तरह के आह्लाद प्रदान करने वाले गुणों को भी नष्ट कर देते हैं। तब उनकी पाशविकता उभरकर सामने आ जाती है। अच्छे और नये के स्वागत की दृष्टि ने ही भारतीय मनीषा को अनासक्त कर्मयोग का दर्शन दिया है। इस परम्परा को बनाये रखने में न केवल प्रसन्नता , अपितु पवित्रता भी निहित है |अमेरिका के आरेगन राज्य में सिलबर्टन नाम के एक कस्बे के निवासी फ्रैंक ब्रेजियर ने कोली जाति का एक कुत्ता पाला  नाम रखा गया -“बाबी” बाबी बड़ा ही स्वामिभक्त कुत्ता था| वह न केवल तरह-तरह के करतबों से घर वालों का मनोरंजन करता, अपितु वह एक स्वामिभक्त सेवक के सभी कर्त्तव्य निबाहता, घर की रखवाली के अतिरिक्त बच्चों को स्कूल पहुँचाना, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा करना उसकी दिनचर्या में सम्मिलित कार्य थे। एक बार ब्रेजियर को इडियाना जाना पड़ा, साथ में बाबी भी था। दुर्भाग्य से कुत्ता वहाँ खो गया बहुत खोजने पर भी बाबी न मिला तो निराश ब्रेजियर वापस सिलबर्टन लौट आये। किन्तु बाबी निराश नहीं हुआ। नितान्त अपरिचित 3000 मील का कष्ट भरा मार्ग उसने अगणित बाधाओं के बावजूद पार कर ही लिया ; और अन्ततः एक दिन अपने मालिक तक पहुँचने में सफलता प्राप्त कर ली। इसे कुत्तों की यात्रा का सबसे बड़ा रिकार्ड माना गया है। साथ ही उसकी स्वामिभक्ति का अद्भुत उदाहरण भी।

  इसी तरह भावनाओं के अलौकिक जगत के सत्य से हमें भी इनकार नहीं करना चाहिए। यह सत्य दृष्टि में निरन्तर बना रहे , तो अनायास ही दुष्कर्मों और खोटे कृत्यों से छुटकारा मिल जाता है, पर उसी के साथ ही व्यावहारिकता का आधार भी नष्ट न हो , तो ही संतुलन बना रह सकता है। नवीन के प्रति अनन्य जिज्ञासा का अर्थ पलायनवाद नहीं होना चाहिए। अपनी इसी त्रुटि के कारण भारतीय जीवन ने धक्का खाया और शिरोमणि तत्वदर्शन को धरती की धूल चाटनी पड़ी। आकाश की कल्पना करते समय धरती के यथार्थ से मुँह न मोड़ें। जन्म स्थान पर बार-बार लौटने में जीवों की प्रकृति का यही संदेश- संकेत हो सकता है।

    प्रकाश चिरकाल से ही मानवीय प्रेरणा का स्रोत रहा है। प्रकाश जितना दिव्य और स्निग्ध होता है , उतना ही मोहक लगता है। चैत्र की नवरात्रियों के समय आकाश में आने वाले प्रकाश में कुछ ऐसी दिव्यता होती है कि उसका अनुभवकर आँखें चमकने लगती हैं। ब्याह शादियों के समय छूटने वाली फुलझड़ियाँ देखकर न केवल बच्चे, अपितु बड़े भी प्रसन्न होते हैं। प्रकाश का मानवीय चेतना से कोई सीधा सम्बन्ध है, तभी हम अन्धकार बर्दाश्त नहीं कर पाते। परमात्मा से “अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलने” की प्रार्थना करते हैं। प्रकाश ही जीवन और अन्धकार अविद्या है। यह बात प्राण - चेतना पर समान रूप से लागू होती है; चाहे वह मनुष्य हो या मनुष्येत्तर जीव।

     पक्षियों के प्रवास सम्बन्धी वैज्ञानिक अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया है, कि पक्षियों का प्रवास जिन कारणों से प्रेरित होता है, उनमें ऋतु परिवर्तन को अनुकूल बनाये रखना, भोजन प्राप्त करना गौण है ; अधिक समय प्रकाश की उपलब्धि प्रमुख जिन प्रदेशों में चौबीसों घण्टे या अधिक से अधिक समय सूर्य का प्रकाश रहता है, वहाँ पक्षी अधिक रहना पसंद करते हैं। ध्रुवों के समीपवर्ती प्रदेश इसी कोटि के हैं। आर्कटिक टर्न तथा गोल्डन प्लोवर ऐसे ही पक्षी हैं , जो ध्रुवों की यात्रा गर्मियों में ही करते हैं ; क्योंकि उन दिनों वहाँ से सूर्य चौबीसों घण्टे दिखाई देता है। केवल मौसम की ही बात होती, तो उसमें आये दिन उतार --चढ़ाव आते रहते हैं , किन्तु वे ऐसा नहीं करते। अमेरिका के एक सर्वेक्षण में यह पाया गया है। वहाँ सैन जुआन कैपिस्ट्रान स्थान में आने वाले स्वालो पक्षी प्रतिवर्ष एक ही निर्धारित तिथि को पहुँचते हैं।

न्यूयार्क में एक पक्षी पाया जाता है ब्राँज- कक्कू  इनके बच्चे पैदा होते ही आत्मनिर्भर जीवन बिताते हैं। माता-पिता इन्हें अपने साथ यात्राओं में भी नहीं ले जाते; जबकि वे प्रतिवर्ष सोलोन द्वीप समूह की यात्राएं करते हैं। न जाने कौन-सी सूक्ष्म अन्तःप्रेरणा है , कि बच्चे अपने आप ही अपने पूर्वजों की तरह यात्रायें करते हैं और उन स्थानों में स्वतः पहुँच जाते हैं। जहाँ उनके पितामह आते- जाते रहते हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रकाश किरणों की दिशा, विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र तथा पृथ्वी के घूमने की स्थिति, को पक्षी भली प्रकार अनुभव करते हैं , इसी कारण वे इतनी लम्बी यात्रायें बिना किसी जान-पहचान और यन्त्र के सम्पन्न करते हैं। नक्षत्रों की स्थिति ,सूर्य के परिभ्रमण के आधार पर भी वे अपनी यात्रायें सम्पन्न करते हैं,  किन्तु जितना ही उनका यह सूक्ष्म बोध आश्चर्यजनक है, उतना ही यह तथ्य भी है, कि वे रात में बिना पूर्व ज्ञान और मार्गदर्शन से उन्हें इन सभी परिस्थितियों की जानकारी किस स्रोत से उपलब्ध होती है।


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