भारतीय संस्कृति और उसकी विशेषताएं

June 1978

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                                                   भारतीय संस्कृति और उसकी विशेषताएँ

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      भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ ढूँढ़नी हों , तो उनमें ऐसी कितनी ही अच्छाइयाँ मिल सकती हैं  जो दूसरों के लिए भी प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकें। उनमें से एक अत्यधिक महत्व की है - वैचारिक सहिष्णुता। भारत में अनेक विचार और मत मतान्तर पनपे और बढ़े हैं। किसी ने किसी को रोका काटा नहीं है। औचित्य किस प्रतिपादन में कितना है, इसका निर्णय जन विवेक पर छोड़ दिया गया है। उसमें आस्तिक से लेकर नास्तिक तक, जीव हिंसा को पाप मानने वालों से लेकर पशु बलि चढ़ाने वालों तक, को अपनी बात कहने की छूट दी गई है। बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुआ और देश निकाला लेकर अन्यत्र चला गया | यह स्वस्थ प्रतिद्वन्दिता के कारण हुआ। इसके लिए उसे बाधित नहीं किया गया। इस वैचारिक स्वतन्त्रता से जहाँ यत्किंचित् भ्रम फैलने की गुंजाइश है ,वहाँ बहुत बड़ा लाभ यह है कि प्रस्तुत मीनाबाजार में से अपने उपयोग की सर्वोत्तम वस्तु तलाश करने के लिए विवेक बुद्धि जागृत रहती है। वह विकसित रही तो देर- सवेर में अधिकतम उत्कृष्ट का चुनाव सम्भव हो ही जायेगा। यदि मान्यताओं के बन्धनों से बुद्धि सामर्थ्य को जकड़ दिया गया होता ,तो कट्टरता भले ही बनी रहती, औचित्य को परखने वाला तत्व तो कुंठित ही होता चला जाता।" बाबा वाक्यं प्रमाणम् " के अन्धानुकरण में कई अच्छाइयों पर दृढ़ बने रहने का जितना लाभ है ,उसकी तुलना में यह हानि भारी है कि तर्क और तथ्य का आश्रय लेना ही बन्द कर दिया जाय। सही या गलत जैसी भी बनी हुई है, उसी लकीर को पीटते रहा जाय। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता ऐसी है, जो कट्टरतावादियों को एक अच्छी दिशा की ओर संकेत करती है। हम अनेक प्रस्तुतीकरणों में से जहाँ जितने उपयोगी अंश मिल सकें, वहाँ से उतना चुन लेने की नीति अपना-कर अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमत्ता का ही परिचय देते हैं।

    भीरतीय संस्कृति में व्यक्ति को ऐसी इकाई माना गया है , जो अपने आप में पूर्णता की सम्भावना सन्निहित रखते हुए भी समाज के लिए अति उपयोगी बना रह सकता है। आत्मबोध, आत्मकल्याण, आत्मोत्कर्ष जैसे शब्दों को भारतीय  दर्शन में प्रमुखता मिलने से  यही व्यक्तिवादी मान्यता लगती है और लगता है ?  स्वार्थी बनने के लिए कहा जा रहा है। इससे स्वार्थान्धता को प्रोत्साहन मिलेगा और सामाजिकता क्षीण होगी। यह आशंका तभी सही सिद्ध हो सकती थी, जब व्यक्ति विकास को विश्वात्मा के लिए समर्पित करने के स्थान पर निजी सुख -सुविधा के लिए आत्मकेन्द्रित किया गया था, पर यहाँ तो यह मान्यता है कि विश्वात्मा के- परमात्मा के, चरणों पर उत्कृष्टतम पूजा शाकल्य के रूप में परिष्कृत आत्मसत्ता को समर्पित किया जाय , इस प्रकार यह व्यक्तिवाद भी परिष्कृत समाजवाद की भूमिका प्रस्तुत करता है और उस पर व्यक्तिवादी स्वार्थान्धता का एकाकीपन का आक्षेप नहीं आता।

       अरस्तु ने राज्य को सर्वोपरि माना है और व्यक्ति को उसके हित में कुछ भी करने के लिए कहा है। हीगल ने इस मान्यता को और भी आगे बढ़ाकर सर्वहारा की तानाशाही तक का परोक्ष समर्थन किया है। मार्क्स ने उसे और भी अधिक तर्क और तथ्य के साथ समाज की सर्वोच्च सत्ता के पक्ष में प्रस्तुत किये हैं और व्यक्ति की निजी स्वतन्त्रता को अमान्य ठहराया है। इन दिनों यही मान्यता प्रबल हो रही है। व्यक्ति के अधिकार बने रहने पर स्वतन्त्र आत्मोत्कर्ष की- अन्तरात्मा का अनुसरण करने की गुँजाइश रहती है ; किन्तु जब वह समाज के संचालकों की वशवर्ती कठपुतली मात्र रह गया ,तो फिर स्वतन्त्र चिन्तन की गुँजाइश ही कहाँ रही। माना कि इसमें दुष्टता बरतने के गुँजाइश है, पर साथ ही ऐसा भी तो है कि चेतना की स्वेच्छा साधियत गतिविधियाँ अपनाकर उस स्थान पर पहुँचे , जहाँ अवतारी महामानव पहुँचते रहे हैं। समाज नियन्त्रण को सर्वोपरि मान लेने पर वैयक्तिक महानता को विकसित कर सकने वाली आत्म-साधना के लिए अवसर ही नहीं रहता। इसी प्रकार प्रचलित विचार धारा को ही अन्तिम मानना पड़ेगा | उससे भिन्न प्रकार के तथ्यों को उभारना एवं जन साधारण के सामने प्रस्तुत कर सकने की बात ही शेष न रह जायगी। इससे मानवी प्रगति के इतिहास क्रम में भारी बाधा उत्पन्न होगी। भारतीय संस्कृति की प्रतिपादित एवं समर्थित वैयक्तिक स्वतन्त्रता में कितने ही दोष क्यों न गिनाये जाय, एक गुण तो बना ही रहेगा कि उसकी अन्तरात्मा जीवित रहे और अपने ढंग से अपने निर्णय लेने और गतिविधियाँ अपनाने में समर्थ रह सके। इस विशेषता के रहते आत्म-निर्माण की आत्माभिव्यक्ति की जो सुविधा मनुष्य के हाथ रह जाती है, वह असंख्य व्यवधानों के रहते हुए भी अधिक मूल्यवान है।

       भारतीय संस्कृति में संवेदना, कल्पना, आचरण, भाव संयम, नैतिक विवेक, उदार आत्मीयता के जो तत्व अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं ,उनका आंशिक पालन बन पड़ने पर भी व्यक्ति सौम्य एवं सज्जन ही बनता है। इस दृष्टि से औसत भारतीय नागरिक तथा-कथित प्रगतिवान एवं सुसम्पन्न समझे जाने वाले देशों की तुलना में कहीं अधिक आगे है।

       कर्मफल के सिद्धान्त की मान्यता– पुनर्जन्म के प्रति आस्था , भारतीय संस्कृति की ऐसी विशेषता है, जिसके आधार पर नीति और सदाचार की रक्षा होती है। यह एक अच्छी दार्शनिक ढाल है, जिसके कारण अनैतिक बनने के लिए उभरने वाले उत्साह पर नियन्त्रण लगता है। अपने देश में, ईमानदारी, अतिथि – सत्कार, दाम्पत्य मर्यादाओं की कठोरता, पुण्य– परोपकार, पाप के प्रति घृणा, जीवदया जैसे तत्व ,दरिद्रता और सामाजिक अव्यवस्था के रहते हुए भी जीवित है ,  उतने संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। जिन दिनों इस कर्मफल, सिद्धान्त पर वास्तविक आस्था थी, उन दिनों यहाँ की चरित्रनिष्ठा और समाज निष्ठा देखते ही बनती थी। प्राचीनकाल का भारतीय गौरव वस्तुतः उसकी महान संस्कृति का ही एक अनुदान रहा है।

      मातृ शक्ति को देवी रूप में परम प्रतिष्ठा एवं भोजन , स्नान आदि के साथ जुड़ी हुई स्वच्छता ऐसे आधार हैं, जिनका श्रेष्ठता के संवर्धन में अच्छा योगदान रह सकता है। वर्ण –व्यवस्था आज जन्म-जाति के साथ जुड़कर विकृत हो जाने के कारण बदनाम है, पर उसके पीछे अपने व्यवसाय तथा अन्य विशेषताओं को परम्परागत रूप से बनाये रहने की भारी सुविधा है। आज छोटे-छोटे कामों के लिए नये सिरे से ट्रेनिंग देनी पड़ती है , जबकि प्राचीनकाल में वह प्रशिक्षण वंश- परम्परा के आधार पर बचपन में आरम्भ हो जाता था और अपने विषय की प्रवीणता सिद्ध करता था। आश्रम धर्म में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में बीतने वाली आधी आयु भौतिक प्रगति के लिए और आधी आयु आत्मिक विभूतियों के संवर्धन के लिए है। वानप्रस्थ और संन्यास में आत्मिक श्रेष्ठता के संवर्धन तथा लोकमंगल के योगदान देने के लिए निश्चित है। इससे व्यक्ति और समाज दोनों की श्रेष्ठता समुन्नत होती रहती है।

     तीर्थ यात्रा में जहाँ स्वास्थ्य संवर्धन, अनुभव वृद्धि, स्वस्थ मनोरंजन, व्यवसाय वृद्धि, अर्थ वितरण जैसे अनेक लाभ हैं, वहाँ घर बैठे आदर्शवादी लोकशिक्षण की भी प्रचुर संभावना है। देवदर्शन के बहाने तीर्थयात्री गाँव-गाँव, गली- मुहल्लों में जाकर धार्मिक जीवन की प्रेरणा देते थे। पैदल तीर्थयात्रा का नियम रहने से धर्मात्मा व्यक्ति अपने मार्ग के अनेक स्थानों में अनेक व्यक्तियों तक श्रेष्ठ जीवन के सदुपयोग का मार्गदर्शन करते थे। साधु - ब्राह्मणों के अतिथि -सत्कार एवं दान- दक्षिणा के पीछे यही भावना भरी हुई है कि लोक सेवा के लिए स्वेच्छा- समर्पित कार्यकर्ताओं को किसी प्रकार की आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े।

     व्रत उपवासों से जहाँ उदर रोगों की कारगर चिकित्सा की पृष्ठभूमि बनती है ,वहाँ मनः शुद्धि की प्रेरणा भी तीर्थयात्रा के साथ जुड़े हुए ऐतिहासिक स्थलों द्वारा मिलती है। प्रत्येक शुभ कर्म के साथ अग्निहोत्र जुड़ा रहने के पीछे दूरदर्शी तत्व वेत्ताओं की इच्छा यही रही है कि लोगों का यज्ञीय जीवन जीने की प्रेरणा मिले। यज्ञ– परमार्थ की प्रेरणाओं में जन– जीवन में त्याग –परमार्थ की पुनीत सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक समावेश होता रहे। पर्वों और जयन्तियों की अधिकता भारतीय धर्म की ऐसी विशेषता है, जिसके सहारे सत्–परम्पराओं को अपनाये रहने और प्रेरणाओं को हृदयंगम किये रहने के लिए पूरे समाज को प्रकाश मिलता है?

        भारत दर्शन के लिए आने वाले पाश्चात्य पर्यटक इस बात पर भारी अचम्भा करते हैं कि इस देश में पक्षी इतनी बहुलता के साथ जीवित हैं ; और वे इतनी निर्भीकता के साथ विचरण करते हैं। पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता। वहाँ ढेरों किशोर, तरुण छोटी बन्दूकें लिये दिन भर पक्षियों की शिकार के लिए लुक-छिपकर घात लगाते रहते हैं। फलतः वहाँ उनका एक प्रकार से वंशनाश ही होता चला आ रहा है। उन देशों में जहाँ तक हुआ, पक्षी– संरक्षण– क्षेत्र बनाये हैं और वहाँ शिकार खेलने का निषेध किया है; फिर भी वहाँ वे सुरक्षित नहीं है। भारत के पक्षियों का स्वर्ग देखकर इस सह– अस्तित्व पर सभ्यताभिमानी लोग आश्चर्य करते हैं और जब देखते हैं कि पक्षियों को दाना डालने- उनके लिए विश्रामगृह बनाने, संरक्षण देने और चिकित्सालय तक बनाने तक की प्रथा है, तब तो उनके अचम्भे का ठिकाना ही नहीं रहता।

   सभ्यता एक बात है, संस्कृति दूसरी। सभ्यता क्षेत्रीय होती है , उस पर स्थानीय परिस्थितियों का और समय के उतार –चढ़ावों का प्रभाव रहता है; किन्तु संस्कृति, आत्मा की मौलिक विशेषता होने के कारण सनातन और शाश्वत है। समय के साथ वह बढ़ती - घटती अवश्य है, पर उसके सिद्धान्तों में कोई अन्तर नहीं आता। मानवता के साथ कुछ आदर्श अविच्छिन्न रूप में जुड़े हुए हैं। वे देश, काल, पात्र से प्रवाहित नहीं होते। समर्थन या विरोध, की परवाह न करते हुए, वे अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग बने रहते हैं। बहुमत या आत्ममत से भी उन्हें कुछ लेना देना नहीं पड़ता। संस्कृति ऐसी आदर्श शृंखला है जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता यहाँ तक कि व्यवहार में उन सिद्धान्तों के प्रतिकूल चलने वाला भी खुले रूप में उसका विरोध नहीं कर सकता।

      चोर अपने यहाँ दूसरे चोर को नौकर नहीं रखना चाहता। व्यभिचारी अपनी कन्या का विवाह व्यभिचारी के साथ नहीं करता और न अपनी पत्नी को किसी ऐसे व्यक्ति के साथ घनिष्ठता बढ़ाने देता है। ग्राहकों के साथ धोखेबाजी करने वाला दुकानदार भी वहाँ से माल नहीं खरीदता , जहाँ धोखेबाजी की आशंका रहती है। झूठ बोलने का अभ्यासी भी सम्बन्धित लोगों से यही अपेक्षा करता है कि वे उसे सच बात बताया करें। अनैतिक आचरण करने वालों से पूछा जाय कि आप न्याय - अन्याय में से उचित  अनुचित में से सदाचार- दुराचार में से किसे पसन्द करते हैं, तो वह नीति -पक्ष का ही समर्थन करेंगे। अपने सम्बन्ध में परिचय देते समय हर व्यक्ति अपने को नीतिवान के रूप में ही प्रकट करता है। इन तथ्यों पर विचार करने से प्रकट होता है कि मनुष्य की अन्तरात्मा एक ऐसी दिव्य परम्परा के साथ गुँथी हुई है, जिसे झुठलाना किसी के लिए भी- यहाँ तक कि पूर्ण कुसंस्कारी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता। वह अपने दुराचरण के बारे में अनेक विवशताएँ बताकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न तो कर सकता है, पर अनीति को नीति कहने का साहस नहीं कर सकता। यही कारण है, जिसके आधार पर संस्कृति को विश्व विजयिनी कहा जाता है।


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