विक्षिप्तता और उसका स्थायी समाधान

June 1978

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                                                                 विक्षिप्तता और उसका स्शायी  समाधान

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         सही जीवनयापन के लिए नैतिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। इससे सरल और सरस प्रक्रिया बनी रहती है और शान्तिपूर्वक निर्वाह होता रहता है। अनैतिक आचरण से अन्तर्द्वन्द्व उठते हैं - आत्मग्लानी बढ़ती है। समाज की निन्दा, तिरस्कार और शासन का न्यायदण्ड सदा डराता रहता है। इस दबाव से मनःसंस्थान इतना पिसता है, जितना कि लगातार मानसिक श्रम करने पर भी सहन नहीं करना पड़ता। सन्तुलित जीवनयापन करने के लिए चिन्तन की सन्तुलित दिशाधारा लोगों को मालूम नहीं होती, फलतः इधर से उधर भटकने और अचिन्त्य चिन्तन करने लगते हैं। भय, आशंका, निराशा उन्हीं लोगों को होती है , जो परिस्थितियों पर असन्तुलित प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं और घबराहट में अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह मस्तिष्क को विक्षिप्त एवं अर्धविक्षिप्त बना लेते हैं।

        मनोविकारों और मानसिक रोगों में क्रिया और प्रतिक्रिया जितना ही अन्तर है। काम और उसका परिणाम देखने में दो प्रकार के होते हैं, पर वस्तुतः दोनों के बीच घनिष्ठ तारतम्य रहता है। चोरी करना जब आदत में सम्मिलित हो जाता है और अवसर पाते ही वह क्रिया अनायास ही होने लगती है ,  तब उसे मनोविज्ञानी ‘क्लपटोमीनिया’ कहते हैं। नशेबाजी की गहरी आदत ‘डिपसोमीनिया’ कहलाती है। पदार्थों को नष्ट करने की अदम्य अभिलाषा ‘वायरोमीनिया’ कहलाती है। दूसरों को कष्ट पाते देखकर मजा लूटने का स्वभाव ‘म्यूटिलोमीनिया’ कहलाता है। यौन कुत्साएँ , जो बेतरह मन पर छाई रहती हैं - डिमेनशिया कहलाती हैं।

      किसी स्वजन सम्बन्धी की मृत्यु एवं हानि , दुर्घटना का समाचार सुनकर चेहरा सुस्त पड़ जाता है और भूख मारी जाती है। भय के अवसर उत्पन्न होने पर शरीर काँपता है, पसीना छूटता है, मुँह सूखने और रोमांच खड़े होने लगते हैं। क्रोध में भयंकर उष्णता उत्पन्न होती है और उस गर्मी से पक्षाघात, रक्तचाप जैसे रोग उत्पन्न होने का भय रहता है। कहा जाता है कि एक घण्टे का क्रोध एक दिन के बुखार की बराबर शक्ति क्षीण करता है। मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार अनेक मनोविकारों के परिणाम भयंकर बीमारियों के रूप में सामने आते हैं। हृदयरोग, श्वास रोग एवं पाचन सम्बन्धी कितने ही रोग शारीरिक गड़बड़ी से उतने नहीं होते ,जितने कि मानसिक दबावों के कारण निराश और खिन्न रहने वाले व्यक्ति मधुमेह, अनिद्रा, अपच, गठिया, सिरदर्द जैसे रोगों से ग्रसित रहने लगते हैं।

       पूरे मनःसंस्थान में विभिन्न प्रकार की अनेकानेक विसंगतियाँ का उत्पन्न हो जाना ही पागलपन कहा जाता है। इस स्थिति को ‘स्कित्जोफ्रीनिया’ कहते हैं। आंशिक विक्षिप्तता को सनक, मूढ़ता आदि नाम दिये जा सकते हैं। ऐसे लोग आजीविका उपार्जन, नित्यकर्म आदि जीवन- निर्वाह के सामान्य कार्य मजे में करते रहते हैं किसी विशेष प्रयोजन में ही वह सनकते और गड़बड़ाते हैं। इस स्तर की बीमारियाँ न्यूरोसिस कहलाती हैं।

       उदास प्रकृति का पागलपन एकाकी होता है। वह दूसरों के सम्बन्ध में न अधिक सोचता है न उनसे मतलब रखता है। अपने में ही खोया रहता है। अपनी मनमर्जी से चलता है। न वह किसी को अपना मानता है और न अपने ऊपर किसी का अधिकार स्वीकार करता है। अपने बेढंगेपन पर उसे दूसरों की प्रतिक्रिया की परवाह नहीं होती। आत्मकेन्द्रित रहकर वह गुजारा करता है | कोई इच्छा, महत्वाकांँक्षा भी उसकी नहीं होती।

      कमजोर मन वाले व्यक्तियों को तनिक-सी प्रतिकूलताएंँ बहुत डरावनी लगती हैं और उनसे भयभीत होकर वे अपना मानसिक सन्तुलन बिगाड़ लेते हैं। दाम्पत्य रीति-नीति से अपरिचित लड़कियाँ सुहागरात प्रकरण से कई बार इतनी डर जाती हैं कि उन्हें उस प्रकार की पुनरावृत्ति प्राण संकट जैसी लगती है। इसी प्रकार कई गर्भवतियों का मानसिक स्वास्थ्य प्रसव पीड़ा की भयानकता को बढ़ा-चढ़ाकर सोचते रहने से चौपट हो जाता है। पति या सास के थोड़े से दुर्व्यवहार से नव-वधू कभी-कभी इतनी घबरा जाती है कि उन लोगों के साथ रहना उन्हें असह्य प्रतीत होता है और बच निकलने का मार्ग न देखकर आत्महत्या जैसे दुःखदायक प्रसंग खड़े कर लेती हैं। ससुराल में उपेक्षा, पितृगृह का विछोह, नये वातावरण में फिट न हो सकना , पुरानी जीवनयापन पद्धति में भारी अन्तर आने जैसी विसंगतियों का तालमेल न बैठ पाने से कई नवविवाहिताएँ भूत-पलीत, , मिर्गी , घबराहट के दौरे आने जैसी बीमारियों में फँस जाती हैं।

        उत्तेजित प्रकृति के पागल हर समय बेचैन रहते हैं। उत्तेजनाग्रस्त, अस्थिर, चंचल उन्हें पाया जाता है। कुछ न कुछ उठक-पटक करते रहते हैं, बड़बड़ाते हैं, दूसरों के कामों में हस्तक्षेप करते हैं और लड़ने - मरने पर उतारू रहते हैं। आत्म प्रशंसा, दर्प - प्रदर्शन, धमकी, दूसरों का तिरस्कार जैसी हरकतों में उन्हें संलग्न देखा जा सकता है। इस स्तर की बीमारी ‘हैब्रेफ्रेनिक’ कहलाती है शारीरिक और मानसिक तनाव बढ़ा-चढ़ा रहे ; चैन से न बैठने ,और न बैठने देने की स्थिति हो , तो उसे ‘कैटाटोनिक’ कहा जायेगा। अदृश्य दृष्टि देखना, तरह तरह की आवाजें सुनना ,  पीड़ा - प्रताड़ना सहनी पड़ रही है,- ऐसा आभास होना , यह चिन्ह पागलपन के उस स्तर के हैं , जिसे ‘पैरेनोइड’ कहा जाता है।

      हताश, निराश बैठे रहने से रोगियों के रक्त में ‘सेरेटोनीन’ का अनुपात न्यूनाधिक हो जाता है। ऐसे लोग खिन्न होकर आत्महत्या कर बैठते हैं। कहीं दूर एकान्त में जा बसने वाले प्रायः इसी मर्ज के मरीज होते हैं।

    कई व्यक्तियों को अपनी कल्पनाएँ बहुत दिन तक संजोये रहने पर वे वास्तविकता जैसी लगने लगती हैं और फिर वे उसे वास्तविक घटना समझने लगते हैं और वैसा ही वर्णन करने लगते हैं। इसे ‘कोर्साकोफ्स सायकोसिस’ कहा जाता है। सिद्ध योगियों के देवी-देवताओं के - भूत-प्रेतों के चमत्कारों को , आँखों देखे घटना क्रम की तरह दावे के साथ बताने वालों में प्रायः इसी रोग के मरीज होते हैं। वे कल्पनाओं को वास्तविक समझने में ईमानदार गलती करते रहते हैं।

       विस्मृति के साथ-साथ यदि विसंगतियाँ उस स्थान पर जम बैठें ,तो पिछली घटनाओं को- व्यक्तियों को अथवा सम्बन्धों को अवास्तविक रूप से अपना लिया जाता है ; ऐसी स्थिति में उनके कथन में ऐसी बातें घुस पड़ती हैं , जिनके लिए मिथ्या भाषण का दोष लगाया जा सके। एल्जाइमर एवं लोप्रेशर हाइड्रोसेफल्स रोग प्रायः वृद्धावस्था में ही होते हैं और विस्मरण से उत्पन्न विक्षिप्तता के लक्षण बढ़ जाते हैं। ‘सठियाना’ इसी को कहते हैं। साठ वर्ष बाद अनेक को हलके - भारी रूप में इस प्रकार की मानसिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

        विक्षिप्तता की चरम सीमा तक पहुँच जाने पर रोगी को पकड़कर पागलखाने पहुँचाया जाता है। इससे कम की स्थिति में मानसिक रोग , सनक, उद्दंडता, दुष्टता आदि समझे जाते रहते हैं। जबकि वह अटपटापन वस्तुतः मानसिक अस्वस्थता के कारण ही उत्पन्न होता है। सही मनःस्थिति होने पर वह व्यक्ति पछताता भी है और अपने को सुधारना भी चाहता है, पर कोई ऐसा विचित्र आवेश दौरे के समय चढ़ता है और वह देह कुछ से कुछ करने लगता है।

       पागलखाने के डाक्टरों के पास कुछ थोड़े से उपचार हैं और वे प्रायः उन्हीं में उलट-पुलट करते रहते हैं। भारतीय जड़ी-बूटियों में पागलपन की दवाओं में ‘सर्पगंधा’ की अधिक ख्याति है। ऐलोपैथी परीक्षणों में उसे रक्तचाप के लिए अधिक उपयोगी पाया गया है। ऐलोपैथ सर्पगंधा के समकक्ष एक अन्य औषधि - ‘रेजरपीन’ का उपयोग करते रहे हैं। इन दिनों एमीप्रभीन, ट्राइसाइकिलिक, लीथियम कारबोनेट जैसी कई औषधियों का अधिक प्रचलन है। इन्हीं दिनों कई नई औषधियाँ बाजार में आई हैं, पर अभी उनके परिणामों के बारे में निश्चित निष्कर्ष नहीं निकले हैं।

         शल्य चिकित्सा में पागलपन का उपचार करने की पद्धति को ‘सिग्लोटोमी’ कहते हैं। इसमें गड़बड़ी पैदा करने वाले भाग को काटकर अलग कर दिया जाता है। इससे अटपटापन तो दूर हो जाता है, पर मस्तिष्क की प्रखरता में भारी कमी आ जाने से स्थिति मन्दबुद्धि जैसी बन जाती है। अगले और पिछले मस्तिष्क का सम्बन्ध सूत्र काट देने से मनुष्य की बुद्धिमता चली जाती है, हाँ किसी प्रकार शांतिपूर्वक जीवनयापन कर सकने जैसी स्थिति अवश्य बन जाती है। इन उपचारों से चिन्ताजनक स्थिति का ही समाधान निकला है। पगलाये हुए व्यक्ति को भले - चंगे मनुष्य के स्तर पर फिर से ला सकने जैसी सफलता नहीं मिली है।   मस्तिष्कीय कोशाओं और तंतुओं का पारस्परिक सम्बन्ध सूत्र शिथिल पड़ जाने से सही निष्कर्ष निकालना और सही निर्णय करना, उसके लिए कठिन हो जाता है। अभ्यस्त क्रियाकलापों में से कोई भी, कुछ भी, कभी भी उठ सकता है। शरीर एवं मन द्वारा किसी प्रकार की अनियन्त्रित गतिविधियाँ चलने लग सकती हैं। यही है मोटे रूप से पागलपन की व्याख्या। इस असम्बद्धता को दूर करने में बिजली का झटका देने की उपचार पद्धति काम में लाई जाती है। उछलकर लम्बी कूद कूदने और बीच की खाई पाट लेने की रीति-नीति मस्तिष्कीय घटकों की असम्बद्धता दूर करने के भी काम आती है। इसे ‘शाकथैरेपी’ कहते हैं। मस्तिष्क को बिजली का झटका देने से पहले इंसुलिन का इन्जेक्शन लगाया जाता है। जिससे रक्त में शकर की मात्रा घट जाती है और रोगी बेहोश हो जाते हैं। इस बेहोशी की हालत में ही मस्तिष्क में बिजली के झटके दिये जाते हैं। काम पूरा हो चुकने पर कोकजि इन्जेक्शन देकर रोगी को फिर से होश में कर लिया जाता है। जिस प्रकार भावनात्मक झटका लगने से मनुष्य पगला सकता है , उसी प्रकार शाकथैरेपी के आधार पर मस्तिष्कीय संस्थान को झनझना देने वाले बिजली के झटके , उस टूट-फूट को दुरुस्त करते हुए भी देखे गये हैं। पागलपन की चिकित्सा में यही पद्धति अन्य सभी उपचारों से अधिक सफल रहती देखी गई है।

         पागलखानों के डॉक्टर कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ रोगियों के शरीर में पहुँचाकर उस कमी को पूरी करते हैं ,  जो मानसिक रोगों का कारण समझी जाती है। इस प्रकार के रसायनों में ‘केटेकोलोमीन’ वर्ग की औषधियाँ ही प्रधान रूप से काम में लाई जाती हैं। इनकी एक शाखा ‘एड्रेनेलीन’ हारमोन की है , जिससे मस्तिष्कीय शिथिलता घटती और उत्तेजना बढ़ती है। इनसे अवसाद की, शिथिलता की स्थिति दूर होती है। दूसरी शाखा ‘नोराड्रेनेलीन’ रसायनों की है जो अपेक्षाकृत हलकी है। उससे उत्तेजना नहीं फुर्ती भर आती है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य औषधियाँ भी प्रख्यात हैं। जैसे तन्तु संस्थान के अवरोधों को दूर करने वाली डोपामीन , आवेग रोकने के लिए- सेरोटोमीन आदि।

       मनःचिकित्सा का एक तरीका यह है कि रोगी को कुछ भी कहने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। आदमी उसी की चर्चा करता है ,जो उसकी समझ से अधिक महत्वपूर्ण है। भले ही वह दूसरों की दृष्टि में निरर्थक ही क्यों न हो ? दिलचस्पी से सुनने पर रोगी अपने जीवन की, मन की स्मृतियों को कहना आरम्भ कर देता है। यह क्रम एकाध घण्टे नित्य चलता है ; फलतः उसके जी में जमी हुई ऐसी ग्रंँथियां खुल जाती हैं जिनके कारण मनोरोग उत्पन्न होते माने जाते हैं। मान्यता यह है कि कोई अप्रिय प्रसंग जीवन में आते हैं और वे दूसरों से कहने योग्य न होने के कारण मस्तिष्क के किसी कोने में छिपे रहते हैं। मनुष्य का मस्तिष्क खुली पुस्तक की तरह होना चाहिए, जिसे कोई भी पढ़ सके ,तो किसी को भी खुशी-खुशी पढ़ाया जा सके। ऐसा दुराव रहित निष्कपट मन स्वच्छ रहता है। ग्रंन्थियों दुराव की होती है। दुराव, अनीति या छल से सम्बन्धित होते हैं। वे गुर्दे ,मूत्राशय या जिगर में जमने वाली पथरी की तरह दिमाग में जम जाते हैं और बाहर न निकलने तक चुभे हुए कांटे की तरह कष्ट देते रहते हैं, इन्हें निकाल बाहर किया जाय तो मनोरोग दूर होते हैं। मनोरोग चिकित्सा में यही पद्धति प्रमुखतया काम में आती है और यदि दुराव के कारण उन्माद हुआ और उसे बिना संकोच कहकर प्रकट कर दिया गया , तो उसका अच्छा परिणाम होता है और व्यथा के निवारण में सहायता मिलती है।

     संसार भर में बढ़ते हुए पागलपन पर मनःविशेषज्ञों ने चिन्ता व्यक्त की है और रोकथाम तथा उपचार के अनेकों तथ्य खोजें एवं उपाय सोचे हैं। औषधि उपचार से नहीं के बराबर लाभ हुआ है। मस्तिष्क को ठप्प या उत्तेजित करने वाली औषधियाँ आरंभ में कुछ लाभ दिखाकर अपना फिर प्रभाव दिखाना बन्द कर देती हैं। इसके अतिरिक्त उनमें बुद्धि मन्द पड़ते जाने जैसी नई व्यथा उत्पन्न होती है जो लगभग पागलपन के ही समतुल्य होती है।

     चिकित्सा जितनी महत्वपूर्ण है , उससे भी अधिक महत्व रोकथाम के उपाय बरतने पर दिया जाना चाहिए | उन्माद के मूलकारण असन्तुलन को दूर करने के लिए नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र और मनःशास्त्र के उन सिद्धान्तों को जनमानस में प्रतिष्ठापित कराया जाना चाहिए, जो मनुष्य को सरल, सौम्य एवं शालीनता का जीवनयापन करने की विधि-व्यवस्था समझाते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए धर्मधारणा और अध्यात्म साधना को उपयोगी उपचार की तरह काम में लाया जा सकता है। उसकी उपयोगी विधिव्यवस्था अपनाकर न केवल उन्मादी और सनकी रोगरहित किये जा सकते हैं, वरन् वैसे उपद्रवों की रोकथाम भी सहज ही हो सकती है। इस निष्कर्ष पर विचारशील मनःशास्त्री पहुँच रहे हैं और कुछ समय पूर्व जिस नीतिशास्त्र का उपहास किया जा रहा था अब उसका समर्थन मानसोपचार के रूप करने की बात सोची जा रही है। यही है विक्षिप्तता को रोकने और समाप्त करने का स्थिर समाधान।

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