व्याधि निवारण के लिए धर्मानुष्ठानों का उपचार

June 1978

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                                                            व्याधि निवारण के लिए धर्मानुष्ठानो का उपचार

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       काय चिकित्सा की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं। आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी, ऐलोपैथी, बायोकैमी, क्रोमोपैथी, नैचरोपैथी, प्राण चिकित्सा, विद्युत चिकित्सा, झाड़-फूँक आदि कितने ही प्रकार के उपचार रोग - निवारण के लिए काम आते हैं। पर मनोरोगों का न तो महत्व समझा जाता है और न उनके उपचार का कोई प्रबन्ध है ; जबकि उनसे हानियाँ शारीरिक रोगों से भी कहीं अधिक होती हैं। शरीर वाहन है और मन सवार। शरीर औजार और मन कारीगर। वाहन और औजार की तुलना में उसके प्रयोक्ता का महत्व अधिक है। शरीर के रुग्ण होने से जितनी क्षति होती है, उसकी तुलना में मन के अस्वस्थ होने पर कहीं अधिक हानि उठानी पड़ती है। अस्तु मानसिक स्वास्थ्य की ओर शरीर स्वास्थ्य से भी अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, जबकि उस ओर प्रायः उपेक्षा ही दिखाई जाती है।

      मानसिक संतुलन खो बैठने पर उन्मादग्रस्तों को पागलखाने में भर्ती किया जाता है। इससे कम की मानसिक रुग्णता की ओर ध्यान नहीं जाता , जबकि व्यक्तित्व को गया-गुजरा बनाने, पिछड़ापन लादे रहने और प्रगति पथ में पग-पग पर अवरोध उत्पन्न करने में वे ही प्रधान कारण होते हैं। बुरी आदतों से ग्रसित, बात-बात में आपे से बाहर हो जाने वाले, दुराग्रही, उद्धत स्वभाव, कल्पनालोक में उड़ते रहने वाले, अशिष्ट, सनकी प्रकृति के लोग भी मनोरोग ग्रसित ही कहे जायेंगे | वैसे मनोरोग विज्ञान के अंतर्गत सही चिन्तन न कर सकने वाले - अविकसित मस्तिष्क वाले भी रोगी ही माने गये हैं। किन्तु सर्वसाधारण की दृष्टि में यह स्वभाव दोष भर है और इनका समझाने बुझाने एवं स्वयं सुधरने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। तथ्य इससे भिन्न है। बुरी आदतें भी बीमारियाँ ही हैं और उनका भी कायरोगों की तरह उपचार हो सकता है।

        साइकोमैट्री जैसे आधारों पर सामान्य मानसिक रोगों की - सनकों की - चिकित्सा बहुत दिनों से चल रही है। उससे रोगी को अपने मन की बातें जी खोलकर कहने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। सोचा जाता है कि जैसे पथरी से पेशाब रुक जाता है ,उसी प्रकार किन्हीं मानसिक दबावों की गाँठें बन जाने से, चिन्तन - स्वाभाविक प्रवाह में अवरोध आता है। उसी से विक्षिप्तता आती मानी जाती है। समझा जाता है कि यदि स्वच्छन्द कथन में वे बातें मुँह से निकल जायें, जो मन पर दबाव डालती थीं, तो उससे वह दिमागी पथरी निकल सकती है, जिन्हें मानसिक ग्रन्थियाँ कहा जाता है और मनोरोगों का कारण माना जाता है। इस स्वच्छन्द कथन के अतिरिक्त रोगी को कुछ सुझाव भी दिये जाते हैं। उसके चित्त में से कुछ मान्यताएँ उखाड़ने और कुछ जमाने के लिए स्नेह युक्त हलका- फुलका वार्तालाप किया जाता है। प्रायः इसी स्तर की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति बहुत दिनों से चल रही है। उसके कभी उत्साहवर्धक, कभी निराशाजनक परिणाम भी सामने आते रहते हैं।

         विचारणीय यह है कि क्या मनःशास्त्रियों की यह मान्यता सही है कि कभी कोई मानसिक दबाव पड़ जाने से ही मनोरोग उत्पन्न होते हैं? यदि ऐसा ही है, तो जिन्हें जीवन भर भारी प्रतिकूलताओं, खिन्नताओं और विपन्नताओं के बीच निर्वाह करना पड़ता है ; वे क्यों विक्षिप्त नहीं हो जाते? प्रतिकूलताओं की उत्तेजना से प्रखरता उभरती है, इस सिद्धान्त को फिर किस प्रकार मान्यता मिलेगी? तब सदा अनुकूलता ही ढूँढ़नी पड़ेगी, भले ही वह किसी भी कीमत पर क्यों न मिले? अन्यथा तनिक-सी भी प्रतिकूलता का दबाव पड़ने पर मनोरोग उत्पन्न होने का भय रहेगा। इसके अतिरिक्त एक बात और भी है कि यह कह देने भर से मानसिक गाँठें खुल जाती हैं तो जो दुखियारे अपनी व्यथा और कठिनाई आये दिन ,हर किसी से कहते ही रहते हैं ,उनका समाधान क्यों नहीं होता? गम्भीर प्रकृति के लोग अपनी और दूसरों की महत्वपूर्ण बातें प्रायः छिपाये ही रहते हैं, राजनीतिज्ञ, सेनाध्यक्ष, षड्यन्त्रकारी, अपराधी जैसे लोगों की सफलता तो इसी पर निर्भर रहती है कि अपने मन की बातें छिपाये रहें, उसकी गन्ध भी किसी को नहीं लगने देते। ऐसी दशा में छिपाने, न कहने से उन्हें मनोरोग क्यों नहीं होते? लगता है मनोवैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित यह प्रक्रिया, उतनी सारगर्भित नहीं है कि मानसिक दबावों से ही विक्षिप्तता आती है और जी खोलकर कह देने भर से मनोरोगों का निराकरण हो जाता है। इन सन्देहों के बावजूद यदि इसे उपयोगी एवं आवश्यक मान लिया जाय, तो भी इतना तो निश्चित है कि इतना भर पर्याप्त नहीं है। इतने भर उपाय से अनेक मानसिक रोगों का निराकरण पूरी तरह नहीं हो सकता। इससे आगे भी करने के लिए बहुत कुछ शेष रह जाता है, यह मानकर चलना होगा।

कायिक रोग प्रकृति द्वारा शरीर - यात्रा के लिए निर्धारित नियमों के उल्लंघन का परिणाम हैं। इसी प्रकार मनोरोगों का कारण चिन्तन के लिए निर्धारित नीति मर्यादा का व्यतिक्रम करना है। व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को चरित्र-निष्ठ रहना चाहिए और सम्पर्क - क्षेत्र में समाजनिष्ठ सद्व्यवहार का पालन करना चाहिए। अरोग्य शास्त्र की नियम -मर्यादा इसलिए है कि आहार-विहार का ठीक तरह पालन किया जाय। समाज शास्त्र के अन्तर्गत शासकीय कानून और शिष्टाचार सहित नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह आवश्यक है। वैयक्तिक और सामाजिक आचार -संहिता का अनुशासन मानने वाले सज्जन कहलाते हैं। उनकी प्रशंसा होती है, जन सहयोग मिलता है और उनका अस्तित्व सुखद वातावरण का निर्माण करता है। इसके साथ-साथ सबसे बड़ा और पूर्ण प्रत्यक्ष लाभ यह है कि चित्त हलका रहने से उन अन्तर्द्वन्द्वों का उद्भव नहीं होता ,जो मानसिक रोगों के प्रधान कारण हैं। व्यक्तिगत जीवन की उत्कृष्टता बनाये रहने की आवश्यकता पूरी करने वाले तत्वदर्शन का नाम अध्यात्म है। इसी को व्यवहार में मानवी संस्कृति कहते हैं। आत्मपरिष्कार इसका उद्देश्य है। व्यावहारिक जीवन की गतिविधियों की मर्यादा क्या हो, इसका निर्धारण धर्म -धारणा के अन्तर्गत किया गया है। धर्म को ही सभ्यता भी कहते हैं। धर्म प्रवृत्ति को जीवित रखने के लिए, पुण्य -परमार्थ के लिए, की गई विविध-विधि तपश्चर्याओं का अभ्यास किया जाता है, उनमें पिछली भूलों के लिए पश्चाताप प्रायश्चित का भाव है और आगे के लिए सतर्कतापूर्वक श्रेष्ठ जीवन बिताने का संकल्प। धर्म -धारणा के समस्त क्रिया-कलाप इसी उद्देश्य के लिए विनिर्मित हुए हैं। अध्यात्म के अन्तर्गत कितने ही प्रकार की योग -साधनाएँ आती हैं ,उनमें आत्मनिरीक्षण और अन्तर - परिशोधन के लिए कई तरह के अभ्यास कराये जाते हैं। इनके द्वारा अन्तः श्रद्धा का स्तर अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा उठाया जाता है। ‘अहम्’ को संकीर्ण सीमाबन्धन से आगे बढ़कर सुविस्तृत क्षेत्र में आत्मभाव विस्तृत करने वाले स्वाध्याय, सत्संग, मनन,- चिन्तन के अभ्यास, योगसाधना के अन्तर्गत ही आते हैं। प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की पाँच साधनाएँ योगसाधना का अन्तःस्पर्शी अभ्यास है। इनसे पहले तीन को लोकव्यवहार का मर्यादापालन कहना चाहिए। उनमें सामाजिक अनुशासन है। उच्छृंखलता का नियन्त्रण इन्हीं तीन में किया जाता है; इसलिए उन्हें तप वर्ग में गिना गया है। आत्मोत्कर्ष का दार्शनिक पक्ष योग में और क्रियापक्ष तप में गिना जाता है। योग को संस्कृति और तप को सभ्यता कह सकते हैं। इन्हीं के दर्शन, अध्यात्म और धर्म के नाम से जाने जाते हैं।

     योग और तप के माध्यम से कितनी ही लौकिक और अलौकिक ऋद्धि-सिद्धियों का आकर्षक वर्णन साधना विज्ञान के अन्तर्गत किया गया है। इनमें अत्यन्त स्पष्ट सिद्धियाँ शारीरिक और मानसिक रोगों के निवारण की हैं। धर्म पालन से शरीर निरोग बनता है और अध्यात्म का अवलम्बन करने से मनोविकारों की जड़ें कटती हैं। प्रस्तुत सन्दर्भ में अन्यान्य लाभों की चर्चा न करते हुए इतना भी सोचा जा सकता है कि जीवन के सुविधा और प्रगति के उभयपक्षीय उद्देश्य पूरे करने वाले आरोग्य की रक्षा में धर्म और अध्यात्म का क्या योगदान हो सकता है और उस योगदान को किस प्रकार व्यवहार में उतारा जा सकता है?

     इस सन्दर्भ में शरीर-शास्त्र, मनःशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र के मूर्धन्य विशेषज्ञों का मत यह है कि जीवनक्रम में यदि धर्म और अध्यात्म के वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश किया जा सके, तो उसकी आस्थाएँ, प्रवृत्तियाँ, आकांक्षाएँ, विचारणाएँ एवं गतिविधियाँ ऐसी मोड़ ले सकती हैं ,जिनमें आदर्शों को अपनाने की दिशा में प्रगति क्रम चल पड़े। इससे स्वास्थ्य - रक्षा पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ेगा। पिछले रोगों को मिटाने और भविष्य में हंसती-हंसाती हलकी-फुलकी जिन्दगी जीने का सहज अवसर प्राप्त होगा।

   प्राचीनकाल में जब धार्मिकता का वातावरण था, तब पुष्टाई और चिकित्सा की उतनी सुविधा न होते हुए भी जन-स्वास्थ्य की स्थिति बहुत सन्तोषजनक थी। जब से लोग निरुद्देश्य जीवन जीने लगे हैं - उच्चस्तरीय आस्थाओं की अवहेलना करने लगे हैं - विलासी, बनावटी और अहंकारी गतिविधियाँ अपनाने लगे हैं- तब से आन्तरिक तनावों और अन्तर्द्वन्द्वों में भारी वृद्धि हुई है। फलतः जनस्वास्थ्य को भारी आघात लगा है। तथ्य को यदि ध्यान में रखा जा सके तो स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से भी धार्मिक मनोवृत्ति को वापिस लौटाने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता अनुभव होगी।

       पाश्चात्य देशों में धार्मिकता को स्वास्थ्य- संरक्षण एवं रोग- निवारण के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है और उस परीक्षण के अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं। विंग्स आफ हीलिंग, मार्च आफ फेथ, क्रिश्चियन साइन्स, यूनिटी जैसी संस्थाएँ धार्मिकता के उपचारों के सहारे शारीरिक और मानसिक रोगों के निराकरण का प्रयोग कर रही हैं और उसमें उन्हें आशातीत सफलता मिल रही है। इन प्रयोग परीक्षणों में अमेरिका के नार्थ केरोलिना प्रान्त के ब्लूरिज पर्वत श्रेणियों के मध्य बना हुआ हेव्रान आश्रम बहुत ख्याति प्राप्त कर चुका है। इसके संस्थापक डॉ. डिलाई आरोग्य लाभ के लिए आने वाले रोगियों के लिए एक ही उपचार बताते हैं कि वे जब तक यहाँ रहें ,अपने आपको धर्म चिन्तन में प्रभु प्रार्थना में निरत रखें। आगन्तुकों को तत्काल शान्ति मिलती है और वे अपना कष्टभार हलका हुआ ,अनुभव करने लगते हैं|      

       क्षय से  पिड़ित एक लँगड़े व्यक्ति चालर्स फिल्मोर को जब सब ओर से निराशा मिली और डाक्टरों ने उनके रोग को असाध्य धोषित कर दिया,तो उन्होंने प्रार्थाना का अवलम्बन किया और उसी को चिकित्सा – उपचार के स्थान पर काम में लाने लगे | जीवन बच गया,तो उन्होंने उपासना को आरोग्य – रक्षा के लिए प्रयुक्त करना आरम्भ किया | एक छोटे से किराये के मकान में उनने कार्य आरम्भ किया |रोगियोंको लाभ मिला, तो ख्यति भी फैली ओंर श्रध्या भी बढ़ी ; फलत: उस आश्रम का बिस्तार बढ़ता चला गया | इन दिनों उसका विस्तार 12oo एकड़ भूमि में है| हजारों की संख्या में रोगी निरन्तर निवास करते ओंर आरोग्य लाभ लेते है| सात सौ कर्मचारी काम करते है | दो साप्ताहिकों और सात मासिक – पत्रों की 20 लाख प्रतियों यहाँ से हर महीने प्रकाशित होती है | प्रतिदिन 6 हजार पत्र आते है | यहाँ से छपने वाले प्रार्थना – साहित्य का अनुवाद संसार की 140 प्रमुख भाषाओं में होता है | वह यूनिटी संस्था अमेरिका का एेसा धर्म –संस्थान है,जिसकी आधारशिला भर ईसाई मतावलम्बी है |लाभ पाने की द्रष्टि से सभी धर्मो और वर्गो को समान सुविधा है |

आयुर्वेद – चिकित्सा – पद्धति में, जहाँ रोगों की औषधि  –उपचार  –पद्धति के वर्णन हैं ,वहाँ उनके मूल का स्थानरण की ओर संकेत करते हुए यह भी बताया गया है कि धर्मानुष्ठानों के माध्यम से जीवन क्रम को अधिक पवित्र बनाने का उपक्रम भी रोग निवारण के लिए आवश्यक है। चरक  – संहिता के एक प्रसंग में छात्र अग्निवेश आचार्य चरक से पूछता है - भगवन | संसार में पाये जाने वाले अनेक रोगों का मूल कारण क्या है?" आचार्य उत्तर देते हैं "- ‘लोगों के दुष्कर्म जिस स्तर के होते हैं, उसी के अनुरूप उन्हें पापों का प्रतिफल शारीरिक और मानसिक व्याधियों के रूप में प्राप्त होता है।"

    जिस प्रकार शरीर में भरे विषद्रव्य का निष्कासन एवं मारण ,रोग- निवारण के लिए आवश्यक है, उतना ही आवश्यक यह भी है कि कुकर्मों के प्रायश्चित और कुसंस्कारों के निष्कासन के लिए धर्मानुष्ठानों की प्रक्रिया का आश्रय लिया जाय।


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