आस्था, जिम्मेदारी और हिम्मत

June 1978

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                                                       आस्था जिम्मेदारी और हिम्मत

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       मनुष्य के सामने परिस्थितिजन्य कठिनाइयाँ हैं तो पर वे अत्यन्त ही स्वल्प हैं। कठिनाइयों के अन्धड़ और तूफान तो अन्तःक्षेत्र में उठते हैं ; और जीवन के सारे क्षेत्र को अस्त-व्यस्त करके रख देते हैं । अपने को दूसरों से पृथक् और दूसरों से घटिया समझना ,ऐसा विलगाव है, जिससे इस संसार में बहते हुए आनन्द प्रवाह से हम वंचित रह जाते हैं। आनन्द का एकाकी अस्तित्व है नहीं, वह संयुक्त उपार्जन है। उसे साझेदारी की कमाई कह सकते हैं। एकाकी चिन्तन के कारण जो अलग– थलग पड़ता है , वह उस संसार की अति महत्वपूर्ण सरसता से वंचित ही रह जाता है।

    यदि अपने को दूसरों से भिन्न और पृथक् समझा जाये , तो फिर अपरिचय का भय मन पर सवार होता चला जायगा। आमतौर से अन्धेरे में डर लगता है। पूछा जाय कि डर किसका लगता है , तो कुछ उत्तर न बन पड़ेगा। चोर, भूत, साँप, शेर आदि वहाँ कुछ भी तो नहीं होता , पर डर तो छाया ही रहता है। अँधेरा किसी को क्या त्रास दे सकता है ? इसका उत्तर एक ही है कि उस स्थिति में आदमी अपने को अकेला पाता है। अकेला असहाय होता है। बाहर के सहयोग और सम्पर्क से वंचित रह जाने पर मनुष्य के पास जो कुछ बचा रहता है , वह बहुत थोड़ा ही नहीं, खोटा भी है। उतने भर से उसका काम नहीं चल सकता। अभाव ,ग्रस्तता, नीरसता, एकाकीपन यह सभी डरावने हैं। अँधेरे में यही वातावरण भरा रहता है ;और आदमी सहज ही डरने लगता है।

      प्रगतिशील जीवन के तीन आधार हैं– (1) आस्था (2) जिम्मेदारी (3) हिम्मत। इन्हें शरीरयात्रा के लिए अन्न, जल और वायु की मौलिक आवश्यकताओं की भाँति ही गिना जाना चाहिए; और समझा जाना चाहिए प्रसन्नता और सफलता का आनन्द ,आस्था, जिम्मेदारी और हिम्मत को अपनाये बिना, मिल ही नहीं सकेगा।

     सोने – खाने तक का सीमित जीवन तो कृमि -कीटक भी बिताते हैं। मनुष्य उनसे कुछ आगे है; और अधिक है। यह विशेषता कौशल एवं चातुर्य मात्र की नहीं है | इस दृष्टि से तो कितनी ही ऐसी विशेषताएँ बहुत से प्राणियों में पाई जाती हैं ,जिन्हें देखते हुए मनुष्य घटिया ही बैठता है। उसकी मौलिक विशेषता है- आस्था , जो अन्य किसी प्राणी में नहीं पाई जाती। इसी के आधार पर वह ऊँचा उठा और आगे बढ़ा है। जीवन के साथ कुछ आदर्श उद्देश्य जुड़े हुए हैं और वह कुछ नीति - नियमों के साथ बँधा हुआ है। यह अनुभव करने के उपरान्त वह श्रेष्ठता को अक्षुण्य बनाये रहने की आवश्यकता अनुभव करता है। इस संसार की कोई नियामक सत्ता है। यहाँ कोई अनुशासन विद्यमान है। श्रेष्ठता ही बुद्धिमत्ता है ; और सज्जनता ही प्रसन्नता देती है। सद्भावों के सहारे ही विश्वास और सम्मान प्राप्त किया जा सकता है। स्थिर सफलता के लिए नीति- नियमों को अपनाये रहना आवश्यक है। ये मान्यताएँ जिसके अन्तःकरण में जितनी गहराई तक जमी होंगी ,बवह उतना ही आस्थावान कहा जायगा। व्यक्तित्व की गरिमा आँकने की कसौटी उसकी आस्थाएँ ही होती हैं। जिसने आदर्शों से अपनी श्रद्धा गँवा दी, उसके दृष्टिकोण में निष्कृष्टता और व्यवहार में दुष्टता की मात्रा बढती चली जायगी। नाव में पानी भरने से वह भारी होते-होते डूबने लगती है। आस्था -विहीन जीवन आन्तरिक गरिमा गँवाता चला जाता है। तब उसके पास धूर्तता मात्र बची रहती है। इतने भर से कुछ ऐसा नहीं कमाया जा सकता जिसे संतोषप्रद कहा जा सकेगा। निकृष्टता में सबसे बड़ा दोष यह है कि वह सम्मान और विश्वास से वंचित कर देती है ,उसका सच्चा मित्र एक भी बचा नहीं रहता।

      नास्तिकता का अर्थ - नीति और मर्यादा पर से आस्था गँवा बैठना है। उत्कृष्टता का ही दूसरा नाम ईश्वर है। ईश्वर को मानने का अर्थ है- आदर्शों के प्रति आस्था बनाये रहना। उसे गँवा देने पर मनुष्य नास्तिक बन जाता है ,भले ही वह घण्टों पूजा -पाठ करता हो। नास्तिकता के अनेक दुष्परिणाम शास्त्रों में बताये गये हैं। उन सबमें भयावह है व्यक्तित्व में निकृष्टता का प्रवेश। आस्थाविहीन व्यक्ति ओछा सोचता है- घिनौना करता है; फलतः वह सब कुछ गुम जाता है, जिसके ऊपर प्रसन्नता, प्रतिभा, और सफलता का आधार खड़ा होता है।

      जीवन की सफलता का दूसरा तथ्य है–- अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करना। हम अपने कामों के प्रति स्वयं जिम्मेदार हैं। प्रगति और अवगति में अपनी ही भूमिका प्रधान रहती है। दूसरे के सहयोग एवं अवरोध का भी महत्त्व हो सकता है ,किन्तु मूल बात अपने सोचने और अपने करने की है। अब तक के अवरोधों में अपने ही आलस्य, प्रमाद की सबसे बड़ी भूमिका देखी जा सकती है। दूसरे प्रयत्नशील व्यक्ति ,इससे भी गई -गुजरी स्थिति को पार करके, अपने पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़े हैं; फिर अपने रुके रहने का क्या कारण होना चाहिए | परिस्थितियाँ बदली जा सकती हैं- अवरोध हट सकते हैं- साधन जुट सकते हैं; शर्त एक ही है कि अपनी आन्तरिक प्रखरता पैनी रखी जाय।

      अपने कन्धों पर पड़े हुए उत्तरदायित्वों को समझने और उन्हें पूरा करने के लिए जागरुकता बनी रहनी चाहिए। जो काम सामने है, उसे बेगार भुगतने की तरह नहीं, वरन् प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पूरा करना चाहिए। आदमी के कामों के साथ जुड़ा हुआ मनोयोग एवं परिश्रम ही उनका स्तर बढ़ाता है; और इन क्रिया-कलापों को देखकर ही किसी के जिम्मेदार– गैर जिम्मेदार होने का पता चलता है। ईमानदारी और सज्जनता का जितना महत्व है ,उतना ही जिम्मेदारी समझने और निवाहने का भी। स्मरण रखा जाय, जिम्मेदारी अपनाये बिना व्यक्तित्व का वजन बढ़ ही नहीं सकेगा ;और इसके बिना प्रगति की दिशा में बढ़ सकने का अवसर मिल ही न सकेगा। अवरोधों के लिए दूसरों को दोष देने से ,आत्म-प्रवंचना से, मन हलका किया जा सकता है ,पर कुछ कर गुजरने की क्षमता तो जिम्मेदारी -समझने और उसे पूरी करने से ही उत्पन्न होती है।

      तीसरा तथ्य है हिम्मत, जिसके सहारे अग्रगमन के लिए आवश्यक आत्मशक्ति उभरती है। शरीर इसी के सहारे अधिक काम करता है। मनःसंस्थान में इसी से दूरदर्शिता और गम्भीरता बढ़ती है। प्रसुप्त शक्तियों को जगाकर दुर्बल को बलिष्ठ बना देना ,हिम्मत के सहारे ही बन पड़ता है। दूसरे उन्हीं का साथ देते और उन्हीं के पीछे चलते हैं ,जो हिम्मत के धनी होते हैं। प्रशंसनीय गुण अनेक हैं, पर उनमें से जो तत्काल सत्परिणाम उत्पन्न करता है ,उसे साहस ही कह सकते हैं।

      हिम्मत और ताकत एक ही बात है। साधनबल का कोई मूल्य नहीं। शक्ति तो साहस में रहती है। हिम्मत गँवा देने पर शरीरबल और शस्त्रों से सुसज्जित योद्धा भी पराजितों की स्थिति में जा पहुँचता है। जो भीतर से हार गया, उसके लिए विजयश्री का वरण कर सकना असम्भव है। आशा की बाती- उत्साह का तेल और साहस की आग न हो तो जीवन -दीपक में प्रकाश उत्पन्न ही न हो सकेगा; और उस आलोक के बिना सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार दृष्टिगोचर होगा।

आस्था, जिम्मेदारी और हिम्मत का समन्वय जहाँ भी होगा ,वहाँ आन्तरिक प्रसन्नता और वाह्य क्षेत्र की सफलता के आधार खड़े होते चले जायेंगे। सर्वतोमुखी प्रगति के लिए यह समन्वय किन्हीं भाग्यवानों को ईश्वरीय वरदान की तरह उपलब्ध होता है।


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