तीर्थयात्रा का आधार , स्वरूप और प्रतिफल
तीर्थयात्रा का पुण्यफल धर्मशास्त्रों में पग-पग पर भरा है। उसके कारण पाप- प्रवृत्तियों का विनाश और उत्कृष्ट सत्यप्रवृत्तियों के अभिवर्धन का जो प्रयास बन पड़ता है ,वही पुण्यफल बनकर परम कल्याणकारी सिद्ध होता है। तीर्थयात्रा का पुण्यफल बताते हुए कहा गया है-
निष्पापत्वं फलं बिद्धि तीर्थस्य मुनिसत्तम। कृषेः फलं यथा लोके निप्पन्नान्नस्य भक्षणम्॥
-देवी भागवत
जिस प्रकार कृषि का फल अन्न उत्पादन है। उसी प्रकार निष्पाप बनना ही तीर्थयात्रा का प्रतिफल है।
तीर्थैस्तरन्ति प्रवतो महीरििति यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति। अन्नादधुर्यजमानाय लोकं दिशो भूतानि यद कल्पयन्त॥
-अथर्ववेद
जिस तरह यज्ञ करने वाले यजमान यज्ञादि द्वारा बड़ी-बड़ी आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करते हैं, उसी प्रकार तीर्थ यात्रा करने वाले तीर्थ यात्री तीर्थादि द्वारा बड़े-बड़े पापों और आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करते हैं।
अनुपातकिनस्त्वेते महापातकिनो यथा। अश्वमेधेन शुद्धयन्ति तीर्थांनुसरणेन च॥
-विष्णु स्मृति
महापातकी और उतपातकी के शुद्ध करने वाले दो ही साधन हैं। - यज्ञ और तीर्थाटन।
अनुपोथ्य त्रिरात्राणि तीर्थान्य नभिजम्य च। अदत्त्वा कांचनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते॥
-महाभारत
जो तीन रात्रि तक उपवास नहीं कर सका, जिसने कभी तीर्थयात्रा नहीं की, जिसने परमार्थ के लिए दान नहीं किया, ऐसा व्यक्ति दरिद्र होता है।
ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरत सत्रम। तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते॥
-महाभारत
ऋषियों का गुह्य मत यह है कि यज्ञों में भी तीर्थयात्रा की विशेषता है।
तीर्थाटन की महिमा का बखान करने वाले कई प्रसंग तुलसीकृत रामचरित मानस में आते हैं।-
तीर्थाटन साधन समुदाई, विद्या विनय विवेक बड़ाई॥ जहँ लगि साधन वेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी॥
-उत्तरकांड
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के उर माही॥
-अयोध्याकांड
सूरसागर में महात्मा सूरदास तीर्थयात्रा न कर सकने को एक दुर्भाग्य मानते हैं और उसका सुयोग न बन पड़ने पर दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं -
मन ही मनही माँहि रही, ना हरि भजे न तीरथ सेये, चोटी काल गही ||
-सूरदास
विधिपूर्वक तीर्थ करने से तात्पर्य है – उस परिभ्रमण के साथ-साथ अपनी दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने और सत्यप्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए भाव भरा प्रबल प्रयास करना।
तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरन्ति ये। सर्व द्वन्द्वसहा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः॥
-नारद पु.
जो यथोक्त विधिपूर्वक यात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।
कामं क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थ माविशेत्। न तेन किंचिदप्राप्तं तीर्थाभिगमनाद् भवेत॥
-नारद पु0
जो काम, क्रोध तथा लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थयात्रा से सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्दधानः समाहितः। कृतपापो विशुद्धये्त् किं पुनः शुद्ध कर्म कृत्॥
धैर्यवान और श्रद्धायुक्त होकर एकाग्र चित्त से तीर्थों का सेवन करने से पापाचारी भी शुद्ध हो जाता है। फिर शुद्ध कर्म करने वाले का तो कहना ही क्या।
यदि तीर्थाटन पर्यटन मनोरंजन के लिए किया गया है, तो उसका उतना ही लाभ है। किन्तु उसे आत्मपरिष्कार के लिए प्रबल प्रयत्न करने के उद्देश्य रूप से किया गया है , तो उसका प्रतिफल श्रद्धा के अनुरूप ही होगा। धर्म प्रयोजनों में यह श्रद्धा ही प्रमुख निमित्त है।
मन्त्रे तीर्थे द्वजे दैवे दैवेज्ञे भेषजे गुरौ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥
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ज्योतिषी में जिसकी जैसी जितनी श्रद्धा भावना होती है, वैसा ही फल मिलता है।,
येनैकादश संख्यानि यन्त्रितानीन्द्रियाणि वै। स तीर्थ फलमाप्नोति नरोऽन्यः क्लेशभाग् भवेत्॥
जिसने अपनी ग्यारह (दस इन्द्रियाँ और मन) इन्द्रियों को वश में कर रखा है, वही तीर्थयात्रा का वास्तविक फल पाता है, दूसरे अजितेन्द्रिय मनुष्य तो केवल क्लेश के ही भागी होते हैं।
तीर्थ में व्यक्ति का परिष्कार होता है ,यह ठीक है; पर यह भी सत्य है कि उत्कृष्ट स्तर के ब्रह्मज्ञानी किसी स्थान को तीर्थ बना देते हैं।
यो न क्लिष्टोऽपि भिक्षेत ब्राह्मणस्तीर्थ सेवकः। सत्यवादी समाधिस्थः स तीर्थस्योपकारकः॥
जो तीर्थसेवी ब्राह्मण अत्यन्त क्लेश पाने पर भी किसी से दान नहीं लेता, सत्य बोलता और मन को वश में रखता है, वह तीर्थ की महिमा बढ़ाने वाला है।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थ भूताः स्वयं विभो। तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता॥
-भागवत
युधिष्ठिर विदुर से कहते हैं - आप जैसे भक्त स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान के द्वारा, तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।
तीर्थयात्रा का एक उद्देश्य है - उन क्षेत्रों में निवास करने वाले मनीषियों से आत्मकल्याण एवं उज्ज्वल - भविष्य -निर्माण के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन प्राप्त करना।
तीर्थेषु लभ्यते साधु ब्रह्मज्ञान परायणः। यद्दर्शनं नृणां पापराशिदाहाशुशुक्षणिः॥
-पद्म पुराण
तीर्थों में ब्रह्म परायण, साधु सज्जन मिलते हैं। उनका दर्शन मनुष्यों की पाप-राशि को जला डालने के लिए अग्नि के समान है।
तस्मात् तीर्थेषु गंतव्यं नरैः संसार भीरुभिः। पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणि विराजिषु॥
-पद्म पुराण
इसलिए जो लोग पाप से डरे हुए हैं और उसके बन्धन से छूटना चाहते हैं ,उन्हें पवित्र जल वाले तीर्थों में, जो साधु -सज्जनों के समूह से सुशोभित हैं, अवश्य जाना चाहिए।
“ तरति अनेन इति तीर्थ”
तारने वाले को तीर्थ कहते हैं। तरना सत्कर्मों, सद्भावनाओं, सद्विचारों एवं सज्जनों के द्वारा ही हो सकता है। इसलिए इन्हीं को तीर्थ कहते हैं। जिन स्थानों में इन प्रवृत्तियों को बढ़ाने वाला वातावरण होता है, उन्हें ही तीर्थ स्थान कहा गया है।
साधुनां दर्शनं पुण्यं तीर्थ भूता हि साधवः। तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधु समागमः॥
साधुओं का दर्शन बड़ा पुण्यकारक होता है, क्योंकि साधु तीर्थ रूप ही हैं। तीर्थ तो समय पर फल देते हैं, किन्तु साधु समागम का तत्काल फल मिलता है।
मुख्या पुरुष यात्रा हि तीर्थ यात्रा प्रसंगतः। सद्भिः समागमो भूमिभागस्तीर्थ तयोच्य ते॥
-स्कन्ध पुराण
तीर्थयात्रा के प्रसंग से महापुरुषों के दर्शन के लिए जाना ही तीर्थयात्रा का मुख्य उद्देश्य है, अतः जिस भूभाग में सज्जन निवास करते हैं वही तीर्थ कहलाती है।
ब्राह्मणा जंगमं निर्मलं सार्वकामिकम्। येषाँ वाक्योदकेनैव शुद्धयन्ति मलिना जनाः॥
-शातातपस्मृति
साधु-ब्राह्मण चलते - फिरते तीर्थ हैं। जिसके सद्वाक्यरूपी निर्मल जल से मलिन जन भी शुद्ध हो जाते हैं।
सम्पूर्ण भारत वर्ष ही तीर्थ स्वरूप है। उसके किसी भी भाग की यात्रा की जाय , उसे तीर्थयात्रा ही माना जायगा।
त्रयाणपि लोकानां तीर्थ मध्य मुदाहृतम्। जाम्बवे भारतं वर्ष तीर्थ त्रैलोक्य विश्रुतम॥ कर्म भूमिर्यतः पुत्र तस्मातीर्थ तदुच्यते॥
-ब्रह्म पुराण
तीनों लोकों के मध्य में स्थित कर्म भूमि भारत वर्ष साक्षात् तीर्थ स्वरूप है।
छोटों के लिए, बड़े शिष्यों के लिए ,अज्ञान निवारण करने वाले गुरुजन भी तीर्थ के समान ही श्रद्धास्पद होते हैं।
अज्ञानाख्यं तमस्तस्य गुरुः सर्व प्रणाशयेत्। तस्माद् गुरुः परं तीर्थ शिष्याणामवनी यते॥
-पद्म पुराण
हे राजन्! शिष्य के हृदय के अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले गुरु, शिष्यों के लिए परम तीर्थ हैं।
तीर्थ स्थान में जाकर पाप परित्याग का अभ्यास करना चाहिए। वहाँ अपने ऊपर कठोर नियंतण करके यह प्रयत्न करना चाहिए कि उस पुण्यक्षेत्र में कोई अभ्यस्त दृष्वृत्ति भी सक्रिय न होने पावे। तीर्थ मर्यादा का उल्लंघन करके वहाँ किये गये पाप तो और भी अधिक दुःखद एवं दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध होते हैं।
यदन्यत्र कृतं पापं तीर्थ तद् याति लाघवम्। न तीर्थ कृत मन्यत्र क्वचि देव ब्ययोहति॥
दूसरे स्थान पर किया हुआ पाप तीर्थ में क्षीण हो जाता है, परन्तु तीर्थ में किया हुआ पाप अन्य स्थानों में कभी नष्ट नहीं होता।
अन्य क्षेत्रे कृतं पापं पुण्य क्षेत्रे विनश्यति। पुण्य क्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति॥
-स्कन्ध पुराण।
दूसरे क्षेत्रों के पाप, पुण्य- क्षेत्रों में नष्ट हो जाते हैं। किन्तु पुण्यक्षेत्रों में किये हुए पाप कहीं नष्ट नहीं होते।
तीर्थयात्रा पद यात्रा के रूप में ही होनी चाहिए। सवारी पर नहीं। तभी उसका समुचित लाभ मिलता है।
इति ब्रुवन् रसनया मनसा च हरिं स्मरन्। पादचारी गति कुर्यात् तीर्थ प्रति महोदयः॥
वाणी में कीर्तन करते हुए तथा मन में भगवान का स्मरण करते हुए पैदल तीर्थ यात्रा करने वाले का महान अभ्युदय होता है।
ऐश्वर्य लोभान्मोहाद् वा गच्छेद् यानेन या नरः। निष्फलं तस्य तत्तीर्थ तस्माद्यानं विवर्जयेत्॥
-मत्स्य पुराण
ऐश्वर्य के गर्व से, मोह से या लोभ से जो सवारी पर चढ़कर तीर्थयात्रा करता है, उसकी तीर्थयात्रा निष्फल हो जाती है।
आज की स्थिति में ब्रह्मवर्चस् साधना के अन्तर्गत आरम्भ की गई धर्मप्रचार यात्रा मण्डलियाँ ही तीर्थयात्रा का वास्तविक उद्देश्य पूरा कर सकती हैं। ऋषि प्रणीत इस पुण्य परम्परा को नव जीवन देने के लिए ऐसी ही सार्थक तीर्थ यात्रा प्रक्रिया देश के कोने-कोने में प्रारम्भ होनी चाहिए।