गढ़े खजाने ढूँढ़ने पर भी मिलते क्यों नहीं?

June 1978

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                                                          गढ़े  खजाने  ढूँढ्ने  पर भी मिलते क्यों नहीं ?

      भूमिगत खजानों की चर्चा संसार में अन्यत्र भी होती रहती है, पर भारत में तत्सम्बन्धी तथ्यों और किम्वदंतियों का ऊहापोह अपेक्षाकृत अधिक ही होता रहता है। इन खजानों में कितनी राशि है ? कहाँ छिपी है? और उसे प्राप्त करने के लिए क्या किया जा सकता है ? प्रायः इन्हीं प्रश्नों पर चर्चा होती रहती है। खुदाई के अनेक प्रयत्न होते रहते हैं ? पर उनमें सफलता कदाचित ही थोड़ी बहुत मिल पाती है। इससे दो निष्कर्ष निकलते हैं एक तो यह कि वे गाथाएंँ असत्य हैं, दूसरा यह कि उनका स्थान जानने और प्राप्त करने के उपाय हस्तगत नहीं हो पाते। इन्हीं दो संदर्भों में छानबीन चलती रहती है। उत्सुक व्यक्ति इन्हीं के टिप्पणी पर माथा पच्ची करते रहते हैं और उपाय करते हैं कि किसी प्रकार उस धन राशि का पता लगाया और लाभ उठाया जाय।

     इस सन्दर्भ में एक तीसरा तथ्य और भी अधिक विचारणीय होना चाहिए कि सृष्टा की अनेकानेक विधि व्यवस्थाओं में धन सम्बन्धी नीति, मर्यादा और व्यवस्था क्या है ? उसे न समझ पाने पर एक ऐसी बाधा बनी रहेगी जिसके कारण उस भूमिगत धन का पाना और पाकर उसे लाभ उठाना सम्भव हो ही नहीं सकेगा।

                    सर्वविदित है कि इस धरती और समुद्र के गर्भ में बहुमूल्य खनिजों के विशाल भण्डार दबे पड़े हैं। सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि धातुओं की खदानें आखिर जमीन से ही तो निकलती है। कोयले को काला सोना और तेल को पतला सोना कहा जाता है। हीरा, पन्ना, नीलम, पुखराज आदि रत्न भी खनिज ही हैं और जमीन से खोदकर निकाले जाते हैं। मोती, मूँगा आदि समुद्र में पाये जाते हैं। दूसरे रासायनिक पदार्थ भी प्रकारान्तर से भूमि और जल सम्पदा ही हैं। यह समझने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि भूमि ही रत्न गर्भा है। समुद्र को भी एक सीमा तक ऐसा ही श्रेय मिल सकता है। यह सम्पदा सुलभ क्यों नहीं ? इसका उत्तर एक ही है कि मनुष्य के उचित श्रम, मनोयोग, कौशल के फलस्वरूप ही सही पारिश्रमिक के रूप में ही प्रकृति यह सम्पदा किसी को देना चाहती है। पात्रता के मूल्य पर अनुदान पाने की ही सृष्टि व्यवस्था है। मुफ्त की सम्पदा अनैतिक है। भले ही वह जुए, सट्टे में कमाई गई हो, उत्तराधिकार में पाई गई हो, लूटकर लाई गई हो। जो उचित परिश्रम के प्रखर कौशल के आधार पर कमाया गया है वही नैतिक है। नीति युक्त सम्पदा के साथ एक और मर्यादा जुड़ी हुई है कि उसका उपभोग या संग्रह नहीं हो सकता, उसका उपयोग होना चाहिए और सर्वजनीन वितरण भी। व्यक्तिगत लिप्सा के लिए सम्पदा को जमा करना माता लक्ष्मी को बन्दिनी, रखेल औरत का दर्जा देने बराबर है। इसी प्रकार सामान्य लोक निर्वाह की अपेक्षा बहुत अमीरी का उपभोग भी अपने से छोटों के लिए मिलने वाले भाग को हड़प जाने के बराबर है। मनुष्यकृत कानून में दण्ड की व्यवस्था भले ही रखी न गई हो, पर ईश्वरीय नीति मर्यादा से यह धारा सुनिश्चित रूप से विद्यमान है कि सम्पदा उचित पौरुष और कौशल के सहारे ही कमाई जाय और उपार्जन के उपरान्त उसका उपयोग अपने लिए उतना ही किया जाय जितना कि औसत नागरिक के हिस्से में आता है। शेष को संव्याप्त अभाव और पिछड़ेपन के निवारण में तत्काल उदारता पूर्वक वितरित कर दिया जाय।

      इस नीति मर्यादा की कसौटी पर जब खजानों में देवी सम्पदा को परखा जाता है तो प्रतीत होता है कि वह हर दृष्टि से खोटी है। उसमें धन सम्बन्धी नीति मर्यादाओं का पूरी तरह उल्लंघन हुआ है। फलस्वरूप उसके संग्रही वैसा लाभ न उठा सके जैसा कि वे चाहते थे। जिस प्रकार उनने उसे हड़पने की चेष्टा की उसी प्रकार प्रकृति ने उनके हाथ से छीन लिया। यह छीना भी सामान्य रीति से नहीं वरन् करारे तमाचे लगा-लगाकर उसे उगलने के लिए बाध्य किया गया।

        भूमिगत खजानों में कितनी राशि है और किस स्थान पर दबी है? यह जानने से पूर्व इस उपेक्षित तथ्य को भी जानना चाहिए कि वह किस प्रकार पाई और क्यों छिपाई गई है? स्पष्ट है कि वह धन राशि किसी ने उचित परिश्रम करके नहीं कमाई है। उसे न्यायोचित परिश्रम का प्रतिफल नहीं कह सकते। वह विशुद्ध रूप से लूटमार का धन है। ऐसी लूटमार जिसके कारण अनेक को अपने निर्वाह साधनों से लेकर प्राणों तक का परित्याग करना पड़ा है। सभी जानते हैं कि लुटेरे, उठाईगीरे, ही नहीं होते। वे उत्पीड़न और आक्रमण की असह्य प्रताड़नाएंँ भी देते हैं |जिससे छीना गया है उसके सामान्य जीवन-क्रम को उस पदाघात से तोड़-मरोड़कर रख देते हैं। खजाने ऐसे ही लुटेरों का आततायी दुष्प्रवृत्तियों के प्रतिफल हैं। उन्हें जिस निर्दयता के साथ कमाया गया उसी संकीर्णता के साथ व्यक्तिगत उपयोग के लिए जमा करके रखा गया। रखें कहाँ? ऐसा अनीति उपार्जन को दूसरे अधिक बलिष्ठ लुटेरे छीनने को तैयार बैठे रहते हैं। भविष्य में उपभोग के लिए संग्रह और अन्य बलिष्ठों से बचाव की दृष्टि से ही उन्हें भूमिगत किया गया होता है। यदि ऐसा न होता तो उसका न तो संग्रह ही हो पाता और न सामयिक सदुपयोग की व्यवस्था करने की अपेक्षा जमीन में दबा देने की आवश्यकता पड़ती। स्पष्ट है कि इन खजानों की उपलब्धि और छिपाकर रखने की प्रवृत्ति के पीछे नैतिकता की एक किरण भी कहीं दीख नहीं पड़ती। नीति का समावेश होता तो उसे न्यायोचित रीति से कमाने और आवश्यकता से अधिक होने पर तत्काल सामयिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उसका उपयोग करने की योजना जुड़ी होती, उसे जमीन में दबाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। अनीति का समावेश जहाँ भी होगा वहाँ देवी अभिशाप बरसेगा और ऐसा प्रसंग बनेगा जिसके अनुसार आक्रान्ताओं को उसका लाभ उठाने से वंचित रहना पड़े। खजानों के लुप्त हो जाने भूमि द्वारा वापिस छीन लिए जाने के पीछे सृष्टा की इसी नीति मर्यादा को काम करते हुए देखा जा सकता है।

       कोई जमाना था जब ब्रह्मज्ञानी राजा जनक ने हल चला कर कृषि कर्म द्वारा अपनी व्यक्तिगत गुजारा करते थे और प्रजा द्वारा राजस्व के रूप में उपलब्ध हुए प्रजा धन को प्रजा हित में लगा देने की व्यवस्था बनाते रहते थे। राजा हरिश्चन्द्र ने सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपना सर्वस्व विश्वामित्र के सुपुर्द कर दिया था। संचय हो जाने पर राज्याधिकारी सर्वमेध यज्ञ का आयोजन करते थे अर्थात् संग्रहीत सम्पदा को सामयिक सत्प्रयोजनों के लिए पूरी तरह खर्च कर डालते थे और खजाने को सहज ही झाड़ बुहारकर पूरी तरह स्वच्छ कर देते थे। जहाँ अनीति उपार्जन ही नहीं है वहाँ संग्रह की आवश्यकता ही क्यों पड़ेगी। विशेषता व्यक्तिगत उद्धत उपभोग की बात तो सोचने तक में न आ सकेगी। ऐसी दशा में ऐसी धन राशि जमा ही न हो सकेगी। जिसे भूमिगत करने की आवश्यकता पड़े। अनैतिकता ही है जो छिपने और छिपाने के जाल-जंजाल बुनती रहती है। खजाने इसी कारण दबते और दबाये जाते हैं।

      स्पष्ट है कि डाकुओं की लूटपाट से प्राप्त हुई सम्पदा ही खजानों में दबी पड़ी है। सामान्य व्यक्ति को डाकू कहा जाता है। बलवान को सामन्त, शूरवीर, भूपति आदि नाम दे दिये जाते हैं। यह तो कहने वालों की इच्छा पर निर्भर है | अनीति उपार्जनकर्ता को हेय तो ठहराया जायेगा, भले ही उसे तिरस्कृत नाम दिया जाय अथवा डर के मारे सम्मानित शब्दों में विभूषित किया जाय। तथ्य अपनी जगह पर जहाँ के तहाँ बने रहेंगे। जिन दिनों खजाने जोड़ने और गाढ़ने की आपाधापी थी वह सामन्तवादी जमाना था। उन दिनों जिसकी लाठी उसकी भैंस का जंगली कानून चलता था। फलतः आक्रमण और लूटमार का ही आतंक सर्वत्र छाया रहता था और उसी की तैयारी या सुरक्षा की बात हर किसी के दिमाग पर छाई रहती थी। आये दिन युद्ध ठनते थे। इनका कोई नैतिक आधार नहीं था। प्रजा को सम्पदा, तरुणों और तरुणियों को गुलामों के रूप में पकड़-धकड़, राजमहलों पर अधिकार, शोषण के लिए अधिक भूमि पर अधिकार, निरंकुशता बरतने के लिए अधिक साधन सम्पन्नता जैसे उद्देश्य ही उन दिनों के आक्रमणों के पीछे काम करते थे। इसी कुचक्र में अनेक को निरीह निर्दोष प्राण गंँवाने और मर्मांतक कष्ट सहने पड़ते थे। सामन्तों की सेनाएंँ लूटपाट करती थी। उनका बड़ा भाग तो अधिनायक के पास जा पहुँचता था, पर होता यह भी था कि उनके चतुर सेनापति और सिपाही अपने दांव−पेंच ढूँढ़ते थे और जहाँ भी अवसर मिलता उस लूट के माल का बड़ा भाग अधिनायक तक पहुँचाने की अपेक्षा बीच में स्वयं ही हड़प लेते थे। इसे वे रखें कहाँ? जमीन में दाब देना ही एकमात्र उपाय था। प्रायः यही है वह तात्विक इतिहास जो इन खजानों के पीछे छिपा पड़ा है , जिनकी उखाड़-पछाड़ के लिए कितने ही लोग कितने ही प्रकार से सोचते और ललचाते रहते हैं।

      खजाने किस प्रकार जमा हुए इसके कुछ उदाहरण सामने हैं-

    अकबर का विश्वासी सेनापति अबुल फजल, हैदराबाद की लूट का धन लेकर दिल्ली वापिस जा रहा था। उसके पास 23 करोड़ के करीब नकदी और लगभग इतनी ही रत्न राशि थी। रास्ते में ओरछा के राजा ने उसे पकड़कर मार डाला ओर सारा पैसा छीन लिया। ओरछा के अभिलेखों में इसका उल्लेख है।

अनीति उपार्जन में एक बड़ी कठिनाई यह रहती है कि संग्रहकर्त्ता की संकीर्ण स्वार्थपरता उसे किसी उपयोगी काम में लगाने की उदारता नहीं दिखा सकती। उसे यहाँ से वहाँ छिपाने फिरने की ही तरकीबें ढूँढ़ती रहती हैं। अन्ततः उसका क्या होता है यह बात ऐसे लोगों के मस्तिष्क में उपजती ही नहीं।

  रतलाम के जंगलों में छिपाये गये एक खजाने का विवरण उपलब्ध ताम्र पत्र में इस प्रकार मिलता है- (1) सोना की 1089 ईंटें (2) मोटे मोतियों की माला 256 (3) सोने की छड़ें 11622 (4) खुले मोती 45678 (5) कंठे हीरों के 22 कंठे व अन्य रत्नों के 37 इसके अतिरिक्त अनेक रत्न जड़ित स्वर्ण आभूषणों की बड़ी सूची और भी है।

     शाहजहाँ को जब यह लगा कि उसका बेटा औरंगजेब विश्वास पात्र नहीं रहा तो उसने अपने खजाने का बहुमूल्य हिस्सा कानपुर के समीपवर्ती जंगलों में गढ़वा दिया। एक ताम्र पत्र में इसका वर्णन कैथी लिपि में मिलता है। जिससे पता चलता है कि नौ सौ देशों में भी यह सोना, चाँदी तथा जवाहरात भरे गये थे और जमीन में दफनाये गये थे।

    खजाने गाढ़ने के समय जो तांत्रिक विधि-विधानों पूजा उपचार की तरह प्रयुक्त होते थे उसका वर्णन देखने से ऐसे विवरण मिलते है जो उस दुरभि संधि के साथ ठीक तरह तालमेल बिठा देते हैं। गाढ़ने वाला अपने निवास से दक्षिण दिशा में उसे गाढ़ता था क्योंकि यह प्रेतों की दिशा है। प्रेतों को उसका संरक्षण नियुक्त करने के लिए आवाहन, पूजन, परिपोषण अनेक पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों की बलि देकर किया जाता था। उन्हें घड़ा मद्य प्रस्तुत किया जाता था। इतने उपहार पाकर वे चौकीदारी करते रहने को सहमत किये जाते थे।

    कहा जाता है कि यह प्रेत-पिशाच ही सर्पों के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी उस खजाने की रक्षा करते रहते हैं। यह सर्प अपने लिए जो उसे काम में ला नहीं सकते, पर किसी अन्य की भी किसी भले या बुरे उपयोग के लिए लेने नहीं देते। जो उसे प्राप्त करने की कोशिश करता है; उस पर सर्प या प्रेत के रूप में टूट पड़ते हैं और ठीक उसी मनोवृत्ति का परिचय देते हैं जो उस खजाने को जमा करने और गाढ़ने वाले की रही थी। हो सकता है उस संग्रहकर्ता की दुष्प्रवृत्तियाँ ही प्रकारान्तर से सर्प समुदाय या प्रेत संरक्षकों का रूप धारण करके उसकी चौकीदारी में संलग्न रहती हों।

   खजाना गाढ़ने की तरह ही उसे उखाड़ना भी खतरे से खाली नहीं है। यह प्रकृति की मर्यादा और ईश्वर की इच्छा के विपरीत है। उपार्जन कठोर परिश्रम और न्याय नीति के आधार पर होना चाहिए। औसत मनुष्य की तरह निर्वाह करके जो शेष बचता है उसे परमार्थ प्रयोजन में लगाते रहना चाहिए, ताकि संग्रह का अवसर ही न आने पावे। औचित्य इसी में है। अनीति से उपार्जन-लोभवश संग्रह-सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति में न लगाकर उसे उत्तराधिकारियों के जमा करने के लिए दाब पर रख देना विवेक दृष्टि से हेय ही कहा जा सकता है। खजाने गाढ़ने के पीछे कोई नीति सत्ता नहीं है। इसी प्रकार बिना श्रम उपार्जित सम्पत्ति के उपयोग की ललक भी नीति युक्त नहीं है। इससे धन का सिद्धान्त और स्वरूप ही विकृत होता है। सम्भवतः इसीलिए खजाने जमीन में जहाँ तहाँ गढ़े होने पर भी वे इसीलिए ऊपर उभरने नहीं पाते कि गाढ़ने वालों की तरह उखाड़ने वालों को भी उससे पश्चात्ताप ही उपलब्ध होगा।

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